बेबाक विचार

शेर-ए-पंजाब और उसके वारिस

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शेर-ए-पंजाब और उसके वारिस
हाल में जब लंदन स्थित भारतीय राजा महाराजा दलीप सिंह के बेटे प्रिंस विक्टर एल्बर्ट दलीप सिंह के लंदन स्थित आलीशान महल की नीलामी के जरिए बेचे जाने की खबर पढ़ी तो एक झटका लगा। नीलामी करने वाली कंपनी ब्यिूचैंप इस्टेट कंपनी ने इसकी न्यूनतमक कीमत 152 करोड़ रखी है। सिखो के लिए अपने अंतिम राजा व खालसा राज के राजा महाराजा रंजीत सिंह को लेकर काफी सम्मान है। शेर-ए-पंजाब के नाम से इतिहास बनाए हुए महाराजा रंजीत सिंह का राज्य अविभाजित भारत के उत्तर पश्चिमी हिस्से से लेकर अफगानिस्तान तक फैला हुआ था। उन्होंने 19वीं शताब्दी में 50 साल तक अपने साम्राज्य पर एकछत्र राज किया। उनका जन्म 13 नवंबर 1780 को गुजरावाला पाकिस्तान में हुआ था। उन्होंने 1835 में जींद कौर से शादी की। उनके बेटों के नाम खड़क सिंह, शेर सिंह, दलीप सिंह, ईश्वर सिंह, तारा सिंह, कश्मीरा सिंह, मुल्तना सिंह व पशौरा सिंह थे। बचपन में छोटी चेचक का शिकार हो जाने के कारण उनकी एक आंख चली गई थी। अपने पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने मात्र 10 साल की उम्र में पहली लड़ाई लड़ी व पंजाब पर पूरी तरह से नियंत्रण करने के पहले अनेक बार युद्ध लड़े। मात्र 21 साल की उम्र में उनके द्वारा सत्ता संभालने के बाद उनके राज्य का जमकर विस्तार हुआ। पहले वहां छोटी-छोटी रियासते होती थी व उनके शासक आपस में ही लड़ते रहते थे। उन्होंने अपने साम्राज्य का विस्तार करने के बाद ब्रिटिश शासको से अपने संबंध मधुर बनाए। उन्होंने अपने शासन का आधुनिकीकरण व लोगों की खुशहाली के लिए काम किए। वे सभी धर्मों का सम्मान करते थे। उनमें खालसा, सिख, हिंदू मुसलमान व यूरोपीय शामिल थे। बताते हैं कि उन्होंने यूरोपीय लोगों को अपनी सत्ता में शामिल करते समय उनसे दो शर्तें रखी थी। पहली शर्त यह थी कि वे लोग गोमांस नहीं खाएंगे व सिखों की तरह से दाढ़ी रखेंगे। उन्होंने अमृतसर में हरमिंदिर साहब तख्त, पटना साहब (बिहार) के गुरूद्वारे बनाएं।उनके झंडे पर हिंदू देवी-देवताओं जैसे हनुमानजी, चामुंडादेवी आदि की तस्वीरे बनाई गई थी। मेरे वरिष्ठ पत्रकार मित्र मनमोहन शर्मा के पूर्वज उनके खानदानी पुरोहित थे। महाराजा रंजीत सिंह के दरबारी इतिहासकार दिवंगत सोहन लाल की पुस्तक तहरीक-एक खास के मुताबिक उन्होंने स्वर्ण मंदिर, काशी विश्वनाथ व ज्वालामुखी मंदिर मेंदान किया था। महाराजा रंजीत सिंह दुनिया का सबसे महंगा व विवादास्पद कोहिनूर हीरा भी देना चाहते थे मगर उनके खजांची बेलीराम ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया था। बड़े होने पर वे मंदिर पर रहने लगे थे मगर न तो धूम्रपान करते और न ही बीफ, गोमांस खाते थे। लोगों का दावा है कि वे सनातनी थे। जाने माने लेखक पत्रकार दिवंगत खुशवंत सिंह के मुताबिक रंजीत सिंह के बेटे दलीप सिंह ने एक फ्रांसीसी पत्रकार को साक्षात्कार में कहा था कि मैं अपने पिता की तमाम पत्नियों में से एक का बेटा हूं। दलीप सिंह की मां जींद कौर उनकी अंतिम कानूनन पत्नी थी। बताते हैं कि 1802 में रंजीत सिंह ने एक नाचने वाली नर्तकी मोरन सरकार से शादी कर ली। इससे सिख खासतौर पर निहंग सिख काफी नाराज हुए। उनके प्रमुख अकाली फूल सिंह थे जोकि अकाल तख्त के जत्थेदार भी थे। उन्होंने महाराजा रंजीत सिंह को अकाल तख्त पर हाजिर होने के आदेश दिया व वहां आने पर उनको इस गलती के लिए कोड़े लगाने की सजा दी। पास स्थित एक इमली के पेड़ से उन्हें बांध कर कोड़े लगाए गए। उसके बाद फूलासिंह ने वहां मौजूद आम सिखों से पूछा कि क्या वे लोग रंजीत सिंह को माफ करते हैं। इस पर संगत ने सतश्री अकाल का जयकारा लगाया व फूलासिंह ने उन्हें छोड़ने के निर्देश दे दिए। महाराजा रंजीत सिंह क बेटो खड़कसिंह व दलीप सिंह को अपने असली बेटे मानते थे। वे 1830 में काफी बीमार रहने लगे। कहा तो यहां तक जाता है कि एल्कोहल के सेवन के कारण उनका लिवर खराब हो गया। वे सोते हुए ही 27 जून 1839 को मर गए। जब उनका अंतिम संस्कार किया गया तो उनकी चार हिंदू बीवियां और सात हिंदू रखैले उनके साथ सती हो गई। उनके न रहने पर खालसा राज के हालात बिगड़ने लगे। वहां के तमाम ठिकाने आजाद होकर आपस में ही लड़ने लगे। अहमद शाह अब्दाली की फौजे उन पर आक्रमण करने लगी। उनके दो बड़े बेटे खड़क सिंह व शेर सिंह इस आपसी लड़ाई का शिकार हो गए। दूसरी और तत्कालीन ब्रिटिश सरकार भी उनकी सल्तनत पर आंखे गड़ाए हुए थी। अंततः उसने मात्र 5 साल की उम्र में सिख साम्राज्य के अंतिम शासक के रूप में सत्ता संभाली, उसके बच्चा होने के कारण उसकी मां जींद कौर ही सत्ता चलाती थी। उन पर एक ब्रिटिश रेजीडेंट नजर रखता था। बाद में उसे अपने लिया खतरा मानते हुए ब्रिटिश सरकार ने दलीप सिंह व उसकी मां को लंदन बुलवा लिया। हालांकि क्वीन विक्टोरिया दलीप सिंह को बहुत पसंद करती थी। वहां उसे पर्थशायर के काले राजकुमार के रूप में जाना जाने लगा। उसने सत्ता में रहते हुए फ्रांस के जार से ही अंग्रेंजो के खिलाफ मदद मांगी थी जिन्हें अपना कट्टर दुश्मन मानती थी व हिंदू उसके कट्टर समर्थक थे। अब अंग्रेजो के लिए उसका भारत से हटाना बहुत जरूरी हो गया। बाद में उसे अपनी मां से भी अलग कर दिया गया। वे फिर ब्रिटेन आ गए। भजनलाल नामक एक ईसाई उनकी देखभाल करता था। उसके प्रभाव में आकर दलीपसिंह ने फतेहगढ़ में गर्वनर जनरल लार्ड डलहौजी की मौजूदगी में इसाई धर्म स्वीकार कर लिया। बाद में उनकी मां ने उन्हें सिख इतिहास व धर्म के बारे में बताया तो उन्हें पुनः अपना धर्म परिवर्तन कर लिया। उन्हें नार्थ कॉक व साउथ कॉक में एल्वडंन इलाके में अंग्रेजो ने एक महल रहने के लिए दिया। उन पर फिजूल खर्ची करने के आरोप लगे व अंत में वह कंगाल हो गए। उन्होंने दो बार शादिंया की बांबा नामक पत्नी से उन्हें बच्चे हुए। बांबा के पिता जर्मन व मां इथियोपिया की थी। बाद में 29 मार्च 1849 को फ्रांस के एक होटल में दलीप सिंह की मौत हो गई। उन्हें ब्रिटेन में दफना दिया गया। अब उनका दिवंगत बेटे प्रिंस विक्टर दलीप सिंह का एक महल बेच रहा है। विक्टर का जन्म लंदन में 1866में हुआ था। व उसका परिवार वहां 1916 तक रहा व उसने अपनी पत्नी की मौत के बाद वहां रहना छोड़ दिया। अब इसकी नीलामी हो रही है।
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