बेबाक विचार

श्रीलंका एक सबक है

ByNI Editorial,
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श्रीलंका एक सबक है
चूंकि राजपक्षे परिवार ने रोजमर्रा की समस्याओं को हल करने को कभी अपनी राजनीति का हिस्सा नहीं बनाया था- या कहें इसका कौशल हासिल करने की कोशिश नहीं की थी- तो मुश्किल के मारे लोगों के आक्रोश को कैसे संभाला जाए, यह उसकी समझ से बाहर बना रहा। श्रीलंका में गंभीर आर्थिक संकट के कारण महीनों से चल रहे जन असंतोष के बाद आखिरकार प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे ने इस्तीफा दे दिया है। महिंदा राजपक्षे इस सदी में श्रीलंका के स्ट्रॉन्ग लीडर बन कर उभरे थे। लेकिन अब उनके पांवों के नीचे की जमीन इतनी भुरभुरी हो चुकी थी कि तमाम हाथ-पांव मारने के बावजूद वे कुर्सी नहीं बचा पाए।  2009 में उनके राष्ट्रपति तमिल अलगाववादी नेता प्रभाकरण को सुरक्षा बलों ने मार गिराया था। इससे श्रीलंका के बंटवारे की आशंका खत्म हुई। तब श्रीलंका की बहुसंख्यक सिंहली और बौद्ध आबादी ने उन्हें सिर पर बैठा लिया। इससे उन्हें इतनी सियासी ताकत मिली कि उन्होंने अपने परिवार को देश का राज परिवार बना दिया। इस समय उनके छोटे भाई गोटाबया राजपक्षे राष्ट्रपति हैं। उनके कई और परिजन मौजूदा सरकार में मंत्री रहे हैं या अभी भी हैँ। लेकिन सत्ता पर इतनी मजबूत पकड़ अब काम नहीं आ रही है। इसकी वजह राजपक्षे परिवार का यह मान लेना है कि बहुसंख्यक आबादी के पूर्वाग्रहों को अगर बढ़ाते हुए उनके रक्षक की छवि बनाए रखी जाए, तो तमाम दुनियावी मसलों पर बिना ध्यान दिए भी राज किया जा सकता है। ताजा घटनाओं का सबक यह है कि ऐसी सोच की एक सीमा है। चूंकि राजपक्षे परिवार ने लोगों की रोजमर्रा की समस्याओं को हल करने को कभी अपनी राजनीति का हिस्सा नहीं बनाया था- या कहें इसका कौशल हासिल करने की कोशिश नहीं की थी- तो मुश्किल के मारे लोगों के आक्रोश को कैसे संभाला जाए, यह उसकी समझ से बाहर हो गया। सोमवार को उन्होंने अपने समर्थकों की हिंसा और पुलिस कार्रवाई की बदौलत महीनों से जारी विरोध को तोड़ने की कोशिश की। लेकिन उन्हें अहसास नहीं था कि अब तक बात बहुत बिगड़ चुकी है। अब उनके जितने समर्थक हैं, उससे ज्यादा विरोधी हो गए हैँ। तो बात हाथ से निकल गई। महिंदा को आखिरकार इस्तीफा देना पड़ा है। लेकिन लगता नहीं कि बात यहीं ठहरेगी। आंच गोटबया राजपक्षे तक पहुंच रही है। उससे वे कब तक बचे रहते हैं, यह देखने की बात होगी।
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