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जमीन पर सुलगते जज्बात

श्रीलंका में सरकार और सभ्रांत वर्ग की अर्थव्यवस्था की जो समझ है, उसमें आम श्रमिक तबकों के हितों के लिए कोई जगह नहीं है। आईएमएफ की शर्तों ने इस अंतर्विरोध को बेहद चौड़ा कर दिया है।

श्रीलंका की सरकार दुनिया को यह संदेश देने की कोशिश में रही है कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से कर्ज की किस्तें मिलने के बाद देश में अब सब कुछ ठीकठाक है। देश की अर्थव्यवस्था अब सुधार की तरफ है। लेकिन अगर वहां जमीनी स्तर से आने वाली खबरों पर गौर करें, तो ऐसा नहीं लगता। बल्कि आईएमएफ की शर्तों ने श्रीलंका में असंतोष को लगातार भड़का रखा है। यह दीगर बात है कि मीडिया और सभ्रांत वर्ग में इन शर्तों पर सख्ती से अमल को लेकर आम-सहमति है, इसलिए श्रमिक वर्ग की भावनाओं की वहां उपेक्षा की जा रही है। हकीकतत यह है कि देश के कई तबके आंदोलन की राह पर हैँ। शिक्षकों का आंदोलन जार है। शिक्षक टैक्स बढ़ोतरी का विरोध कर रहे हैं। विक्रमसिंघे सरकार ने आईएमएफ की शर्तों को पूरा करने के लिए ही तमाम कर्मचारियों पर टैक्स का बोझ बढ़ाया था। शिक्षकों की हड़ताल के कारण छात्रों की परीक्षा कॉपियों को जांचने का काम रुका हुआ है। इससे यूनिवर्सिटी की प्रवेश परीक्षा में भाग लेने के इच्छुक छात्रों की चिंताएं बढ़ रही हैं।

बीते हफ्ते राष्ट्रपति विक्रमसिंघे ने शिक्षकों को हफ्ते भर का अल्टीमेटम दिया। उन्होंने धमकी दी कि वे शिक्षा को आवश्यक सेवा घोषित कर देंगे। विक्रमसिंघे ने कहा कि यह कदम उठाने के बाद आंदोनकारी शिक्षकों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की राह खुल जाएगी। विक्रमसिंघे ने धमकी दी- ‘अगर शिक्षक नहीं माने, तो मैं उन पर मुकदमा शुरू कर दूंगा। उनकी संपत्ति भी जब्त की जा सकती है। मैं अटार्नी जनरल से कहूंगा कि वे आपातकालीन नियमों को लागू करने की तैयारी करें।’ राष्ट्रपति कई अन्य क्षेत्रों के कर्मचारियों के मामले में ऐसे कदम उठा चुके हैँ। उनमें स्वास्थ्य और रेलवे भी शामिल हैं। इन सेवाओं को सरकार ने आवश्यक सेवा घोषित कर दिया था। यही कदम शिक्षकों के खिलाफ भी उठाया जा सकता है। लेकिन ये घटनाएं क्या बताती हैं? स्पष्टतः यह इस बात की तस्दीक करती हैं कि सरकार और सभ्रांत वर्ग की अर्थव्यवस्था की जो समझ है, उसमें आम श्रमिक तबकों के हितों के लिए कोई जगह नहीं है। आईएमएफ की शर्तों ने इस अंतर्विरोध को बेहद बढ़ा दिया है।

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