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संसदीय विमर्श के विषय और भाषा!

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पता नहीं किसने कहा है लेकिन सही कहा है कि कम समझदारी के लोग व्यक्तियों के बारे में बात करते हैं, साधारण या औसत बुद्धि के लोग घटनाओं की चर्चा करते हैं और जीनियस या विद्वान लोग आइडियाज के बारे में चर्चा करते हैं। कायदे से संसद में आइडियाज के बारे में चर्चा होनी चाहिए। नए सिद्धांतों और विचारों पर विमर्श होना चाहिए। देश व समाज की दशा-दिशा बदलने वाली योजनाओं पर चर्चा होनी चाहिए। संसद के दोनों सदनों में बैठे जो भारत भाग्य विधाता हैं उनको 140 करोड़ लोगों की किस्मत सुधारने वाले कानूनों की बारीकियों पर चर्चा करना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य से सारे समय भारत की संसद में व्यक्तियों और घटनाओं की चर्चा होती है।

विपक्ष और सत्तापक्ष दोनों कानून की बारीकियों पर विचार करने और बेहतर कानून बनाने की बजाय व्यक्तियों और घटनाओं पर अपनी भड़ास निकाल रहे होते हैं। विषय की फूहड़ता के साथ साथ विमर्श की भाषा भी फूहड़ हो गई है। न विषय में गंभीरता है और न भाषा में। दोनों सतही हैं। किसका संबंध किसके साथ है, किसको कौन सा सरनेम लगाना चाहिए, कौन किस पर भारी है, कौन सदन की कार्यवाही के वीडियो रिकॉर्ड कर रहा है यह संसद के बजट सत्र में चर्चा में रहे कुछ मुख्य मुद्दे हैं!

यह देश की संसद का दुर्भाग्य है कि कानून मिनटों में बन रहे हैं और व्यक्तियों पर कई कई दिन चर्चा हो रही है। देश के 140 करोड़ लोगों का भविष्य तय करने वाले विधेयक बिना चर्चा के पास हो रहे हैं और अतीत की बातों पर सारे दिन बहस हो रही है या अतीत की बातों पर संसद को नहीं चलने दिया जा रहा है। संसद के अंदर जरूरी मुद्दों पर सार्थक बहस करने की बजाय विपक्ष के सांसद ज्यादा समय संसद परिसर में महात्मा गांधी की प्रतिमा के सामने पाए जाते हैं। इसमें अकेले उनका दोष नहीं है क्योंकि सदन के अंदर रह कर भी उनके पास करने के लिए बहुत कुछ नहीं होता है। लोकसभा में सरकार के पास प्रचंड बहुमत है और मुख्य विपक्षी पार्टी बेहद कमजोर है।

संसद के अंदर चुनावी मुद्दे तय किए जा रहे हैं, चुनावी भाषण हो रहे हैं और नेता की जय जयकार हो रही है। यह हाल की परिघटना है। पहले भी एक से एक लोकप्रिय नेता प्रधानमंत्री रहे लेकिन सदन के अंदर उनके नाम के नारे नहीं लगते थे। अब भाजपा सांसद चुनावी सभा की तरह संसद के दोनों सदनों में ‘मोदी-मोदी’ नारे लगाते रहते हैं। भाजपा सांसदों की देखा देखी कांग्रेस के सांसदों ने अपने नेता का स्वागत नारे लगा कर किया। हालांकि यह घटना सदन से बाहर संसद के गेट पर हुई। भाजपा के किसी नेता के लिए प्रधानमंत्री भगवान राम हैं और राष्ट्रपति माता शबरी हैं तो किसी भाजपा नेता के लिए प्रधानमंत्री की बातें गंगा की तरह पवित्र हैं।

व्यक्तियों का जब इस तरह से गौरवगान होगा, उनका ईश्वरीकरण होगा तो नीतियों व कानूनों पर क्या ही चर्चा हो पाएगी!

अब बहुत समय हो गया, अब इसे रोका जाना चाहिए। 75 साल पुराने लोकतांत्रिक गणतंत्र को यह शोभा नहीं देता है कि संसद में सारे समय राजनीतिक एजेंडे पर चर्चा हो। आरोप प्रत्यारोप हों और चुनावी मुद्दे तय किए जाएं। पार्टियां एक दूसरे को नीचा दिख कर अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने का प्रयास करें। सोचें, क्या संसद का प्लेटफॉर्म सिर्फ इस चर्चा के लिए है कि किसने किस कारोबारी को कितनी मदद पहुंचाई और उसे कितना बड़ा बनाया? विपक्ष की ओर से कहा गया कि मौजूदा सरकार ने अमुक कारोबारी को नियमों से छूट देकर लाखों करोड़ रुपए का फायदा पहुंचाया तो सत्तापक्ष की ओर से जवाबी हमले में कहा गया कि फलां-फलां कारोबारी को आपकी सरकारों ने फायदा पहुंचाया था। क्या किसी सभ्य लोकतांत्रिक देश की ऐसी संसद की कल्पना की जा सकती है, जहां सत्तापक्ष कहे कि जो पार्टी विपक्ष में है उसने सरकार में रहते हुए कारोबारियों को फायदा पहुंचाया और ऐसा कहने के बाद कार्रवाई न करे?

दुनिया के किसी सभ्य देश में अगर ऐसी बात सामने आए कि किसी सरकार ने किसी कारोबारी को मदद पहुंचाई है, उसके लिए नीतियों में बदलाव किया है और प्रतिस्पर्धा के सामान्य नियमों को ताक पर रख किसी को ठेके आदि दिए हैं तो सरकारों को जाना होता है, प्रधानमंत्रियों और राष्ट्रपतियों के इस्तीफे होते हैं, गिरफ्तारियां होती हैं। लेकिन भारत में सरकार के सर्वोच्च पद पर बैठे व्यक्ति भी आरोप लगाते हैं और कार्रवाई नहीं करते। आरोपों का इस्तेमाल राजनीतिक लाभ के लिए किया जाता है न कि जनता के पैसे की लूट रोकने के लिए। आखिर किसी ने किसी को भी मदद पहुंचाई तो वह जनता के पैसे से ही तो पहुंचाई? सोचें, संसद और सरकार को जनता के हितों की रक्षा की जिम्मेदारी सौंपी गई है। देश की संपत्ति का रक्षक बनाया गया है और वे इस या उस कारोबारी पर उस संपत्ति को लुटा रहे हैं, आपस में एक दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं और कार्रवाई कुछ नहीं कर रहे हैं।

संसद के बजट सत्र का पहला चरण पूरा हो गया है। करीब दो हफ्ते के इस सत्र में एक भी मसले पर सार्थक चर्चा नहीं हुई है। हां, आरोप प्रत्यारोप जम कर हुए और दुर्भाग्य से काफी सारे लोग उसी को सार्थक चर्चा मानते हैं। सोशल मीडिया में इस आधार पर ढोल पीटा जाता है कि फलां ने तो आज सरकार की बोलती बंद कर दी तो दूसरी ओर से कहा जाएगा कि अमुक जी ने तो विपक्ष की पोल खोल कर रख दी। अब यह बोलती बंद करना और पोल खोलना कौन सी श्रेष्ठ संसदीय राजनीति का हिस्सा है? पार्टियां जो काम संसद के बाहर करती हैं वही काम संसद के अंदर भी करती हैं। जरा सा भी फर्क नहीं होता है। चाहे विपक्ष हो या सत्तापक्ष, नेताओं के भाषण उठा कर देख लीजिए। संसद के बाहर, राजनीतिक कार्यक्रमों में या चुनावी सभाओं में जो बातें कही जाती हैं वही बात संसद के अंदर भी कही जाती है और उसी भाषा में कही जाती है।

सोचें, भारत में संसद की बैठकें कितनी कम होती हैं और उसके बाहर पार्टियों के पास प्रचार और राजनीति करने का कितना समय होता है। क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि पार्टियां राजनीतिक मसले विधायिका से बाहर रखें और संसद व विधानसभाओं में नीतिगत बातों पर चर्चा करें, विधेयकों की बारीकियों पर चर्चा करें? क्या एक जीवंत लोकतंत्र की पहचान यह नहीं होती है कि संसद और विधानसभाओं में विपक्ष सरकार की नीतियों पर सवाल उठाए तो सरकार खुल दिल से से उसे सुने और जो अच्छी बात हो उसे स्वीकार करे? क्या जीवंत लोकतंत्र पार्टी व्हीप के बंधन से मुक्त नहीं होना चाहिए ताकि सत्ता पक्ष का भी कोई सांसद या विधायक अपनी सरकार की नीतियों पर सवाल उठाए और उस पर अनुशासन की कार्रवाई नहीं हो? आजादी के अमृत वर्ष में अगर लोकतंत्र इस दिशा में नहीं बढ़ता है तो फिर इसका क्या मतलब रह जाएगा?

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By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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