अभी हाल में खबर आई कि नोएडा में लॉकडाउन होने के बाद 195 लोगों ने आत्म हत्या कर ली। जाहिर है, स्थितियां जितनी निराशाजनक होंगी, ऐसी दुखद घटनाएं बढ़ेंगी। हाल में आई एनसीआरबी की रिपोर्ट में कहा गया कि 2019 में हर चार मिनट में किसी न किसी व्यक्ति ने आत्महत्या की। इनमें से 35 प्रतिशत ऐसे थे, जो अपना कारोबार करते थे। इनमें 17 प्रतिशत लोगों ने मानसिक बीमारी झेलने की बजाय मौत का रास्ता चुनना बेहतर समझा। आंकड़ों से यह बात सामने आती है कि सेकेंडरी स्तर तक पढ़ाई करने वाले लोग ज्यादा आत्महत्या कर रहे हैं। मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि पारिवारिक समस्याएं, नौकरी और पढ़ाई या किसी सामाजिक वजह से पैदा होने वाला मानसिक अवसाद, टूटते परिवार जैसी वजहें आत्महत्या के मामलों को बढ़ा रही हैं। पहले संयुक्त परिवारों में मानसिक अवसाद की स्थिति में बीमार को परिवार और समाज का समर्थन मिलता था। नतीजतन वह इससे जल्दी उबर जाता था। लेकिन अब संयुक्त परिवार टूट रहे हैं।
खासकर महानगरों में सामाजिक ताना-बाना तेजी से बिखर रहा है। वहां बरसों से साथ रहने वाले पड़ोसी को भी लोग नहीं पहचानते। इस वजह से मानसिक अवसाद या पारिवारिक समस्या होने की स्थिति में लोग किसी के पास समाधान या सहायता के लिए नहीं जा पाते। कुछ समय तक मन ही मन घुटने के बाद ऐसे ज्यादातर लोग संघर्ष से घबड़ा कर मुक्ति के सहज तरीके के तौर पर आत्महत्या को चुन लेते हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि आत्महत्या के मामलों के अध्ययन के बाद तमाम सरकारों और गैर-सामाजिक संगठनों को मिल कर एक ठोस पहल करनी होगी। इसके लिए जागरुकता अभियान चलाने के अलावा हेल्पलाइन नंबरों के प्रचार-प्रसार पर ध्यान देना होगा। साथ ही समाज में लोगों को अपने आस-पास ऐसे लोगों पर निगाह रखनी होगी, जिनमें आत्महत्या या अवसाद का कोई संकेत मिलता है। वैसे मनोवैज्ञानिकों की राय है कि यह काम उतना आसान नहीं है। लेकिन पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों को मजबूत कर ऐसे ज्यादातर मामले रोके जा सकते हैं। इसके लिए सबको मिल कर आगे बढ़ना होगा। ठोस उपाय नहीं हुए, आंकड़े बढ़ते ही जाएंगे। आत्म-हत्या के मामलों पर अंकुश लगाने की ठोस रणनीति के बिना तमाम बातें महज खानापूरी बन कर रह जाएंगी। इस हाल में विकास के तमाम दावे खोखले साबित हो जाते हैं। यह कैसा विकास है, जिसमें लोगों के जीने की इच्छा ही खत्म होने लगे?
बढ़ रही हैं आत्म-हत्याएं
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