सूडान में अफरातफरी, उथलपुथल और खून-खराबाहो रहा है। सन् 1956 में आजादी के बाद उसकी ऐसी ही नियति है। वह पहले तानाशाही और फिर सैनिक शासन के अधीन रहा। तनाव, टकराव और गृहयुद्धों में फंसा रहा।अब एक बार फिर हिंसक संर्घष हो रहा है। देश की सैनिक सरकार और एक सुरक्षा बल के टकराव में सत्ता का संघर्ष है। इस संघर्ष में अब तक 56 लोग मारे जा चुके हैं, जिनमें से तीन संयुक्त राष्ट्र संघ के लिए काम कर रहे राहतकर्मी भी है।
सूडान के सैनिक शासन के दो सर्वाधिक शक्तिशाली किरदारों – जनरल अब्दल फतह अल-बुरहान, जो सन् 2019 के तख्ता पलट के बाद से सूडान के शासक हैं, और जंगी आक़ा मोहम्मद हमडन डगालो, जिन्हें हेमेदती के नाम से भी जाना जाता है – के बीच लम्बे समय से तनाव बना हुआ था।
डगालो अर्धसैनिक बल रैपिड सपोर्ट फोर्सेज (आरएसएफ) के मुखिया हैं। यह बल जंजाविड मिलिशियाओं से उभरा था, जिन पर दार्फूर में बड़े पैमाने पर बलात्कार और नरसंहार करने के आरोप हैं।हकीकत है कि सन् 2021 से ही आरएसएफ और जनरल बुरहान की सरकार की सेना, जिसे सूडानीज आर्म्ड फोर्सेज (एसएएफ) कहा जाता है, के बीच जंग का अंदेशा व्यक्त किया जाता रहा है।
अंततः 15 अप्रैल के दिन सेना और अर्ध-सुरक्षा बल लड़ाई हो ही गई। राजधानी खार्तूम की सड़कों पर टैंकों की गड़गड़ाहट और हवा में लड़ाकू विमानों का शौर। आरएसएफ और एसएएफ दोनों ने बस्तियों के आसपास राकेट दागे जिसके कारण नागरिक अपनी जान हथेली पर रखकर भागने को मजबूर हुए। लड़ाई अब राजधानी खार्तूम से सूडान के अन्य क्षेत्रों में भी फैल रही है।
टकराव का मुद्दा यह है कि सूडान में राजनैतिक बदलाव की दिशा का निर्धारण कौन करे।
खीचतान चार साल पहले 2019 में तब से है जब उमर-अल-बशीर की तानाशाह इस्लामवादी सरकार को उखाड़ फेंका गया। बशीर को कई महीनों तक चले विरोध प्रदर्शनों के बाद पद छोडना पड़ा था। मौके का फायदा जनरल बुरहान और डगालो ने उठा विद्रोह कर दिया। ये दोनों बशीर के कार्यकाल में ही ताकतवर हुए थे। इसके बाद सरकार विरोधी गठबंधन और सैन्य बलों में एक समझौता हुआ। शक्तियों का बंटवारा किया गया। तय किया गया कि एक अंतरिम अवधि के बाद चुनाव होंगे और नागरिक सरकार को सत्ता सौंपी जाएगी।
मगर बशीर ने पहले से ही कई अलग-अलग सैन्य और सुरक्षा बल खड़े किये थे। वे उन्हे आपस में लड़वाते रहते थे ताकि खुद सुरक्षित रहे। ऐसा किसी और देश की राजधानी व सरकार में शायद ही हुआ हो।
सूडान 1956 में आजाद होने के बाद से ही लगातार हथियारबंद जंगी गिरोहों और सेना का मैदान रहा है। सन् 1964 में और उसके बाद दुबारा भी प्रजातंत्र स्थापना की कोशिश हुई। परंतु सेना ने उन्हें कुचल दिया।2021 में जनरल बुरहान, जिन्हें बशीर की सरकार से संबद्ध इस्लामवादी गुटों का समर्थन प्रा था, ने उस अंतरिम सरकार का तख्ता पलट दिया जिसे बशीर की विदाई के बाद कुछ असैन्य नेताओं के नेतृत्व में बनाया गया था। तभी से देश में अशांति और गड़बड़ी का दौर है। जनरल बुरहान धीरे-धीरे लोकप्रियता खोते गए। उनके खिलाफ लगभग हर हफ्ते प्रदर्शन होते थे।
सूडान दुनिया से अलग-थलग पड़ता हुआ था। लोगों की आर्थिक परेशानियां बढ़ती जा रही थीं।तभी अर्धसुरक्षा बल के डगालो को इ आपदा में अवसर दिखाई दिया। आरएसएफ, जिसका मुखिया डगालो है, हमेशा से एक प्रमुख और शक्तिशाली अर्धसैनिक बल रहा है। इसका गठन बशीर ने इसलिए किया था ताकि सेना और गुप्तचर सेवाएं अपनी मनमानी न कर पाएं।इसलिए अजीब बात लगेगी कि सेना उर्फ एसएएफ और अर्धसैनिक बल आरएसएफ दोनों काअलग-अलग नस्लीय आधार भी है। जनरल बुरहान के साथ इस्लामवादी है जिनकी राज्यतंत्र और अर्थव्यवस्था में अच्छी पैठ है। जनरल को पड़ोसी मिश्र का समर्थन भी है।15 अप्रैल को आरएसएफ द्वारा जारी वीडियो में मेरोव एयरबेस पर मिश्र के सैनिक, पायलट दिखलाई दिए हैं।
दूसरी तरफ डगालो, इरिट्रिया के राष्ट्रपति इस्यास अफ्वर्की के नजदीक है। अफ्वर्की का पड़ोसी देशों के मसलों में टांग फंसाने का लंबा इतिहास है। अफ्वर्की सउदी अरब और यूएई को भी अपना सरपरस्त मानते हैं क्योंकि उन्होंने यमन में इन देशों की सहायता के लिए अपनी सेना भेजी थी। इससे ऐसा लगता है कि आरएसएफ को इन दोनों देशों द्वारा हथियार आदि उपलब्ध करवाए जा रहे हैं।
डगालो और बुरहान के बीच सत्ता की लड़ाई के साथ-साथ नागरिक अलग एक समानांतर लड़ाई लड़ रहे हैं। वे चाहते हैं कि सेना कृषि, व्यापार व उद्योगों में अपने मालिकाना हक नागरिक सरकार को सौंपे।जबकि इनसे सेना को भारी आमदनी होती है। सैनिक आराम करते हैं और युद्ध लड़ने का काम स्थानीय मिलिशियाओं को आउटसोर्स कर देते है। इसके अलावा दार्फूर में सन् 2003 के बाद से सेना और उसके समर्थकों के युद्ध अपराधों के मामलों में न्याय की मांग की जा रही है। अंतर्राष्ट्रीय अपराध न्यायालय भी बशीर और अन्य सूडानी आरोपियों पर मुकदमा चलाना चाहता है। सन् 2021 के तख्तापलट के बाद से सैन्य बलों द्वारा मारे गए 125 लोगों और जून 2019 में प्रजातंत्र समर्थक प्रदर्शनकारियों की मौतों के मामलों में न्याय की मांग गंभीर है।
दरअसल भौगोलिक स्थिति के कारण भी सूडान में आंतरिक सत्ता संघर्ष को हवा है। सूडान, लाल सागर के किनारे है और सहेल पट्टी व हार्न ऑफ़ अफ्रीका से घिरा हुआ है। देश की कृषि अत्यंत समृद्ध है जिसके कारण कई क्षेत्रीय शक्तियां वहां अपनी घुसपैठ चाहती हैं। बड़े स्तर के भू-राजनैतिक समीकरण भी काम कर रहे हैं। रूस, अमरीका, सऊदी अरब, यूएई और कई अन्य देश सूडान में अपना प्रभाव बढ़ाना चाहते हैं। सऊदी अरब और यूएई को लगता है कि इस क्षेत्र में इस्लामवादियों के प्रभाव को कम करने का यह अच्छा मौका है। अमेरिका और पश्चिमी देश रूस को बाहर रखना चाहते हैं क्योंकि उन्हें डर है कि रूस लाल सागर में अपना अड्डा बना लेगा। सूडान के सैन्य नेताओं ने इस आशय के संकेत दिए भी हैं।
जो हो, मौजूदा सत्ता संघर्ष ने सूडान में प्रजातंत्र की वापसी की संभावनाओं पर एक बार फिर पानी फेर दिया है। विरोध प्रदर्शनकारियों के एक नेता अहमद इस्मत ने खार्तून में ‘द इकानामिस्ट’ से कहा, “किसी भी युद्ध का अर्थ होता है क्रांति का अंत।” जिन लोगों के हाथों में बंदूक और जेबों में पैसा है उन्हें सत्ता से हटाना वैसे भी मुश्किल होता है। और सूडान में तो ऐसे ही दो गुट आपस में भिड़ गए हैं। जाहिर है सूडानियों की जिंदगी और दुश्वार होने वाली है। इस संर्घष में अनेक मासूमों का खून बहेगा। बुरहान और डगालो दोनों ने कहा है कि वे समझौते के बारे में सोच ही नहीं रहे हैं और अब आर-पार की लड़ाई लड़ेंगे।तभी तय लगता है कि सूडान प्रजातंत्र की बजाए खूनी गृहयुद्ध की ओर बढ़ रहा है। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)