यह सुप्रीम कोर्ट की सदिच्छा है, जो उसने कहा कि नेताओं, सांसदों, विधायकों या मंत्रियों के बेतुके बयानों पर रोक लगाने का काम पार्टियों को खुद करना चाहिए। सरकारी या संवैधानिक पदों पर बैठे प्रभावशाली लोगों के बेतुके और कई बार भड़काऊ बयानों पर रोक लगाने के लिए दायर याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने चार-एक के बहुमत से सुनाए गए फैसले में कहा कि वह विधायकों, सांसदों और मंत्रियों के बयानों पर अतिरिक्त पाबंदी नहीं लगा सकती है। अदालत ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 19 और 21 में जो प्रावधान हैं और जो पाबंदियां हैं उनके अलावा कोई अतिरिक्त पाबंदी नहीं लगाई जा सकती है। इसके बाद अदालत ने अपनी सदिच्छा जाहिर करते हुए कहा कि अगर नेताओं के ऐसे बयानों पर रोक लगानी है तो उसके लिए पार्टियों को खुद पहल करनी चाहिए। यह एक तरह से नेताओं और पार्टियों को स्वनियमन की सलाह देने जैसा है।
चार जजों के बहुमत के फैसले से असहमति जताने वाली एक जज जस्टिस बीवी नागरत्ना ने भी इस बात से सहमति जताई कि अतिरिक्त पाबंदी लगाने की जरूरत नहीं है। हालांकि उन्होंने कहा कि संसद को इस बारे में कानून बनाना चाहिए। साथ ही जस्टिस नागरत्ना ने अपने असहमति वाले फैसले में यह भी कहा कि किसी मंत्री का बयान निजी भी हो सकता है और सरकारी भी। यानी ऐसा भी बयान हो सकता है, जो निजी हैसियत से नहीं दिया गया हो और सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धांत के दायरे में आता हो। ऐसे बयान के लिए पूरी सरकार को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। हालांकि बाकी चार जजों ने कहा कि किसी मंत्री के बयान को पूरी सरकार का बयान नहीं माना जा सकता है और पूरी सरकार को उसके लिए जवाबदेह नहीं ठहराया जा सकता है।
इस फैसले से कई बड़े सवाल खड़े होते हैं। सबसे बड़ा सवाल तो ‘प्रिविलेज और इन्टाइटलमेंट’ का है। मंत्रियों को कई किस्म के विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं और वे कई तरह की सुविधाओं के हकदार होते हैं। जब वे राजनीतिक रैलियों में जाते हैं या चुनाव प्रचार में जाते हैं तब भी तमाम विशेषाधिकारों और सुविधाओं से लैस होते हैं। ऐसे में उनके किसी भी बयान को कैसे किसी दूसरे सामान्य नेता या नागरिक के बयान की तरह माना जा सकता है? यह कैसे तय होगा कि किस समय कही गई बात निजी है और किस समय कही गई बात सरकारी है? प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या मंत्री जब कोई बात कहते हैं तो उसका स्पष्ट कानूनी और प्रशासनिक मतलब होता है। इसे जनता के ऊपर नहीं छोड़ा जा सकता कि वह अपनी समझ से फैसला करे कि कब किसी नेता की कही बात निजी है और कब सरकारी है या कौन सी भड़काऊ बात नेता ने निजी हैसियत से कही है और कौन सी भड़काऊ बात पार्टी लाइन पर कही गई है, जिसके लिए पूरी पार्टी को जिम्मेदार ठहराया जाए!
तभी जस्टिस नागरत्ना की कही यह बात बहुत अहम है कि उच्च पदों पर बैठे, महत्वपूर्ण और प्रभावशाली लोगों की बातों का ज्यादा महत्व होता है। ऐसे प्रभावशाली व्यक्तियों का आम लोगों पर असर होता है और इसलिए लोग उनकी बातों को ध्यान से सुनते और उस पर अमल करते हैं। इसलिए निश्चित रूप से प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों की जिम्मेदारी दूसरे लोगों से ज्यादा बनती है। दुर्भाग्य की बात है कि भारत में भाषण के मामले में किसी राह चलते व्यक्ति और सर्वोच्च पद पर बैठे नेता के बीच कोई खास फर्क नहीं होता है। वोट लेने के लिए पार्षद, विधायक या सांसद पद का कोई सामान्य उम्मीदवार जिस तरह की गैर जिम्मेदार और भड़काऊ बात कर सकता है उसी तरह की बात सर्वोच्च पदों पर बैठे लोग भी करते हैं। इसलिए निश्चित रूप से उनको जवाबदेह ठहराने की व्यवस्था बनानी होगी। उनके मामले में यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि प्रभावशाली लोग अपने किसी भी बयान के लिए अपने विशेषाधिकारों की वजह से कार्रवाई से बच जाते हैं। कोई साधारण इंसान जिस बयान के लिए महीनों जेल में सड़ता है वैसे ही बयान के बावजूद मंत्री लोग अपने पदों पर बने रहते हैं। यह भेदभाव खत्म होना चाहिए।
सवाल है कि क्या संसद इसके लिए कानून बना सकती है? संसद को हर मसले पर कानून बनाने का अधिकार है। वाक और अभिव्यक्ति को बुनियादी सिद्धांत माना गया है और इसमें संशोधन का फैसला अगर कोई सरकार करती है तो उसकी अपनी चुनौतियां हैं। यह दोधारी तलवार की तरह है। अगर बोलने पर अतिरिक्त पाबंदी लगाई जाती है तो उसके दुरुपयोग की संभावना भी है। संसद यदि महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोगों के लिए कानून में पाबंदी के अतिरिक्त प्रावधान करती है तो उसका भी सही इस्तेमाल होगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता है। फिर भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि इस बारे में कानून बनाने का फैसला संसद को करना है तो उस पर विचार किया जाना चाहिए क्योंकि सरकारी और उच्च संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों के गैर जिममेदाराना और भड़काऊ बयानों से समाज की संरचना पर बुरा असर हो रहा है।
जहां तक पार्टियों के अपनी तरफ से रोक लगाने की बात है तो यह सुप्रीम कोर्ट की सदिच्छा मात्र है क्योंकि कोई भी पार्टी अपने नेता को भड़काऊ या बेतुके बयान देने से नहीं रोकती है। हां, यह जरूर होता है कि दिखावे के लिए पार्टियां अपने को बयान से अलग कर लेती हैं, कह देती हैं कि अमुक नेता का बयान उनकी निजी राय है, पार्टी उससे सहमत नहीं है या कई बार जब पानी सिर के ऊपर से गुजर जाता है या बाहरी व भीतरी दबाव बढ़ जाते हैं तो छोटी मोटी कार्रवाई कर दी जाती है, जैसे नूपुर शर्मा के मामले में भाजपा ने किया। असल में पार्टियों के नेता, सांसद, विधायक या मंत्री जो भड़काऊ या बेतुके बयान देते हैं अक्सर वह पार्टी की लाइन पर होता है और राजनीतिक या चुनावी लाभ पहुंचाने वाला होता है। पार्टियों की मौन सहमति ऐसे बयानों पर होती है। इसलिए अपने को किसी विवादित बयान से अलग करने के बावजूद पार्टी उस बयान से होने वाले संभावित फायदे से खुद को अलग नहीं करती है। वह उसका लाभ लेती है। कई बार पार्टियों को इसका नुकसान भी हो जाता है तो लेकिन वह ‘कोलैटरल डैमेज’ होता है, जिसकी आशंका हर भड़काऊ या बेतुके बयान में होती है। सो, पार्टियों से उम्मीद बेमानी है। अगर संसद कुछ करे या किसी समय सुप्रीम कोर्ट या चुनाव आयोग कोई दिशा निर्देश बनाए तभी कुछ सुधार हो सकता है।