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आतंकवादियों की रिहाई के खतरे!

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आतंकवादियों की रिहाई के खतरे!
पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या में शामिल सात लोगों को जेल से रिहा कर दिया गया है। देश की सर्वोच्च अदालत की ओर से यह तर्क दिया गया है कि दोषी 31 साल तक जेल में रह चुके हैं और जेल में उनका आचरण अच्छा रहा है। ‘अच्छे आचरण’ के आधार पर राज्य सरकार ने इन सबको रिहा करने का फैसला किया था लेकिन चूंकि राज्यपाल ने राज्य सरकार की सिफारिश लंबित रखी है इसलिए अदालत ने अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल करके सभी सात हत्यारों को रिहा कर दिया। इससे पहले गुजरात सरकार ने गर्भवती बिलकिस बानो के साथ बलात्कार करने और उसकी तीन साल की बच्ची सहित परिवार के कई लोगों की हत्या कर देने वालों को केंद्र से हरी झंडी मिलने के बाद ‘अच्छे आचरण’ के आधार पर जेल से रिहा कर दिया था। सोचें, इस देश में जहां आलू चोरी करने के आरोपी महीनों तक जेल में रह जाते है वहां ‘अच्छे आचरण’ के आधार पर बलात्कारी व हत्यारे और आतंकवादी रिहा किए जा रहे हैं! यह ‘न्यू इंडिया’ है! बहरहाल, राजीव गांधी के हत्या करने वाले आतंकवादियों और बिलकिस बानो के साथ बलात्कार करने वाले बलात्कारियों व हत्यारों की रिहाई में कई हैरान करने वाली बातें हैं और केंद्र सरकार व उच्च न्यायपालिका दोनों सवालों के घेरे में हैं। दोनों फैसले केंद्र की सहमति से हुए हैं लेकिन एक में सक्रिय सहमति रही और दूसरी में परोक्ष सहमति। अगर केंद्र सरकार चाहती तो राजीव गांधी के हत्यारों का मामला अदालत में नहीं जाता। लेकिन चूंकि मामला आतंकवाद का था और भावनात्मक भी था इसलिए केंद्र सरकार ने चुप्पी साध ली। तमिल अस्मिता के नाम पर राज्य सरकार ने दोषियों की रिहाई की पहल की और उनके रिहा करने की सिफारिश राज्यपाल को भेजी। परंतु राज्यपाल ने उस सिफारिश पर कोई फैसला नहीं किया। तभी मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा और सुप्रीम कोर्ट को तत्काल अपनी जिम्मेदारी का अहसास हुआ है और उसने सभी दोषियों को रिहा कर दिया। सोचें, अभी कितने राज्यों में राज्यपाल विपक्षी पार्टियों की सरकारों की सिफारिशें और विधानसभा से पारित विधेयक रोक कर बैठे हैं पर किसी मामले में उच्च अदालतों को अपनी जिम्मेदारी का अहसास नहीं होता है। दूसरी ओर बिलकिस बानो के दोषियों का मामला चूंकि आतंकवाद से नहीं जुड़ा था, बल्कि उसमें दोषी हिंदू थे और पीड़िता व मारे गए लोग मुस्लिम थे इसलिए वह अलग तरह का भावनात्मक और ध्रुवीकरण कराने वाला मुद्दा था। सो, दोषियों की सजा के 14 साल पूरे होते ही राज्य की भाजपा सरकार उनकी रिहाई में लग गई। यह मामला पहले गुजरात हाई कोर्ट में पहुंचा। बिलकिस के 11 दोषियों में से एक ने हाई कोर्ट में अपील करके रिमिशन पॉलिसी के तहत रिहा किए जाने की अपील की। गुजरात हाई कोर्ट ने कहा कि मामला चूंकि महाराष्ट्र में सुना गया था इसलिए महाराष्ट्र हाई कोर्ट इस बारे में फैसला करेगा। इस फैसले के बाद दोषी सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए और सुप्रीम कोर्ट ने अपनी जवाबदेही निभाते हुए कहा कि अपराध गुजरात में हुआ था इसलिए गुजरात सरकार ही फैसला करेगी। ध्यान रहे उस समय महाराष्ट्र में गैर भाजपा सरकार थी। सो, मामला गुजरात की भाजपा सरकार के पहुंचा और उसने केंद्रीय गृह मंत्रालय की मंजूरी लेकर सभी 11 दोषियों को रिहा कर दिया। इस तरह केंद्र सरकार को जहां चुप रह कर अदालत से फैसला कराना था वहां चुप रह कर कराया और जहां सक्रिय होकर अदालत की मंजूरी लेने और खुद फैसला करना था वहां खुद फैसला किया। दोनों फैसले एक जैसे हैं और समूची न्याय व्यवस्था और समाज के लिए बेहद खतरनाक नजीर बनाने वाले हैं। यह खतरनाक इसलिए है कि दोनों मामलों में राजनीतिक लाभ के लिए या अस्मिता की राजनीति के नाम पर न्याय प्रक्रिया का दुरुपयोग किया गया है, सामान्य मानवीय मूल्यों की अनदेखी की गई है और देश की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ किया गया है। ध्यान रहे राजीव गांधी की हत्या कोई मामूली घटना नहीं थी। वह एक पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या की आतंकवादी कार्रवाई थी, जिसमें राजीव गांधी और आत्मघाती हमलावर सहित 16 लोग मारे गए थे। भारत हमेशा आतंकवाद के प्रति जीरो टालरेंस की बात करता है। ऐसे में किसी आतंकवादी को कैसे रिहा किया जा सकता है? सोनिया गांधी का अपने पति के हत्यारों के प्रति रहमदिली दिखाना और फांसी की सजा का उम्र कैद में बदला जाना एक बात है लेकिन उम्र कैद की सजा काट रहे लोगों को ‘अच्छे आचरण’ के आधार पर रिहा करना आतंकवाद से समझौता करने जैसा है। यह सुरक्षा बलों का मनोबल तोड़ने और आतंकवादियों का हौसला बढ़ाने वाला साबित हो सकता है। दूसरा खतरा यह है कि तमिलनाडु की दोनों क्षेत्रीय पार्टियों की सरकारों ने इसे तमिल अस्मिता का मामला बना दिया। इस आधार पर पंजाब में मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या करने वाले आतंकवादी बलवंत सिंह राजोआना की रिहाई की मांग हो रही है। राजोआना सहित कई और आतंकवादियों को ‘बंदी सिंह’ बता कर रिहा करने की मांग उठ रही है। इसे सिख अस्मिता का मामला बताया जा रहा है। जम्मू कश्मीर में अरसे से मुस्लिम आतंकवादियों के प्रति इस तरह का लगाव देखने को मिलता रहा है। राजीव गांधी के हत्यारों की रिहाई ने एक तरह से आतंकवादियों की जाति व धर्म के आधार पर पहचान और उस आधार पर उनका विरोध या तरफदारी की भावना को वैधानिकता मिली है, जो कि समाज की संरचना और देश की सुरक्षा के लिए बहुत खतरनाक है। बिलकिस के बलात्कारियों और उसके परिजनों के हत्यारों की रिहाई भी अस्मिता की राजनीति का एक सबूत है। अदालत की आंखों के सामने और केंद्र की मंजूरी लेकर गुजरात सरकार ने जिन 11 दोषियों को ‘अच्छे आचरण’ के आधार पर रिहा किया, उनमें से दो लोग जब पैरोल पर बाहर निकले थे तो उनके ऊपर महिलाओं से बदसलूकी के आरोप लगे थे और मुकदमा भी दर्ज हुआ था। उनको ‘अच्छे आचरण’ के आधार पर रिहा करने से पहले क्या इसका ध्यान नहीं रखा जाना चाहिए था? हालांकि बड़ा सवाल तो यही है कि उन्होंने बिल्कुल सोच समझ कर, ठंडे दिमाग से जिस तरह की बर्बर घटना को अंजाम दिया था उसके बाद उनका अच्छा आचरण क्या हो सकता था? इतना ही नहीं इसी साल जून में केंद्र सरकार ने सभी राज्यों को एक दिशानिर्देश भेजा था, जिसमें कहा गया था कि बलात्कार और हत्या के मामले में सजा काट रहे किसी दोषी को समय से पहले नहीं रिहा किया जा सकता। इसके बावजूद अगस्त में बलात्कारियों और हत्यारों को रिहा कर दिया गया। उनकी रिहाई के जो भी आधिकारिक कारण दिए गए, असली कारण और है और वह असली कारण धर्म व राजनीति या चुनाव से जुड़ा है। यह फैसला अपराधियों का मनोबल बढ़ाने वाला, देश को धर्म व जाति के नाम पर बांटने वाला और नैतिक ताकत को कम करने वाला साबित हो सकता है।
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