क्या दुनिया में अब अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) का कोई महत्व बचा है? जवाब आईएमएफ वाशिंगटन डीसी में चल रही अपनी बैठक से मिलेगा। आज विश्व महामारी, लॉकडाउनों, मुद्रास्फीति और वैश्विक कर्जों में उछाल, बैंकिंग क्षेत्र में अस्थिरता व भूराजनैतिक तनावों के बीच युक्रेन युद्ध और ग्लोबल वार्मिंग से जुड़ी चुनौतियों की उथलपुथल में हैं। ऐसे में आईएमएफ जैसी संस्थाओं की जिम्मेदारी स्वभाविक तौर पर बहुत अधिक है। परन्तु संकट यह भी ये वैश्विक मौद्रिक संस्था भी पहचान के संकट से गुज़र रही हैं।
आईएमएफ और विश्व बैंक दूसरे विश्वयुद्ध के बाद बने थे। लडाई में तबाह और बर्बाद हो चुके पश्चिमी देशों ने 1944 में ब्रेटनवुड्स में बैठक करके एक ऐसी संस्था की स्थापना का प्रस्ताव किया जो मुद्रा विनिमय दरों के निर्धारण की स्थाई प्रणाली निर्मित कर सके। बर्बाद हो चुकी यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं के पुनर्निर्माण के लिए धन उपलब्ध करवा सके। शीतयुद्ध के दौर में आईएमएफ ने केवल धनी देशों को कर्ज दिया और 1970 के दशक की शुरूआत तक उसने कभी केवल इस आधार पर किसी देश की सहायता नहीं की कि उसे धन की सख्त जरूरत है।कुल मिलाकर आईएमएफअपनी स्थापना से लेकर अब तक के लगभग 80 साल में 150 देशों को कोई700 अरब डालर की मदद बतौर कर्ज दे चुका है।
कुछ वर्ष पहले वैश्विक आर्थिक संकट के चलते संस्था को और अधिक साधन-संपन्न बनाया गया।कर्ज देने की उसकी कुल क्षमता, जो 2010 में 400 अरब डालर थी, अब 1,000 अरब डालर है।किंतु कर्ज चाहे कितना ही सस्ता या सुलभ क्यों न हो, लगभग दिवालिया हो चुके देशों के लिए वह खास उपयोगी नहीं होता। कम से एक दर्जन ऐसे देश हैं जिनके कर्ज की रकम, भुगतान करने की उनकी क्षमता से अधिक हो गई है। आईएमएफ एक बार फिर धर्मसंकट में है।
चीन पिछले 20 वर्षों में दुनिया के सबसे बड़ा साहूकार के रूप में उभरा है। सन् 2017 से चीन विश्व का सबसे बड़ा ऋणदाता बना हुआ है। उसके द्वारा दिए गया कर्ज, विश्व बैंक, आईएमएफ और 22 सदस्यीय पेरिस क्लब द्वारा दिए गए कुल कर्जों से भी ज्यादा है। चीन ने सन् 2000 से 2017 के बीच विभिन्न देशों में कुल मिलाकर 800 अरब डालर की परियोजनाओं के लिए वित्त उपलब्ध करवाया, जिसका अधिकांश हिस्सा कर्ज के रूप में था। दुनिया के कम से कम 65 देशों के कुल कर्ज में चीन का 10 प्रतिशत से अधिक हिस्सा है।
चीन से कर्ज लेना अन्य देशों और विकास संस्थाओं की तुलना में कहीं महंगा है। कई मामलों में कर्ज लेने वाले देशों को इस आशय के समझौते पर हस्ताक्षर करने होते हैं कि वे अपने अन्य कर्जदाताओं को यह नहीं बताएंगे कि चीनी संस्थाओं की उनकी कितनी देनदारी है। अगर कोई देश कर्ज चुकाने में असफल रहता है तो चीन केवल भुगतान के लिए ग्रेस पीरिएड के रूप में उन्हें राहत देता है। और जिसे वित्त की दुनिया में हेयरकट (कर्ज राशि में कमी) कहा जाता है उसका प्रस्ताव कभी नहीं करता।
आईएमएफ द्वारा कर्ज भुगतान की शर्तों में परिवर्तन में चीनी कर्जदाता रोड़े अटका रहे हैं। अमेरिका की वित्त मंत्री जेनैट येलेन और अन्य अधिकारियों का मानना है कि चीन की शर्तें कर्ज लेने वाले देशों का तेल निकाल रही हैं और इस कारण अफ्रीका और दुनिया के अन्य हिस्सों में गरीबी बढ़ने का खतरा है।पश्चिमी वित्तीय संस्थाओं और चीन के बीच बढ़ता टकराव, वैश्विक आर्थिक व्यवस्था में एक नई विभाजक रेखा के उभरने का संकेत भी हैं। चीन, दरअसल, विकास परियोजनाओं के वित्तपोषण के लिए एक समानांतर प्रणाली विकसित कर रहा है जो पश्चिम द्वारा गठित आईएमएफ और विश्व बैंक के लिए चुनौती है।
तभी अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की वाशिंगटन में अभी चल रही बैठकों में कर्ज की शर्तों को ऐसे देशों के मामले में बदलने पर विचार-विमर्श चल रहा है जो तंगहाल हैं। इन वार्ताओं के बाद अलग-अलग देशों से विशिष्ट समझौते होंगे जो कि बहुत समय से रूके हुए हैं। उदाहरण के लिए जांबिया, जिसे चीन ने भारी कर्ज उपलब्ध करवाया है, ने दो साल पहले अपने सार्वजनिक कर्ज की किस्तें चुकाना बंद कर दीं हैं। जांबिया इस तरह के मामलों को सुलझाने के लिए टेस्ट केस के रूप में काम करेगा क्योंकि अमेरिका का फेडरल रिजर्व और अन्य प्रमुख केन्द्रीय बैंक मुद्रास्फीति को कम करने के लिए ब्याज दरें बढ़ा रहे हैं। इससे डालर और अन्य प्रमुख मुद्राओं में दिए गए कर्ज को चुकाना और महंगा हो जाएगा। इसी तरह श्रीलंका, घाना, इथोपिया और पाकिस्तान जिन्हें भी चीन ने भारी धनराशि कर्ज के रूप में उपलब्ध करवाई है, भी या तो दिवालिया चूककर्ता हैं या बनने की राह पर हैं।
आर्थिक मुश्किलों से गुजर रहे 21 देशों में से कम से कम सात कर्ज चुकाना बंद करने के एक साल बाद भी किसी समझौते का इंतजार कर रहे हैं। इथोपिया को अपने कर्ज की शर्तों की रीस्ट्रक्चरिंग के लिए दो साल से अधिक इंतजार करना पड़ा। इस बीच उसे आईएमएफ से एक डालर भी नहीं मिला। सूरीनाम और जांबिया जैसे देशों को आईएमएफ पैकेज मिल गए हैं परंतु वे धनराशि के एक बड़े हिस्से का उपयोग नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि चीन रीस्ट्रक्चरिंग में बाधा डाल रहा है।
तो आगे का रास्ता क्या हो? क्या आईएमएफ अपनी ताकत और हैसियत को बनाए रख सकेगा? एक समय अमेरिका के वर्चस्व वाली यह संस्था, चीन और अमरीका के बीच प्रतिद्वंद्विता से उपजी चुनौतियों से निपट पाएगी? जाहिर है कि इसके लिए वैश्विक सहयोग की आवश्यकता है परंतु हम सब जानते हैं कि चीन अड़ा रहेगा। और तभी लगता है कि आईएमएफ जल्दी ही अपनी पुरानी चमक खो देगा और एक कमज़ोर संस्था बन कर रह जाएगा। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)