बेबाक विचार

सिंगापुर के पीएम ने गलत तो नहीं कहा!

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सिंगापुर के पीएम ने गलत तो नहीं कहा!
सिंगापुर के प्रधानमंत्री ली सिन लूंग ने गलत तो नहीं कहा कि भारतीय संसद के निचले सदन यानी लोकसभा में आधे सदस्य आपराधिक मामलों के आरोपी हैं। फिर इसमें इतना बुरा लगने वाली क्या बात थी, जो विदेश मंत्रालय ने सिंगापुर के राजनयिक को बुला कर विरोध प्रकट किया? निचले सदन के माननीय सांसदों ने जो हलफनामा दिया है उसके मुताबकि 233 यानी 43 फीसदी के खिलाफ कोई न कोई आपराधिक मामला चल रहा है। इनमें से 159 यानी कुल सदस्यों की संख्या के एक तिहाई के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले हैं। यह एक तथ्य है, जो माननीय सांसदों ने खुद ही बताया है। अब अगर इस तथ्य का किसी दूसरे देश का नेता जिक्र करता है तो उससे क्यों नाराज होना? दूसरे देशों के बारे में इस तरह के तथ्य प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद बताते रहते हैं। कोरोना को लेकर ही उन्होंने कितनी बार कहा कि दुनिया के विकसित देशों में कैसी तबाही मची और भारत ने कैसे अपने को बचा लिया। लेकिन किसी विकसित देश ने तो भारत से इस पर आपत्ति नहीं जताई कि प्रधानमंत्री क्यों उनके बारे में इस तरह की टिप्पणी कर रहे हैं? फिर भारत क्यों इतना संवेदनशील हो गया है कि दुनिया के किसी देश का कोई नेता, कोई सरकारी संस्थान या निजी व्यक्ति भी कोई टिप्पणी करे तो उस पर विदेश मंत्रालय आधिकारिक रूप से जवाब देता है? छोटे-छोटे देश इस तरह के मामलों में संवेदनशील होते हैं लेकिन महाशक्तियां तो बड़ी मोटी चमड़ी की होती हैं। आज अमेरिका और चीन को लेकर कोई कुछ भी कहता है, लेकिन वे इस पर ध्यान नहीं देते हैं। हाथी चले बाजार... वाली कहावत है। कोरोना को लेकर ही चीन के बारे में दुनिया के देशों ने क्या क्या नहीं कहा, लेकिन कहां चीन सफाई देता या नाराजगी जताता घूम रहा है? यह सही है कि भारत कोई महाशक्ति नहीं है, फिर भी दुनिया की एक बड़ी ताकत तो है! क्या उसके विदेश मंत्रालय का यहीं काम रह गया है कि वह दुनिया के छोटे से छोटे देश में भी हुई टिप्पणी का जवाब देता रहे? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पिछली सरकार में सुषमा स्वराज विदेश मंत्री थीं, जिनकी पूरी दुनिया में सिर्फ इस बात के लिए चर्चा हुई कि वे मुश्किल में फंसे लोगों का वीजा फटाफट लगवा देती हैं। इस बार ‘सरकारी बाबू’ रहे एस जयशंकर विदेश मंत्री हैं और उनकी कमान में विदेश मंत्रालय का सिर्फ यह काम रह गया है कि दुनिया के देशों के राजनयिकों को बुला कर किसी न किसी बात पर विरोध जताया जाए। तभी पिछले दो साल में ही इतने देशों से भारत ने नाराजगी जताई है, जितनी पिछले 10 साल में नहीं जताई। पिछले दिनों पाकिस्तान और इस्लामिक देशों के समूह ओआईसी ने हिजाब विवाद और कथित धर्म संसद में मुस्लिमों के नरसंहार की अपील के मसले पर बयान दिया तो भारत ने इसका विरोध किया और इन देशों को भारत को आंतरिक मामले में नहीं बोलने की चेतावनी दी। इससे कुछ ही दिन पहले हुंड्ई पाकिस्तान की ओर से कश्मीर सॉलिडरिटी दिवस पर टिप्पणी की गई थी। इससे भारत इतना नाराज हुआ कि दक्षिण कोरिया के विदेश मंत्री ने  फोन करके माफी मांगी। हुंड्ई के अलावा केएफसी, जोमैटो जैसी कंपनियों ने भी माफी मांगी। उससे पहले पिछले साल मार्च में ब्रिटेन की संसद में भारत के किसान आंदोलन का मुद्दा कुछ सांसदों ने उठाया तो भारत ने ब्रिटेन के उच्चायुक्त को बुला कर विरोध दर्ज कराया। उससे पहले फरवरी 2021 में दो प्राइवेट लोगों- ग्रेटा थनबर्ग और रिहाना ने किसानों के समर्थन में बयान दिया तो विदेश मंत्रालय ने आधिकारिक रूप से बयान जारी कर इनका विरोध किया। उससे पहले दिसंबर 2020 में कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने किसान आंदोलन के समर्थन में बयान दिया था तब भी भारत ने विरोध जताया।  oath mean for leaders Read also आतंक का जवाब आतंक नहीं  सोचें, भारत ऐसा क्यों हो गया है? क्या भारत की अतिरिक्त संवेदनशीलता इस बात का संकेत नहीं है कि भारत सरकार अतिशय आशंका में जी रही है और उसको लग रहा है कि सारी दुनिया उसकी दुश्मन है? क्या ऐसे समय में, जब दुनिया एक ग्लोबल विलेज बन गई है, यह उम्मीद की जा सकती है कि कोई देश या कोई नागरिक किसी दूसरे देश में चल रहे घटनाक्रम पर टिप्पणी न करे? क्या आज सारी दुनिया रूस और यूक्रेन को लेकर टिप्पणी नहीं कर रही है? कनाडा में वैक्सीनेशन अनिवार्य किए जाने के खिलाफ चल रहे आंदोलन को लेकर भारत में चिंता नहीं जताई गई है? क्या अमेरिका के कैपिटल हिल पर हुए हमले को लेकर खुद प्रधानमंत्री मोदी ने टिप्पणी नहीं की थी? कोरोना संक्रमण और मौतों को लेकर क्या भारत के नेता अमेरिका और दूसरे यूरोपीय देशों का मजाक नहीं उड़ाते रहे हैं? क्या भारत के लोग चीन और पाकिस्तान के बारे में कुछ भी अनाप-शनाप नहीं बोलते और लिखते रहते हैं? फिर अगर सिंगापुर के प्रधानमंत्री ने भारतीय लोकतंत्र का एक सच बता दिया तो इतना नाराज होने की क्या जरूरत थी? क्या यह माना जाए कि भारत को सच से दिक्कत नहीं है, बल्कि उस सच को सार्वजनिक किए जाने से दिक्कत है? आज अगर लोकसभा में 233 लोग ऐसे हैं, जिनके ऊपर आपराधिक मुकदमें हैं तो शर्म की असली बात यह है। भारत सरकार को इससे शर्मिंदा होना चाहिए। याद करें प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर चुनाव लड़ रहे नरेंद्र मोदी ने 2014 में क्या कहा था। उन्होंने कहा था कि उनके पास राजनीति को साफ-सुथरा करने का एक फॉर्मूला है। मोदी ने कहा था कि वे संसद और विधानसभाओं की सफाई पहले करेंगे। लेकिन उसके बाद आपराधिक छवि के सांसदों की संख्या दोगुनी हो गई। खुद भाजपा पहले से ज्यादा आपराधिक छवि वालों को टिकट देने लगी। अगर सरकार में शर्म होती तो वह इसे ठीक करती। दुनिया के सामने बताती कि आपराधिक मामलों की जानकारी देना राजनीति की सफाई के लिए एक ठोस कदम है, इससे मतदाता जागरूक होते हैं और लोकतंत्र मजबूत होता है। सरकार बताती कि वह इन आंकड़ों के आधार पर राजनीति को साफ-सुथरा बनाने की कोशिश कर रही है। लेकिन भारत ने सिंगापुर के राजनियक को बुला कर विरोध जताया। कहीं ऐसा तो नहीं है कि भारत का विरोध आपराधिक छवि वाले सांसदों का आंकड़ा बताने की बजाय इस बात पर हो कि सिंगापुर के प्रधानमंत्री ने ‘नेहरू का भारत’ क्यों कहा? उन्होंने क्यों नेहरू के भारत को लोकतंत्र मजबूत करने वाला और मौजूदा भारत को खराब बताया? देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू के ऊपर लगातार हमले करने वाली सरकार को यह बात बुरी लगी हो सकती है। तभी सिंगापुर के प्रधानमंत्री के बयान के अगले दिन सिख नेताओं के एक प्रतिनिधिमंडल से मिलते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिना किसी संदर्भ के कहा कि भारत का जन्म कोई 1947 में थोड़े हुआ था। क्या यह कहने का मतलब था कि भारत में आजादी के समय अगर कुछ अच्छा था तो वह पहले से था, नेहरू के कारण नहीं था?
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