बिहार में चार दशक से नेतागिरी कर रहे बड़े नेता हैरान-परेशान हैं। देश भर से जो पत्रकार बिहार की राजनीति को देखने, समझने पहुंचते हैं उनको भी समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर यह क्या हो रहा है। बिहार पहुंचते ही सबसे पहले किसी भी व्यक्ति को देख कर उसकी जाति पूछने और उस आधार पर उसके वोट का अंदाजा लगाने वाले सारे राजनीतिक विश्लेषक बेचैन हैं कि आखिर यह अंदाजा कैसे लगे कि किस जाति का वोट एकमुश्त किसकी ओर जा रहा है और किसका सामाजिक समीकरण बेहतर ढंग से काम कर रहा है! सवाल है कि आखिर ऐसा क्या हो गया कि अचानक बिहार में इस चुनाव में लगने लगा कि जाति के बंधन टूट गए हैं और कुछ दूसरे मुद्दों पर लोग मतदान कर रहे हैं?
असल में यह मंडल राजनीति के तीन दशक के प्रयोग का हासिल है, जो एक से ज्यादा पिछड़ी जातियों के मन में सत्ता में सीधी भागीदारी की लालसा पैदा हुई है। तो दूसरी ओर अगड़ी जातियों ने अपनी संख्यात्मक स्थिति को समझते हुए सत्ता हासिल करने का प्रयास करने की बजाय सत्ता की चाबी अपने हाथ में रखने की नीति अपनाई है। इस नीति के तहत सभी अगड़ी जातियों का प्रयास यह हो रहा है कि हर पार्टी से ज्यादा से ज्यादा संख्या में टिकट हासिल की जाए और ज्यादा से ज्यादा उम्मीदवार जिताए जाएं। सत्ता में भागीदारी के लिए इस बदली हुई रणनीति और बदले हुए माहौल की वजह से ऐसा लग रहा है कि जाति का बंधन ढीला हुआ है। अभी यह कहना जल्दबाजी होगा कि जाति का बंधन पूरी तरह से टूट गया है।
जातियां अब भी पहले की तरह ही व्यवहार कर रही हैं पर इस बार फर्क यह है कि सीधे सत्ता के शीर्ष पर देखने की बजाय वे नीचे देख रही हैं। मुख्यमंत्री कौन बनेगा, यह देखने के साथ साथ विधायक कौन बनेगा इस पर ज्यादा ध्यान है। इस बात का आकलन ज्यादा हो रहा है कि पिछले 30 साल में किस एक जाति या जातियों को ज्यादा तवज्जो मिली। इस बात का हिसाब किताब किया जा रहा है कि किन जातियों ने अपने को किसी खास पार्टी का बंधुआ बनाए रखा और उसका उसे क्या फायदा या नुकसान हुआ। हालांकि इसके अपवाद भी हैं पर यह अपवाद सिर्फ उन दो जातियों का है, जिनके नेता मुख्यमंत्री हैं या मुख्यमंत्री पद के सबसे प्रबल दावेदार हैं। बुनियादी रूप से यादव मतदाता अब भी लालू प्रसाद और राजद के खूंटे से बंधे हैं तो कुर्मी मतदाता नीतीश कुमार के खूंटे से बंधे हैं। पर इसके अलावा किसी एक जाति के ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए इस बार यह भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है कि वह अमुक पार्टी को ही वोट कर रहा है।
बिहार के अगड़े मतदाता दशकों से राष्ट्रीय जनता दल के खिलाफ वोट करते रहे हैं। पता नहीं लालू प्रसाद ने कब और किन हालात में ‘भूराबाल’ यानी भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला यानी कायस्थ को खत्म करने की बात कही थी पर पिछले चुनाव तक उनकी पार्टी इसका खामियाजा भुगतती रही है। भाजपा और जनता दल यू दोनों इसका फायदा उठाते रहे। जिस तरह आजादी के बाद से ही कांग्रेस पार्टी पहले भारतीय जनसंघ और अब भाजपा का भय दिखा कर अल्पसंख्यकों का वोट लेती रही उसी तरह बिहार में भाजपा और जनता दल यू लालू प्रसाद का भय दिखा कर अगड़ों का वोट लेते रहे। इस बार भी इस बात की बहुत कोशिश हुई है। प्रधानमंत्री तक ने चुनावी सभा में कहा कि ‘लकड़सुंघवा’ आ जाएगा। जंगलराज की याद लगभग हर नेता दिला रहा है।
लेकिन इस बार यह दांव काम नहीं कर रहा है। बिहार के अगड़े मतदाता भयमुक्त हो गए हैं। उनको अपनी इस ऐतिहासिक गलती का अहसास हो गया है कि उन्होंने कैसे राजनीति के चक्रव्यूह में फंस कर नब्बे के दशक में मंडल आयोग की रिपोर्ट का विरोध किया, जिससे वे मंडल की राजनीतिक ताकतों से दूर होते चले गए और उसी अनुपात में सत्ता से भी दूर हो गए। तीन दशक के बाद जब वे वस्तुनिष्ठ तरीके से आकलन कर रहे हैं तो सिर्फ लालू प्रसाद मंडल के मसीहा नहीं दिख रहे हैं, बल्कि नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी उनसे ज्यादा बड़े मंडल मसीहा दिख रहे हैं। तभी अगड़े मतदाता खुल कर यह बात कह रहे हैं कि नेतृत्व जब किसी न किसी मंडल के नेता के हाथ में रहनी है तो फिर लालू प्रसाद से क्या डरना! लालू प्रसाद का नेतृत्व अगर तेजस्वी यादव को हस्तांतरित हो रहा है तो भाजपा का नेतृत्व भी सुशील मोदी के हाथ से निकलेगा तो नित्यानंद राय के हाथ में जाएगा या नंद किशोर यादव नेता बनेंगे या प्रेम कुमार नेता रहेंगे! भाजपा ने कौन सा नेतृत्व अगड़ी जातियों के हाथ में दिया है! जदयू का नेतृत्व भी नीतीश कुमार के हाथ से निकलेगा तो आरसीपी सिंह के हाथ में जाएगा!
लोगों की सोच में हो रहे इस बदलाव को पिछले विधानसभा चुनाव के बाद राजद और कांग्रेस ने पढ़ लिया था पर अफसोस की बात है कि भाजपा व जदयू ने इसे नहीं पढ़ा। तभी 2015 के बाद राजद को दो मौके मिले और उसने पहली बार मनोज झा को और दूसरी बार अमरेंद्र धारी सिंह को राज्यसभा में भेजा। कांग्रेस को एक मौका मिला और उसने अखिलेश प्रसाद सिंह को राज्यसभा में भेजा। हालांकि इसके बावजूद राजद की राजनीति यादव वोट बैंक के ईर्द-गिर्द ही घूमती रही पर तेजस्वी यादव ने दूसरी जातियों के लिए भी जगह बनाई। उनकी इस पहल को बिहार में हाथों हाथ लिया गया है। तभी महागठबंधन की पार्टियों- राजद, कांग्रेस व लेफ्ट के अगड़े उम्मीदवारों को अगड़ी जातियों का वोट मिल रहा है। मतदाताओं के व्यवहार में यह बदलाव उन सीटों पर भी देखने को मिल रहा है, जहां भाजपा और जदयू के भी अगड़े उम्मीदवार हैं।
ऐसा नहीं है कि सिर्फ अगड़े मतदाताओं का व्यवहार बदला है। दूसरी पिछड़ी जातियों खासतौर से मजबूत और सत्ता में भागीदारी की चाहना रखने वाली पार्टियों में भी यह बदलाव साफ दिख रहा है। लगातार कई चुनावों से कोईरी मतदाताओं को एकजुट करने में लगे उपेंद्र कुशवाहा को इस बार कुछ कामयाबी मिलती दिख रही है। ध्यान रहे यादव और कुर्मी के बाद कोईरी तीसरी जाति है, जिसके नेता अपने को सबसे ज्यादा गंभीरता से मुख्यमंत्री पद का दावेदार मानते हैं। तभी एक पार्टी का मजबूत कोईरी नेता दूसरी पार्टी के कोईरी उम्मीदवार के खिलाफ प्रचार में नहीं जा रहा है। कोईरी एकजुटता की जमीनी लहर है और प्रयास ज्यादा से ज्यादा अपना विधायक जिताने का है। जीतन राम मांझी के 11 महीने के कार्यकाल ने दलित मतदाताओं के मन में अपना मुख्यमंत्री बनाने की चाहत पैदा की है। सो, यह मानना चाहिए कि इस बार नहीं तो अगली बार दलित वोटों का वैसा ही ध्रुवीकरण देखने को मिलेगा, जैसा यादव, कुर्मी या कोईरी का देखने को मिल रहा है।
कुल मिला कर बिहार का चुनाव जाति पर ही हो रहा है पर फर्क इतना है कि जातियां अब किसी एक पार्टी की बंधुआ नहीं रह गई हैं। जिन सीटों पर राजद का यादव उम्मीदवार नहीं है और भाजपा या जदयू का यादव उम्मीदवार है, वहां यादव उसे खुल कर वोट दे रहे हैं। वृहद् या स्थूल की बजाय जातिवाद सूक्ष्म हो गया है। अपने ज्यादा विधायक जिताने हैं, इससे सत्ता में ज्यादा हिस्सेदारी मिलेगी और आगे के लिए दावेदारी मजबूत होगी, इस सोच में कई बड़े मतदाता समूह पार्टियों के बंधन से मुक्त हुए हैं। इस लिहाज से कह सकते हैं कि इस बार का बिहार चुनाव मतदाताओं की मुक्ति का चुनाव है।