वैश्विक बाजार पर मंडराती मंदी के कारण निर्यात घटे हैं और निर्यात की चीजों बनाने के लिए लिए जरूरी आयात घटा है, तो यह चिंता की बात है। इसका मतलब यह है कि देश में कारोबारी गतिविधियां धीमी हो रही हैं।
इस वर्ष जनवरी में भारत का निर्यात गिरा और आयात उससे भी ज्यादा गिरा। नतीजा यह हुआ कि व्यापार घाटा उसके पहले के महीने की तुलना में कम हो गया। व्यापार घाटा कम होना अच्छी बात होती है, लेकिन अगर ऐसा अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर में गिरावट के कारण हो, तो उसे स्वस्थ पहलू नहीं माना जाता। आयात अगर देश के अंदर उत्पादन बढ़ने के कारण घटता, तो समझा जाता कि निर्यात घटने के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था सकारात्मक दिशा में है। लेकिन चूंकि वैश्विक बाजार पर मंडराती मंदी के कारण निर्यात घटे हैं और निर्यात की चीजों बनाने के लिए लिए जरूरी आयात घटा है, तो यह चिंता की बात है। इसका मतलब यह है कि देश में कारोबारी गतिविधियां धीमी हो रही हैं। कारोबारी गतिविधियां धीमी होने का सीधा असर रोजगार की स्थिति पर पड़ता है। ताजा आंकड़ों के मुताबिक सोने का आयात घटा है, और साथ ही भारत से होने वाले जेवरात के निर्यात में भी गिरावट आई है। इसका साफ मतलब है कि जेवरात उद्योग की मुश्किलें बढ़ी हैं। यही स्थिति अन्य क्षेत्रों में भी हो सकती है। जिस समय मांग, उपभोग, रोजगार और आमदनी की हालत पहले ही कमजोर हो, उस समय ये तमाम सूचनाएं चिंता बढ़ाने वाली हैं।
पिछले महीने के खुदरा महंगाई के आंकड़ों से भी इस समस्या के और गंभीर होने के संकेत मिले हैं। लेकिन अफसोस की बात यह है कि देश की सरकार और मीडिया जमीनी अर्थव्यवस्था की इस असल सूरत पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय आर्थिक वृद्धि दर के अयथार्थ नैरेटिव और शेयर मार्केट की चमक के जरिए खुशफहमी का माहौल बनाए रखने में व्यस्त हैँ। उन्होंने पूरी ताकत खुशहाली और खुशफहमी का फर्क मिटाने अथवा उससे ध्यान हटाने में लगा रखी है। बहरहाल, यह बात सबको ध्यान में रखनी चाहिए कि ऐसी खुशफहमियां हमेशा कायम नहीं रह सकतीं। अगर आम इनसान की जिंदगी लगातार मुहाल होती जाएगी तो देर-सबेर खुशफहमियां टूटेंगी। फिलहाल, यह कठोर हकीकत सामने है कि देश की बहुसंख्यक आबादी की रोजमर्रा की जिंदगी रोज ही अधिक मुहाल होती जा रही है। आयात-निर्यात आंकड़ों ने इस बात एक बार फिर से पुष्टि की है।