बेबाक विचार

अमेरिका पर सोचे या बिहार पर?

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अमेरिका पर सोचे या बिहार पर?
वक्त ने बुद्धी की कुल्फी जमा दी है। दुनिया का हर विवेकशील, समझदार, अक्लमंद, बुद्धीमान यह सोचते हुए मानसिक रोडब्लॉक, फुलस्टॉप पर होगा कि और सोचने को क्या! वक्त के मौजूदा दौर में जो है, जो हो रहा है वह विवेक, बुद्धी से परे की बात है। कल सुबह बिहार में मतगणना शुरू होनी थी तभी खबर सुनी कि डोनाल्ड ट्रंप ने रक्षा मंत्री को बरखास्त किया। सीआईए और एफबीआई प्रमुख पर भी तलवार! दिमाग खटका कि कहीं ट्रंप सेना का दुरूपयोग कर व्हाईट हाऊस पर तानाशाह की तरह कब्जा तो नहीं करेंगे? ऐसा हुआ तो बुझी लोकतंत्र की वैश्विक मशाल। मानवता का तब क्या होगा? दिल ने बुद्धी-विवेक को समझाया अमेरिका में ऐसा नहीं हो सकता। लेकिन अब निर्वाचित राष्ट्रपति जो बाईडन भी हतप्रभ है तो अमेरिका में, उसके मीडिया में सचमुच डोनाल्ड ट्रंप के इरादे को ले कर कई आंशकाएं है। वे न जो बाईडेन को जीता हुआ मान रहे है और न सत्ता हस्तांतरण के संवैधानिक-कानूनी कायदों की प्रक्रिया शुरू होने के आदेश जारी कर रहे है। उलटे पूरी रिपब्लिकन पार्टी इस अंदाज में डोनाल्ड ट्रंप के पीछे जा खड़ी हुई है कि ट्रंप तुम संर्घष करों हम तुम्हारे साथ है! इन सबके पीछे वह पुतिन, वह शी जिनपिंग है जिन्होने जो बाईडेन को अभी तक जीत की बधाई नहीं दी है। इन पंक्तियों को लिखने से ठिक पहले बुधवार सुबह खबर थी कि डोनाल्ड ट्रंप ने चौबीस घंटों में रक्षा मंत्रालय-इंटलिजैंस के चार आला पदों पर से बेबाक-सत्यवादी लोगों को हटाया और अपने वफादार अफसरों को नियुक्त किया। उफ! बुद्धी क्या सोचे? क्या ट्रंप, उनकी रिपब्लिकन पार्टी, उनको मिले सात करोड वोट अपने विरोधी साढे सात करोड़ मतदाताओं के वोटो से जीते बाईडेन की शपथ नहीं होने देंगे? क्या ट्रंप अगले सत्तर दिनों में, 20 जनवरी के शपथ दिन से पहले अमेरिका में ऐसा विनाश करेंगे, ऐसा गृहयुद्ध, देशभक्त बनाम देशद्रोहियों की ऐसी उन्मादी लड़ाई बनवा देंगे, दुनिया में ऐसी कलह करवा देंगे जिससे अगले चार साल वाशिंगटन की नई सरकार लाचार, बेबस बने और कट्टरपंथी गौरों के सिविल वॉर हुंकारे से ट्रंप सन् 2025 में दुबारा राष्ट्रपति बन जाए! तब अमेरिका का इक्कीसवीं सदी में क्या बनेगा? यह सब सोचना क्या सैनिटी याकि विवेक गंवाना नहीं है? मैं पिछले कई महिनों से विवेक, तर्क, समझदारी, बुद्धी, सत्य याकि सैनिटी, लॉजिक, ट्रूथ पर विचार करते हुए बार-बार रोडब्लॉक, फुलस्टॉप पर जा अटकता हूं। इन शब्दों में देश, राष्ट्र-राज्य, कौम, धर्म के वर्तमान और भविष्य पर सोचते-सोचते बुद्धी इस बिंदु पर बर्फ हो जाती है, जाम हो जाती है, कुल्फी हो जाती है कि राजनीति, समाज और लोग भला इतने विवेकहीन, बुद्धीहीन कैसे हो जाते है? अमेरिका जैसा ज्ञानी-विज्ञानी, 244 साल पुरानी विरासत के खुद्दार लोकतांत्रिक देश में कैसे लोग ट्रंप के ऐसे भक्त बने है जो विनाश की हकीकत में भी उनके दिवाने है! महामारी से चौतरफा जीना दूभर है फिर भी ट्रंप और उनके भक्त मास्क लगाने को तैयार नहीं। ट्रंप की विभाजक राजनीति ने गृह युद्ध के लिए देश को पकाया है बावजूद इसके वे महान है! बतौर राष्ट्र, बतौर कौम, बतौर लोकतंत्र, बतौर महाशक्ति, बतौर आर्थिक प़ॉवर अमेरिका चार सालों में जितना-जैसा खोखला हुआ है उसमें मलहम लगाने के लिए विवेक की परिस्थितिजन्य सामूहिकता से जो बाईडेन का जीतना अमेरिका के लिए वरदान समान है। और इस बात का अमेरिका में जश्न होना चाहिए, अमेरिकीयों को झूमना चाहिए था मगर उलटे ट्रंप, उनके कुनबे, उनकी पार्टी, उनके भक्तों ने मातमी माहौल बना डाला है। रिपब्लिकन पार्टी के नेताओं को ट्रंप से दूरी बना लेनी थी। लेकिन उलटा है। सभी ट्रंप के दिवाने सात करोड मतदाताओं की संख्या में अपना भविष्य देख रहे है। इन्हे उन सात करोड साठ लाख वोटों, उस बहुसंख्या के दो टूक जनादेश की परवाह नहीं है जिससे डेमोक्रेटिक पार्टी के जो बाईडेन जीते है। मतलब अमेरिका के लोकतंत्र में बहुमत वोटों से जीत-हार के बेसिक सिद्धांत का आज वह मोल नहीं है जो होना चाहिए। और जिसके बिना अमेरिका के तानाशाह देश बनने का खतरा है। क्यों? कहां चला गया अमेरिकी विवेक? यह सोचते-सोचते देश, भारत का, बिहार का ख्याल बने तो सामने तुरंत एवरेस्ट जैसा रोडब्लॉक, फुलस्टॉप बनेगा! क्या किसी के भी बस में भारत पर, भारत के भविष्य पर सोचना संभव है? तथ्य है दुनिया महामारी के सत्य से जूझ रही है जबकि भारत झूठ में महामारी के सत्य को खा चुका है। हां, सरकार और 138 करोड़ लोगों का व्यवहार पूरी तरह कोविड़-19 निरपेक्ष है। लगता है योरोप, अमेरिका, दुनिया के देश झूठे डरे हुए है। वहां महामारी का झूठा प्रायोजन है और वे बीमार-बरबाद है तो ऐसा वहां होता होगा, भारत में नहीं। मानों भारत पृथ्वी से दूर, अलग हो! मतलब महामारी का वैश्विक सत्य भारत में असत्य है। तभी भारत का अगले दो-तीन साल क्या होगा, यह बुद्धी सोचने लगती है तो उस पर फुलस्टॉप इस कुतर्क से बनेगा कि आप झूठे है, आपकी बुद्धी झूठी है! इस फुलस्टॉप से ही यह सत्य फिर क्यों न पुख्ता हो कि भारत में जीना ही झूठ में है। छोटा झूठ, बडा झूठ, तेजस्वी का झूठ या नीतिश का झूठ, औवेसी का झूठ या मोदी का झूठ सबका बीज मंत्र तो यही है कि सत्य न देखों, न सुनों, न समझों, न सोचो। गांधी के आंख, कान, नाक बंद किए लंगूर पूरी तरह अपने मनोविश्व में जीते हुए।  जो दिखता है वह सही नहीं और जो अनुभव वह भी सही नहीं। न वायरस सत्य। न देश की आर्थिक बरबादी सत्य। न चीन का भारत में घुसना सत्य। न दुनिया में पिछड़ना सत्य। तब सत्य क्या? सोचे, बिहार में चौबीस घंटे पहले जो जनादेश आया उससे बिहार और भारत के वर्तमान व भविष्य का सत्य क्या निकला? भूल जाए कि मुख्यमंत्री या सरकार किसकी बनी। सरकार लालू की हो, नीतिश की हो, नरेंद्र मोदी की हो या तेजस्वी यादव की सभी से लोगों की नियति झूठ में जीना है। बिहार का सत्य है गरीबी, बेरोजगारी, लोगों की बदहाली और जांत-पांत के साथ भूख की नई-नई छीनाझपट्टी। जनता कितनी ही ऊबले, भभके और संपूर्ण क्रांति का सपना भी पाले लेकिन अंत नतीजा ढ़ाक के तीन पांत। बावजूद इसके जैसे भारत का सवाल है वैसे बिहार भी उस मूल सवाल में है कि कौम, धर्म, समाज, देश का आगे क्या? तभी बिहार चुनाव में मेरी दिलचस्पी का पहला बिंदु था कि तेजस्वी यादव के दस लाख नौकरियों के झूठ ने हिंदूओं में यदि सर्वजातिय हल्ला बनवाया है तो मुसलमान क्या महागठबंधन, कांग्रेस को एकमुश्त वोट देंगे या औवेसी की एमआईएम पार्टी के वोट कटुवा होंगे? मैंने अजीज बर्नी सहित कुछ मुस्लिम जानकारों से बात की तो सबका कहना था तेजस्वी की हवा है और मोदी-भाजपा को हराने के इस मौके में मुसलमान चूकेगा नहीं! लेकिन नतीजा उलटा निकला? जैसे नरेंद्र मोदी की स्ट्राइक रेट हिट थी तो औवेसी की स्ट्राइक रेट भी सुपर हिट। औवेसी की मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के पांच विधायक जीत गए। उसके कुल बीस उम्मीदवार थे जिसमें बारह सीटों पर फोकस था। उनमें पांच जीते और आठ सीटों पर औवेसी के उम्मीदवार नंबर दो पर थे। कांग्रेस के 16 साल व 36 साल से चले आ रहे विधायक भी औवेसी के उम्मीदवारों से हारे। भला क्यों? क्या इसलिए नहीं कि मुसलमान ने गांठ बांध ली है कि अब उसे नरेंद्र मोदी-अमित शाह के मुकाबले का मर्द मुस्लिम नेता चाहिए। औवेसी और उसकी पार्टी ही भाजपा से, कट्टरपंथी हिंदुओं से लड़ने का गुर्दा लिए हुए है छोड़ों सेकुलर राहुल, तेजस्वी, अखिलेश, ममता जैसे हिंदू नेताओ और उनकी पार्टियों को! क्या यह विश्लेषण गलत है? तब औवेसी आगे पश्चिम बंगाल में भी चुनाव लड़ेंगे। वे वहां भी बिहार जैसी सफलता लिए हुए होंगे। तब दस-पंद्रह-बीस सालों में बिहार के सीमांचल से बंगाल-बांग्लादेश से सटे मुस्लिम बहुल इलाके की एक पूरी पट्टी क्या 1947 से पहले जैसे डायरेक्ट एक्सन जैसा खतरा लिए हुए नहीं होगी? हैदराबाद की एक सीट से तेलंगाना और फिर महाराष्ट्र और अब बिहार में औवेसी ने मुसलमानों के बीच जो स्ट्राईक रेट बनाई है व आगे बंगाल और उत्तरप्रदेश में जो रेट बनेगी उससे भारत किस दिशा की और बढ़ेगा? तब क्या यह नहीं लगेगा कि नरेंद्र मोदी-अमित शाह ने पांच सालों में वह काम करवा दिया है जो पाकिस्तान और उसकी आईएसआई 73 सालों में नहीं कर पाई। मुसलमान आबादी में वह कट्टरता बन गई है जिसने उनके बीच सेकुलर राजनीति, हिंदू नेताओं का स्पेस खत्म सा है। बिहार के सीमांचल में राहुल गांधी-कांग्रेस और तेजस्वी का आउट होना आने वाले सालों, आने वाले दशक का वह ट्रेंड होगा जिसमें हर मुस्लिम बहुल इलाके से मुस्लिम विधायक या सांसद जीतेगा और फिर जिसकी जितनी संख्या उसके उतने सत्ता शेयर की मांग! क्या बिहार चुनाव से यह झांकी जाहिर नहीं है? मोदी-भाजपा को हराने के जिंदा अवसर के बावजूद मुसलमान ने यदि औवेसी को जीताने का फैसला किया, महागठबंधन के जीतने की चिंता नहीं की तो इससे भविष्य का क्या सिनेरियों बनता है? क्या यह भाजपा-संघ- नरेंद्र मोदी-अमित शाह के लिए चिंता की बात नहीं होनी चाहिए? यदि कांग्रेस, सपा, राजद और आप सबसे मुसलमान छिंटक कर के केवल इस्लाम की बात करने वाली मुस्लिम पार्टी में ही बंधेगा तो उसकी प्रतिक्रिया, उसके फायदे में भाजपा भले लगातार जीतती जाए लेकिन पानीपत की लड़ाई कितनी निकट होती जाएगी? क्या ऐसे सोचना सैनिटी है? तभी बुद्धी के आगे फुलस्टॉप। क्यों मुझ हिंदू को इतना सोचना चाहिए? खास कर तब जब हमें न इतिहास को याद रखने का वरदान है और न भविष्य विचारने का वरदान!
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