वैसे जरूरत तो देश के सभी सरकारी झोलाछाप सलाहकारों को चुप कराने की है लेकिन ज्यादा जरूरत अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान यानी एम्स, दिल्ली के निदेशक डॉक्टर रणदीप गुलेरिया का मुंह बंद कराने की है। कारण यह है कि देश के आम नागरिक या दूरदराज के लोग नीति आयोग नहीं जानते हैं, आईसीएमआर नहीं जानते हैं या उनके लिए प्रधानमंत्री के प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार का कोई भी खास मतलब नहीं है परंतु उनके लिए एम्स, दिल्ली का निदेशक साक्षात ईश्वर का दूसरा रूप है। उसकी कही बात पत्थर की लकीर है। इसलिए एम्स, दिल्ली के निदेशक का कोरोना जैसी महामारी पर गैरजिम्मेदार बयान देना बहुत घातक हो सकता है। अगर एम्स का निदेशक कहता है कि डेढ़-दो महीने में ही कोरोना वायरस की तीसरी लहर आएगी तो लोग उस पर यकीन करेंगे। उसकी बात लोगों को वास्तविक रूप से चिंता में डाल सकती है। उन्हें अवसाद से भर सकती है। जीवन के प्रति निराशा से भर सकती है। आर्थिक गतिविधियों पर ब्रेक लगा सकती है।
यह हैरान करने वाली बात है कि डॉक्टर गुलेरिया ने कोरोना वायरस की दूसरी लहर खत्म होने से पहले ही लोगों को डराने वाला यह बयान दिया। हकीकत में ऐसा कहने या मानने की कोई वजह नहीं है। ठीक वैसे ही, जैसे नीति आयोग के सदस्य डॉक्टर वीके पॉल ने कोई एक महीना पहले कहा था कि तीसरी लहर में बच्चे ज्यादा संक्रमित होंगे। उन्होंने जिस दिन यह बात कही उसके अगले दिन से पूरी सरकार और सारे सरकारी विशेषज्ञ सफाई दे रहे हैं कि ऐसा नहीं होगा। अब तो कई कथित स्टडी आ गई है, जिसके आधार पर कहा जा रहा है कि तीसरी लहर में बच्चों के ज्यादा संक्रमित होने का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं
है। जब कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है तो क्या प्रधानमंत्री या देश के स्वास्थ्य मंत्री ने डॉ. वीके पॉल से पूछा कि उन्होंने किस आधार पर यह दावा किया था? क्या ऐसा गैर जिम्मेदाराना बयान देने के लिए डॉक्टर पॉल के ऊपर कार्रवाई नहीं होनी चाहिए थी? जिन लोगों को न पहली लहर दिखी थी और न दूसरी लहर आने का अंदाजा लग पाया था वे सब अपनी दिव्य दृष्टि से तीसरी लहर को देख रहे हैं!
बच्चों में ज्यादा संक्रमण होने का बेहूदा दावा करने पर अगर डॉक्टर पॉल पर कार्रवाई हुई होती तो निश्चित रूप से छपास की बीमारी से ग्रसित डॉक्टर गुलेरिया की हिम्मत नहीं होती कि वे ऐसी अतार्किक और तथ्यात्मक रूप से गलत दावा करते कि तीसरी लहर डेढ़ से दो महीने में आ सकती है। उनके इस दावे का कोई आधार नहीं है। अगर कोई भी व्यक्ति कॉमन सेंस का इस्तेमाल भी करे तो कह सकता है कि तीसरी लहर इतनी जल्दी नहीं आने वाली है। तीसरी लहर आने की संभावना से इनकार नहीं है लेकिन कम से कम अभी दो-चार महीने इसकी संभावना कम है। जन स्वास्थ्य के विशेषज्ञों का एक समूह अक्टूबर-नवंबर में तीसरी लहर की संभावना देख रहा है और दूसरा समूह अगले साल जनवरी-फरवरी में तीसरी लहर आने की आशंका जता रहा है।
सो, अगर यह मान लें कि तीसरी लहर आएगी तब भी यह मानने का कोई आधार नहीं कि वह लहर बहुत जल्दी आ रही है या बहुत बड़ी होगी या बच्चों में उससे ज्यादा संक्रमण फैलेगा। तीसरी लहर बहुत जल्दी इसलिए नहीं आएगी क्योंकि पहली और दूसरी लहर ने करोड़ों लोगों को संक्रमित किया है। करोड़ों लोग आधिकारिक रूप से संक्रमित हुए और उससे कई गुना ज्यादा लोग बिना लक्षण वाले थे और संक्रमित होकर बिना इलाज ठीक हुए। कई राज्यों में सीरो सर्वेक्षण में 50 फीसदी से ज्यादा लोगों में एंटीबॉडी मिली है यानी वे संक्रमित होकर ठीक हो चुके हैं। जो लोग आधिकारिक आंकड़ों में संक्रमित हुए या संक्रमित होकर अपने आप ठीक हुए उन सबमें छह महीने या उससे ज्यादा समय तक एंटी बॉडी रहेगी। इसका मतलब है कि देश की बहुत बड़ी आबादी के शरीर में कोरोना से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता यानी एंटीबॉडी पैदा हो गई है। इनमें बड़ी आबादी उन लोगों की है, जो कामकाज के सिलसिले में घरों से बाहर निकलते हैं। यानी देश की बड़ी कामकाजी और गतिशील आबादी को कोरोना का संक्रमण हो चुका है और उनमें निश्चित रूप से छह-आठ महीने तक एंटीबॉडी रहेगी। एक अध्ययन तो यह भी है कि स्वाभाविक रूप से बनी एंटीबॉडी लंबे समय तक रहती है। वैज्ञानिक अध्ययन से यह भी प्रमाणित है कि जिनको एक बार कोरोना संक्रमण हुआ है उनमें से एक से दो फीसदी ही ऐसे हैं, जिनको दोबारा संक्रमण हो रहा है। सो, संक्रमण का शिकार होने या संक्रमण फैलाने वाली बड़ी आबादी पहले ही कोरोना की चपेट में आ चुकी है और जब तक उनके शरीर से एंटीबॉडी खत्म नहीं होती है, तब तक कोरोना के बहुत तेज प्रसार की संभावना बहुत कम है।
अगर निकट भविष्य में तीसरी लहर नहीं आती है और इस दौरान ज्यादा से ज्यादा लोगों को वैक्सीन लगा दी जाती है तो अपने आप तीसरी लहर की संभावना कम होगी। यह जरूर है कि किसी भी वैक्सीन से सौ फीसदी सुरक्षा नहीं हासिल है। फिर भी वैक्सीन लगवाने वाले 90 फीसदी से ज्यादा लोग सुरक्षित पाए गए हैं। खुद एम्स की एक स्टडी है, जिसमें बताया गया है कि वैक्सीन लेने वालों को अगर कोरोना का संक्रमण होता भी है तो उसमें से छह से आठ फीसदी लोगों को ही अस्पताल में भरती होने की नौबत आती है। अभी तक देश में करीब 28 करोड़ लोगों को वैक्सीन की कम से कम एक डोज लग चुकी है। वैक्सीनेशन की जो रफ्तार एक मई से लागू नई नीति की वजह से धीमी पड़ गई थी वह 21 जून से तेज हो सकती है। नीति बदलने से पहले देश में 35 लाख से ज्यादा डोज एक दिन में लगाई जा रही थी। उस रफ्तार से भी वैक्सीन लगती है तो अगले तीन महीने में 30 करोड़ से ज्यादा डोज लग जाएगी। इससे अपने आप संक्रमण की संभावना कमजोर पड़ती है।
अब सवाल है कि क्या डॉक्टर रणदीप गुलेरिया इस बात को नहीं जानते हैं? क्या उनको पता नहीं है कि देश की बड़ी आबादी संक्रमित हो चुकी है और उसके शरीर में जब तक एंटीबॉडी है तब तक वह कोरोना नहीं फैला सकती है? क्या उनको यह पता नहीं है कि वैक्सीनेशन की रफ्तार बढ़ने वाली है और जितने ज्यादा लोगों को वैक्सीन लगेगी, संक्रमण फैलने की संभावना उतनी कम होगी? क्या वे यह नहीं जानते हैं कि दूसरी लहर में हुई मौतों ने लोगों को सजग बना दिया है और वे सावधानी बरतेंगे ताकि तीसरी लहर नहीं आए? अगर वे इतनी बुनियादी बातें नहीं जानते हैं तो फिर उनको विशेषज्ञ बन कर कोई बात कहने का क्या अधिकार है? और अगर यह सब जानते-बूझते उन्होंने यह बात कही है तो फिर उनके ऊपर कार्रवाई क्यों नहीं होनी चाहिए?
असल में उन्होंने देश और समाज का बड़ा नुकसान किया है। उन्होंने आर्थिक गतिविधियां फिर से शुरू होने और आम जनजीवन पटरी पर लौटने की संभावना पर ब्रेक लगा दिया है। इसलिए इस बात की जांच होनी चाहिए कि उन्होंने किस मकसद से यह बात कही। बच्चों में कोरोना फैलने की बात का तो बहुत स्पष्ट मकसद था। देश में 15 साल से कम आबादी के 40 करोड़ बच्चे हैं। उनके अभिभावकों को कहीं से भी वैक्सीन का जुगाड़ करके बच्चों को लगवाने के लिए मजबूर करने के मकसद से वह बयान दिया गया था। क्या ऐसे ही किसी मकसद से गुलेरिया ने भी बयान दिया है? केंद्र सरकार इसकी जांच कराए और कार्रवाई करे और तब तक गुलेरिया के टीवी पर दिखने या अखबारों को इंटरव्यू देने पर रोक लगाए। उनके जैसे विशेषज्ञ लोगों का भला करने से ज्यादा उनका नुकसान कर रहे हैं।