बेबाक विचार

यह तो महाशक्ति का लक्षण नहीं है!

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यह तो महाशक्ति का लक्षण नहीं है!
India super power : भारत पूर्वी लद्दाख में अपनी जमीन गंवा कर चीन के डर से दुबका है। तालिबान के डर से अफगानिस्तान छोड़ कर भागा है। म्यांमार में सैनिक तानाशाही बहाल होने पर मुंह बंद करके बैठा है। नेपाल के चीन का उपनिवेश बन जाने पर आंखों मूंदे हुए है और सीमा पर शांति की चाह में पाकिस्तान से युद्धविराम के लिए तीसरे देश की मध्यस्थता पर निर्भर है। क्या यही महाशक्ति का लक्षण होता है? अगर पिछले सात साल के प्रचार पर भरोसा करें तो भारत विश्व गुरू बन चुका है या विश्व गुरू बनने की दहलीज पर खड़ा है। सोशल मीडिया और कई पारंपरिक मीडिया घरानों के मुताबिक भी भारत दुनिया की महाशक्ति बन गया है। यह अलग बात है कि हाल के अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रमों पर भारत की प्रतिक्रिया उसे महाशक्ति नहीं, बल्कि एक डरे हुए, कमजोर और हर घटना से तटस्थ देश के रूप में प्रस्तुत करती है। भारत पूर्वी लद्दाख में अपनी जमीन गंवा कर चीन के डर से दुबका है। तालिबान के डर से अफगानिस्तान छोड़ कर भागा है। म्यांमार में सैनिक तानाशाही बहाल होने पर मुंह बंद करके बैठा है। नेपाल के चीन का उपनिवेश बन जाने पर आंखों मूंदे हुए है और सीमा पर शांति की चाह में पाकिस्तान से युद्धविराम के लिए तीसरे देश की मध्यस्थता पर निर्भर है। क्या यही महाशक्ति का लक्षण होता है? जो महाशक्ति देश हैं वे अफगानिस्तान के घटनाक्रम पर चुपचाप बैठ कर तमाशा नहीं देख रहे हैं या किसी तरह से पंचायत करा कर अपने लोगों को वहां से निकाल लाने की जुगत नहीं कर रहे हैं। दुनिया के महाशक्ति देश अफगानिस्तान के घटनाक्रम में शामिल हैं। वे उस खेल के खिलाड़ी हैं। चीन और रूस खुल कर तालिबान का साथ दे रहे हैं और अमेरिका की पराजय का जश्न मना रहे हैं तो अमेरिका, ब्रिटेन आदि देश तालिबान को काबू में करने और उसकी नकेल कसने की रणनीति बना रहे हैं। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने अफगानिस्तान के हालात पर विचार के लिए जी-सात देशों की बैठक बुलाई है। मंगलवार, 24 अगस्त को जी-सात देशों की वर्चुअल बैठक होगी, जिसमें तालिबान पर पाबंदी लगाने के बारे में चर्चा की जाएगी। Taliban उधर अमेरिका में संसद की बैठक होने वाली है, जिसमें अफगानिस्तान से सेना बुलाने के राष्ट्रपति जो बाइडेन के फैसले पर चर्चा होगी। हालांकि बाइडेन ने अफगानिस्तान से सेना की वापसी का फैसला जरूर किया था लेकिन उन्होंने अफगानिस्तान को तालिबान की मनमानी के लिए नहीं छोड़ा है। अमेरिका ने काबुल हवाईअड्डे पर छह हजार सैनिक तैनात किए हैं और काबुल पर तालिबान के कब्जे के बावजूद हवाईअड्डे पर अमेरिका का नियंत्रण है और उसका दूतावास भी वहीं से काम कर रहा है। अमेरिकी सैनिक काबुल में फंसे हर देश के नागरिक को सुरक्षित निकालने का काम कर रहे हैं। वे विमानों का परिचालन संभाल रहे हैं और तालिबान को मजबूर किया है कि जो भी देश छोड़ कर जाना चाहता है उसे जाने दिया जाए। बाइडेन ने दो टूक अंदाज में तालिबान को चेतावनी दी है कि अगर किसी भी अमेरिकी नागरिक का कोई अहित हुआ तो तालिबान को भयंकर नतीजे भुगतने होंगे। Read also अखंड भारत या अखंड आर्यावर्त्त ? सोचें, अमेरिका अफगानिस्तान से आठ हजार किलोमीटर दूर है और अमेरिका के राष्ट्रपति दो बार राष्ट्र को संबोधित कर चुके हैं। रात-दिन अफगानिस्तान के हालात संभालने पर काम हो रहा है। तालिबान की नकेल कसने के उपाय हो रहे हैं। ब्रिटेन में संसद में भी अफगानिस्तान के हालात पर चर्चा होनी है और जी-सात की बैठक भी होनी है। नाटो के देश एक बार फिर अपनी अफगान नीति पर विचार कर रहे हैं। लेकिन भारत क्या कर रहा है? पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर से अफगानिस्तान की सीमा मिलती है। अगर भारत सचमुच मानता है कि पाक अधिकृत कश्मीर हमारा अपना है तो इसका मतलब है कि अफगानिस्तान से हमारी सीमाएं मिलती हैं। इसके बावजूद भारत पूरे घटनाक्रम में शामिल नहीं है। इस खेल का खिलाड़ी नहीं है। वह तालिबान के काबुल पहुंचने से पहले वहां से भाग चुका है। उसने अपने सैनिक काबुल में नहीं तैनात किए हैं ताकि वहां फंसे सैकड़ों भारतीयों को निकालने में आसानी हो। वह इस पर निर्भर है कि अमेरिकी सैनिक हवाईअड्डे पर हैं और अमेरिका के सेना प्रमुख ने तालिबान से बात करके उसे मजबूर किया है कि वह लोगों को सुरक्षित हवाईअड्डे तक पहुंचने दे। सो, भारतीय नागरिक भी सुरक्षित हवाईअड्डे तक पहुंच जाएंगे और वहां से अमेरिकी सैनिकों की देखरेख में विमान उनको लेकर भारत के लिए उड़ जाएंगे। भारत इस समय संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का अध्यक्ष है। विदेश मंत्री सुरक्षा परिषद की बैठक के लिए चार दिन अमेरिका में रहे। लेकिन क्या कहीं तालिबान के लिए भारत की कोई चेतावनी सुनने को मिली? क्या सुरक्षा परिषद के अध्यक्ष के नाते भारत ने तालिबान के खिलाफ कोई प्रस्ताव पास कराया? क्या यह जरूरी नहीं है कि प्रधानमंत्री तालिबान के घटनाक्रम पर देश को संबोधित करें और तालिबान को दो टूक चेतावनी दें? क्या इस घटना के मायने समझते हुए संसद की विशेष बैठक नहीं बुलाई जानी चाहिए ताकि इस बारे में भारत रणनीति पर चर्चा हो और आम सहमति बनाई जाए? असल में भारत ने तालिबान पर उसी तरह से मुंह बंद कर लिया, जैसे चीन पर किया हुआ है। चीन पिछले साल अप्रैल-मई से पूर्वी लद्दाख में भारत के लिए परेशानी पैदा किए हुए है। उसने पैंगोंग झील से लेकर गोगरा हॉट स्प्रिंग और देपसांग तक में अपने सैनिक घुसाए और अब पीछे हटने के नाम पर भारत को अपनी ही सीमा में पीछे धकेल रहा है। उसने कई जगह भारतीय सैनिकों की गश्त रूकवाई है और भारत की अपनी जमीन को बफर जोन बना दिया है। इसके बावजूद चीन की इस आक्रामकता पर भारत की ओर से कभी मुंह नहीं खोला गया। चीन का नाम लिए बिना विस्तारवाद के विरोध की एक लाइन बोल कर प्रधानमंत्री ने लाल किले के भाषण में काम चलाया। सबको पता है कि चीन ने म्यांमार में सैनिक तख्तापलट कराया है। चीन के समर्थन से म्यांमार की सेना ने आंग सान सू ची की चुनी हुई सरकार को अपदस्थ कर दिया और सत्ता पर कब्जा कर लिया। लेकिन दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दंभ करने वाले भारत की ओर से आलोचना का एक बयान नहीं आया। पूर्वोत्तर में भारत की सीमा पर चीन की मंशा जानते हुए भी भारत म्यांमार के मसले पर चुप है। इसका खामियाजा आने वाले दिनों में भुगतना पड़ सकता है। इसी तरह चीन ने भारत के एक दूसरे पड़ोसी नेपाल को अपना उपनिवेश बना लिया और श्रीलंका भी उसका उपनिवेश लगभग बन ही चुका है। सोचें, एक तरफ तालिबान और पाकिस्तान के जरिए, एक तरफ म्यांमार के जरिए, एक तरफ नेपाल और एक तरफ श्रीलंका के जरिए चीन हमारी घेराबंदी कर रहा है और हम जन आशीर्वाद यात्रा में व्यस्त हैं। भारत सरकार के 40 मंत्री इस समय देश के 265 जिलों में हजारों हजार की भीड़ लेकर जन आशीर्वाद यात्रा कर रहे हैं और कोरोना वायरस की तीसरी लहर को संभव बनाने के महती काम में लगे हैं। s Jaishankar prasad यह पहला मौका है, जब सीमा पर शांति बहाल करने और युद्धविराम समझौते को लागू करने के लिए भारत तीसरे पक्ष की मध्यस्थता का सहारा ले रहा है। हालांकि कभी इसकी पुष्टि नहीं हुई है लेकिन इसका खंडन भी नहीं किया गया है कि संयुक्त अरब अमीरात ने मध्यस्थता की है और उसने भारत-पाकिस्तान के बीच सैन्य वार्ता शुरू कराई, जिसके बाद पाकिस्तान ने युद्धविराम समझौते का पालन करना शुरू किया है। सोचें, कितना छोटा सा देश यूएई, ‘महाशक्ति’ भारत के लिए मध्यस्थता कर रहा है! बहरहाल, इस समय भारत का पड़ोस अंतरराष्ट्रीय समुदाय की चिंता का कारण बना है। सारी दुनिया खास कर बड़े और सक्षम देश इस पर विचार कर रहे हैं और किसी न किसी रूप में इस घटनाक्रम का हिस्सा हैं लेकिन भारत इन सबसे तटस्थ अपनी खोल में दुबका हुआ है और सत्तारूढ़ दल किसी न किसी तरह से इसका राजनीतिक लाभ लेने की उधेड़बुन में है। यही ‘महाशक्ति’ भारत की हकीकत है!
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