बेबाक विचार

वही पुराना अंदाज है

ByNI Editorial,
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वही पुराना अंदाज है
यह सरकारी टाइप की और सरकार समर्थक समूहों की एक ऐसी समिति मालूम पड़ती है, जो क्या सिफारिश करेगी, इसका अंदाजा संभवतः अभी से लगाया जा सकता है। इसके अलावा समिति की कार्यसूची अनेक ऐसे दूसरे गैरजरूरी मुद्दे भी जोड़ दिए गए हैं। केंद्र सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य की अनिवार्यता के मुद्दे पर विचार करने के लिए कमेटी बनाने का वादा संयुक्त किसान मोर्चा से किया था। तब उसकी प्राथमिकता तीन कृषि कानूनों के खिलाफ मोर्चे के नेतृत्व में चल रहे आंदोलन को खत्म कराना था। उस वादे के आधार पर जब किसान दिल्ली के तीन बॉर्डर से वापस चले गए, उसके बाद इस मसले को लटका दिया गया। अब कई महीनों के बाद ये कमेटी बनाई गई है, तो जिस पक्ष से समझौते के तहत इसे बनाने का विचार आया था, उसे पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया है। यह सरकारी टाइप की और सरकार समर्थक समूहों की एक ऐसी समिति मालूम पड़ती है, जो क्या सिफारिश करेगी, इसका अंदाजा संभवतः अभी से लगाया जा सकता है। इसके अलावा समिति की कार्यसूची अनेक ऐसे दूसरे मुद्दे भी जोड़ दिए गए हैं, जिनका एमएसपी से कोई संबंध नहीं है। ऐसे में इस बात में कोई हैरत नहीं है कि संयुक्त किसान मोर्चा ने इस समिति को ठुकरा दिया है। नतीजा यह होगा कि समिति चाहे जो सिफारिशें करे, उससे वह विवाद और बहस खत्म नहीं होगी, जो 2020-21 के किसान आंदोलन के दौरान खडड़ी हुई थी। कृषि मंत्रालय ने कहा है कि बनाई गई 26 सदस्यीय समिति एमएसपी व्यवस्था को अधिक "प्रभावी और पारदर्शी" बनाने के सुझावों पर विचार करेगी। यह कृषि उत्पादों के दाम सुझाने वाली संस्था कृषि मूल्य और लागत आयोग को अधिक स्वायत्तता देने के प्रश्न पर भी विचार करेगी। समिति को शून्य-बजट आधारित कृषि को बढ़ावा देने, फसलों का विविधीकरण करने, देश की बदलती जरूरतों के हिसाब से कृषि मार्केटिंग को मजबूत करने और प्राकृतिक कृषि को बढ़ावा देने पर भी विचार करने के लिए कहा गया है। गौरतलब यह है कि सरकारी अधिसूचना में इस बात का कोई जिक्र नहीं है कि समिति एमएसपी की कानूनी गारंटी पर भी विचार करेगी। इसमें सिर्फ एमएसपी व्यवस्था को पारदर्शी बनाने पर विचार की बात कही गई है। तो सवाल है कि आखिर संयुक्त किसान मोर्चा इस समिति को कैसे स्वीकार करता? बल्कि उसकी यह राय उचित लगती है कि ये समिति टाल-मटोल के सरकारी अंदाज का ही एक हिस्सा है।
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