बेबाक विचार

टिकैत, हार्दिक पटेल और रामदेव!

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टिकैत, हार्दिक पटेल और रामदेव!
याद करें रामलीला मैदान में पुलिस के डंडे और सलवार सूट पहन कर भागे रामदेव को! रामदेव ने अपने साथ हुए सलूक का हरिद्वार जा कर जो रोना रोया तो क्या साधु-संत, हिंदूजन उनके लिए सड़कों पर उतरे? नहीं। ठीक विपरीत सब कुछ खत्म होता देख राकेश टिकैत के कुछ आंसू क्या छलके किसान आगबबूला हो गए। सो, मोदी सरकार का किसान कानून बनाना यदि उनकी सरकार का टर्निग प्वाइंट है तो टिकैत के आंसुओं का क्षण हिंदू मानस के बड़े वर्ग में ज्यादती की हवा बनाने वाला टर्निंग प्वाइंट है। संघ परिवार और उसकी मोदी सरकार ने छह साल के राज में वह दास्तां तो बना ही ली है, जिससे भारत के सिख परिवारों में, किसान परिवारों में, जाट परिवारों में, मुस्लिम परिवारों में, दलित परिवारों में, देश के विपक्ष, विपक्षी सोच रखने वाले मानस में भाव है कि करें तो क्या करें और जाएं तो जाएं कहां! मुझे इमरजेंसी के वक्त का ध्यान है तो राजीव गांधी के सत्ता के आखिरी साल और मनमोहन सरकार के सन् 2012-14 का वक्त भी। तमाम अनुभवों में देश की आबादी में असंतोष, निराशा, गुस्सा, विरोध सब देखा लेकिन पिछले एक महीने में मैंने सिख और जाट चेहरों से जो सुना है वह पिछले तमाम सियासी मनोभावों से जुदा है। हिंदू बनाम मुसलमान के रिश्तों की इतिहास ग्रंथि में, सवर्ण बनाम दलित की सामाजिक ग्रंथियों में नफरत-घृणा के जितने भाव सोच सकते हैं उससे अधिक भदेभाव सिख और जाट चेहरों से प्रकट होने लगा है। कुछ लोगों का मानना है कि राकेश टिकैत से जाट समुदाय में जो जलजला बना है उसकी परिणति वैसी ही होगी जैसे गुजरात में हार्दिक पटेल और उनके पटेल आरक्षण आंदोलन की हुई थी। राकेश टिकैत, उनके भाई नरेश टिकैत और पश्चिम यूपी की जाट खाप, महापंचायत हो या  हरियाणा, राजस्थान के जाट सभी को ऐन वक्त सत्ता की चूसनी से या डंडे से मोदी-शाह वैसे ही हैंडल कर लेंगे जैसे हार्दिक पटेल और पटेलों को गुजरात में किया था। गुजरात में भी पटेल बहुत उछलते हुए थे। वोटों की राजनीतिक ताकत लिए हुए थे लेकिन हुआ क्या? मोदी-शाह उनकी कमजोर नस जानते हैं तो जैसे उन्हें वहां वोट के वक्त पटा लिया तो उत्तर प्रदेश में जाटों को पहले दो बार बहलाया हुआ है तो मुश्किल नहीं है कि विधानसभा चुनाव आने से पहले फिर हल्ला हो जाए कि बहन-बेटियों की चिंता करोगे या नहीं? जाहिर है किसान आंदोलन में टुकड़े-टुकड़े बनवाना, किसान बनाम सिख-जाट, सिख बनाम जाट और खालिस्तानी, देशद्रोही आदि के अलग-अलग नैरेटिव में अगले पांच विधानसभा चुनावों में देश के विरोधियों, विदेशी साजिश का हल्ला बना आंदोलन को बदनाम बनाने का अभियान वैसे ही चलेगा जैसे हार्दिक पटेल के धरने के बाद की घटनाओं का गुजरात में बनवाया था। ध्यान रहे गुजरात में भी पटेल कम खेतिहर नहीं है। पटेल भावनात्मक तौर पर हार्दिक पटेल से जुड़े थे लेकिन बदनामी के नैरेटिव से फिर वे कैसे बिखरे, वह अनुभव मोदी सरकार के लिए बहुत काम आने वाला है। दिक्कत है कि किसान आंदोलन में अंबानी-अडानी, अमीर-गरीब का जो नैरेटिव है वह चौतरफा, घर-घर फैल गया है। किसान-मजदूर और अंबानी-अडानी की कहानी धर्म से बड़ी भले न हो लेकिन उससे वैकल्पिक हल्ला चलता रहेगा। अपनी जगह आज भी एक तरफ संघ परिवार का राम मंदिर के लिए चंदा लेने का घर-घर अभियान है तो उसके बावजूद उधर किसान परिवारों में आंदोलन का जोश प्रकट है। इसलिए टिकैत और किसान आंदोलन की आगे क्या दिशा बनती है यह वैसा ही सस्पेंस है जैसे सन् 2011 में केजरीवाल-अन्ना हजारे के धरने के प्रारंभिक महीनों में था।
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