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हिंदू विकास दर का सच

भारत की सच्चाई का नाम है हिंदू विकास दर! इसका प्रमाण क्या है और इससे विकास हुआ कहां है? जवाब में पाठकों से मेरा अनुरोध है कि अपने-अपने शहर में ये उदाहरण तलाशें, जो मैं दिल्ली के दे रहा हूं। दिल्ली में शनिवार-रविवार या छुट्टी के किसी भीड़ भरे दिन इंडिया गेट के सर्कल, सोमवार को करोलबाग-रैगरपुरा के सोमवार बाजार या एम्स अस्पताल के बाहर जा कर इलाज के लिए आए चेहरों पर जरूर गौर करें। टाइमपास करते, घूमते और खरीदारी करते हुए लोगों को समझें! एक और उदाहरण वसंत विहार-जेएनयू मोड़ की कच्ची बस्ती का है। मैं इन जगहों को 30-40 वर्षों से ऑब्जर्व कर रहा हूं। मेरा मानना है कि अशोका रोड के भाजपा दफ्तर में रहते वक्त नरेंद्र मोदी ने भी इंडिया गेट या एबीवीपी आफिस जाते-आते रैगरपुरा को देखा और जाना होगा, वैसे ही यदि वे अब बंद शीशे की कार में इन इलाकों में घूमें और चेहरों से लोगों की दशा-दिशा बूझे तो न केवल तब और अब के फर्क की रियलिटी समझ आएगी, बल्कि अमृत काल का सत्य भी मालूम होगा!

मूल सवाल है हिंदुओं की विकास दर में लोगों की खुशहाली कैसी? आंकड़ा नहीं, बल्कि जीवन सत्य। पहली बात, जैसे आबादी बढ़ी वैसे ही इन चारों जगह भीड़, आबादी की सघनता बढ़ी। भीड़ का विकास हिंदू दर की गति से कछुआ चाल में। मेरे अनुभव ने इंदिरा गांधी के वक्त से विकास बनता देखा। शुरुआत थी सरकारी जमीन पर कबाड़ियों के कबाड़ रखने से। कबाड़ी सामान के दो-चार ढेर। फिर अस्थायी शेड व झोपड़ियां। अगला विकास कबाड़ के सामानों से ही बिना छत के कच्चे मकान। फिर ईंट-सीमेंट की दीवार और उन पर चादर की छत… विकास का बड़ा मोड़ पक्की छत…एक पक्का कमरा, उस कमरे पर धीरे-धीरे दूसरा, तीसरा, चौथा कमरा। बस्ती फैल गई। बस्ती की एक-एक फिट की गलियों में विकास पहुंचा। गलियां सीमेंट की बनीं। छतों पर पहले दूरदर्शन का एंटीना और बदले वक्त के धक्का विकास से सेटेलाइट डिश, सौ रुपए रूपए महीने का लाइट कनेक्शन।…विकास कारोबारी और आमदनी बनाने वाला हुआ।  कमरे किराये पर उठने लगे…कमरे की छत क्रंकीट की बनते दिखी। खिड़की पर कूलर, कोने में दुकानें और एक बोर्ड ब्यूटी सैलून की सूचना देते हुए भी…।

रोजगार और विकास में और गति। बस्ती के बाहर लोगों द्वारा फल-सब्जी, कुलचे, खानपान का धंधा करने के ठेले-रेहड़ी दिखने लगे। शीला दीक्षित के समय बस्ती को घेरती हुई दीवाल बनी। सुंदरीकरण हुआ। शौचालय का इंफास्ट्रकचर बना। चौराहे पर भीख मांगते, या तिरंगा व छोटी-छोटी चीजें बेचते बच्चों व औरतों का रोजगार फला-फूला…अब बस्ती में खूब राशन बंटता है। लोग उसका बड़ा हिस्सा व्यापारी को ही बेचकर नकदी पाते हैं। …गांव में रह रहे लोगों को भी राशन, पचास सौ, हजार-दो हजार रुपए मिलने से लोग संतुष्ट हैं। औरतों को अगल-बगल की कॉलोनियों के घरों में काम की कमी नहीं। जाहिर है जिंदगी अब वैसी नहीं जैसी चालीस साल पहले बाप-दादाओं की थी।….मगर हां, न बच्चे पढ़ाई करने जाते हुए कभी दिखे और न केजरीवाल सरकार के बावजूद मोहल्ला चिकित्सा या स्कूल का कोई ढांचा मुझे कभी बनता नजर आया।… अब इस विकास का हिंदू विकास दर का कमाल मान या अमृत काल का अमृत विकास, फैसला आपका। हां, यह ध्यान रखें कि दिल्ली की झुग्गी-झोपड़ी और उसकी आबादी का सच्चा आंकड़ा तलाशें तो तलाश नहीं पाएंगे।

अब जरा करोलबाग-रैगरपुरा के सोमवार बाजार को देंखे। सोमवार की छुट्टी के दिन तीस साल पहले भी फुटपाथ बाजार लगाता था। पर कुछ सड़कों पर ही। अलग-बगल का मध्य वर्ग तब खरीदारी करता था। प्रमुख तौर पर कपड़ों की खरीदारी। और अब? …पूरा इलाका मानों मेले का हाट बाजार… इतनी भीड़ की यह सोच दिमाग चकरा जाएगा कि करोलबाग इलाके में कहां जगह है जो झुग्गी-झोपड़ी बस्ती वाली ऐसी भीड़… कपड़े अभी भी बिकते है जैसे दो सौ-ढाई सौ रुपए की जिंस या गरम कपड़े… प्लास्टिक का सामान, तेल-मसाले, और रोजमर्रा की जरूरतों व साग-सब्जी और आउटिंग के लिए भठूरे, चाइनीज के रेहड़ी मतलब गांव के हाट बाजार का वह नजारा जिससे लगेगा कि देश की राजधानी का एक पॉश इलाका सतह के नीचे की जिंदगी का कैसा विशाल हाट बाजार है। पहले रैगरपुरा में जूते बनते थे मगर न अब बनाने वाले हैं और न बनवाने वाले। कहते हैं चीन और आगरा की फैक्टरियों में बने बेहद सस्ते सामानों और जूतों का यह इलाका नामी बाजार है।

तीसरा उदाहरण इंडिया गेट का। रैगरपुरा की भीड़ और हाट बाजार के साये में धीरे-धीरे ढलता नया इलाका। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इंडिया गेट पर तिरंगी लाइट, नई लाइटिंग और कर्तव्य पथ का ऐसा प्रचार बनवाया कि जो इंडिया गेट तीस-पैंतीस साल पहले दिल्ली के मध्यवर्गीय परिवारों, सरकारी कर्मचारियों, नौकरीपेशा और बाहर से आए टूरिस्टों के चेहरों से भरा होता था अब वह उन झुग्गी झोपड़ियों, गरीब-कच्ची-पक्की बस्ती के लोगो की आउटिंग से भरा है, जो कनॉट प्लेस, आलीशान मॉल्स की बजाय देखने-घूमने, बच्चों को बहलाने के लिए, चाट-आईसक्रीम खाने व टाइमपास में इंडिया गेट को पसंद करने लग हैं। सो, चालीस साल की हिंदू विकास दर की यह उपलब्धि है, जो दिल्ली का मध्य वर्ग, सरकारी कर्मचारी परिवारों को मॉल जैसे नए ठिकाने मिले तो कच्ची-पक्की पुरानी-नई बस्तियों के दरिद्रनारायणों के लिए इंडिया गेट घूमने के अवसर का विकास!

अब दिल्ली के एम्स इलाके को देखें। अस्सी-नब्बे के दशक की मरीज भीड़ के मुकाबले अब भीड़ भारी। वह तब जब पूरे देश में जगह-जगह एम्स खुल गए हैं। बहरहाल इलाके में दरिद्रनारायण मरीजों और उनके परिवारों को फुटपाथ पर बैठे, सोते, खाते हुए देखेंगे। तब और अब के बीच की हिंदू विकास दर की उन्नति यह है कि पहले लोगों के लिए केवल फुटपाथ था। विकास हुआ और उससे सर्दियों में तिरपाल के रैन-बसेरे बने। चाहें तो इसे केजरीवाल-मोदी राज के अमृत काल में हुई प्रगति मानें कि अब सफेद रंग की प्लास्टिक के आधुनिक कैनोपी टेंट के रैनबसरे हैं। कुछ कंटेनर भी रख दिए गए हैं। बावजूद इसके फुटपाथ, चौराहे के बीच घास के सर्कल में लोग सुबह, रात, दिन सोए मिलेंगे। एम्स इलाका अब इसलिए भी जाना जाता है कि शहर में पुण्य करने और पाने की अच्छी जगह है एम्स। गाड़ी में खाने-पीने का सामान भर कर ले जाओ।…जैसे ही धर्मादा करने पहुंचे लोग पूड़ी-दाल, खाना लेने के लिए लाइन लगाए हाजिर। सो, एम्स इलाके के विकास का साइड विकास पैसे वालों को झटपट पुण्य दिलवाने का भी!

यही वह हिंदू विकास दर है, जिसे मैं इंदिरा गांधी के वक्त भारत के दरिद्रनारायण चेहरों का शहरों में आने शुरू मानता हूं…झुग्गी-झोपड़ियां बनीं, वे फिर गरीबी हटाओ की राजनीति की भीड़ हुई। भीख-राशन तथा घरों में कामकाज से लोगों का गरीबी उन्मूलन शुरू हुआ। इनके नाम पर तब बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ। राशन के बाद रेवड़ियां चालू हुईं। गरीब तक फ्री बिजली, फ्री पानी का इंफ्रास्टक्चर पहुंचा…महानगरों में देहात के हाट बाजार लगने शुरू हुए… बिना पढ़ाई के बच्चों को सेकेंडरी पास के सर्टिफिकेट बंटे। आयुष्मान, जनधन, सस्ते फोन, साइकिल, कपड़े, मनरेगा आदि के सामाजिक कल्याणों से एक तरफ वेलफेयर समाज बना तो दूसरी ओर मेरे इन चारों उदाहरणों के अगल-बगल के ही वसंत विहार से लेकर तमाम तरह के वे शॉपिंग मॉल, एयर ट्रैफिक, विदेश यात्राओं तथा विश्व के पांच सौ खरबपतियों में अपने अंबानी-अडानी का क्रोनी एपांयर बना। और जीडीपी के आंकड़े उछलते हुए। बावजूद इसके अंतिम सत्य कि देश में वायरस आया तो 140 करोड़ लोगों की भीड़ के करोड़ों प्रतिनिधि चेहरे महानगरों से भागते हुए करोड़ों की संख्या में भरी गर्मी में भूखे-नंगे हाईवे पर गांव लौटते दिखाई दिए… इतना ही फिर महामारी की शिकार लाशें गंगा में बहती, गंगा किनारे लावारिश जलती भी दिखलाई दीं। इतिहास में अमृत काल का सत्य दर्ज करवाते हुए।

सो, नरेंद्र मोदी जीडीपी को साढ़े चार-छह-आठ प्रतिशत बता कर अपनी डुगडुगी बनाएं या रघुराम राज में ढाई से साढ़े तीन प्रतिशत विकास दर का आईना दिखलाएं, भारत और उसकी 140 करोड़ की भीड़ तो दरिद्रनारायण का वह सनातन सत्य है, जिसे दुनिया सदियों से जानती है हम भले आंखें होते हुए भी न जानें!

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