Truth of kashmir valley सोचें, कैसा था तब घाटी में संकट और पाकिस्तान ने क्या कुछ नहीं किया! तभी घाटी से हिंदुओं के सफाए का वह वैश्विक नैरेटिव बन नहीं पाया जो बनना चाहिए था। भारत की सरकारों को कश्मीरी पंडितों के मानवाधिकारों पर सोचने का समय ही नहीं था। सरकारें लगातार घाटी के मुसलमानों के मानवाधिकारों के हल्ले पर सफाई देते हुए थी। उन नाते सोचना गलत नहीं होगा कि पाकिस्तान की चुनौतियों के आगे जगमोहन, जनरल कृष्ण राव की घाटी में सख्ती और नरसिंह राव की कमान व कूटनीति से जो हुआ वहीं कम नहीं था।
कश्मीर घाटी का सत्य-16 : कश्मीर घाटी पर भारत और पाकिस्तान के इरादों में शक्ति परीक्षण का निर्णायक वक्त 1990 व उसका दशक था। जनवरी-फरवरी 1990 में घाटी पूरी तरह अराजक थी। हिजबुल मुजाहिदीन, जेकेएलएफ के कमांडरों, पाक प्रशिक्षित घुसपैठियों और उनके समर्थकों के तानेबाने में किसी भी ‘इंडियन’ के लिए घाटी तब खौफनाक थी। थानों, दफ्तरों, अस्पताल, स्कूल, रेस्टोरेंट याकि मेल मुलाकात की हर जगह जिहादी कमांडरों के आतंक का दबदबा था। बाहर से पहुंचे पत्रकार भी खौफ में जीते हुए थे तो प्रशासन याकि जनसंपर्क विभाग आदि में भी ‘इंडियन’ पत्रकारों को बेगानी निगाहों से देखा जाता था। श्रीनगर में धर्मनिरपेक्षता की बातें करने वाले चंद वामपंथी, कवि, लेखक और बुद्धिजीवियों के हालात ये थे कि वे अपने इलाके की मस्जिदों में कट्टरपंथियों के आगे सफाई देते हुए होते थे कि वे नास्तिक नहीं आस्तिक हैं।
ध्यान रहे तब अमेरिका, दुनिया ने 9/11 का, इस्लामी आंतक का अनुभव नहीं लिया था। भारत में वीपी सिंह, चंद्रशेखर की अस्थिर सरकारों की अनिश्चितताओं और दिवालिया आर्थिकी से दुनिया में भारत बिना हैसियत के था। विश्व राजनीति में इस्लामी देशों और पाकिस्तान की तूती थी। बेनजीर भुट्टो की वैश्विक धमक थी। अमेरिका में पाकिस्तान को महत्व था तो सोवियत संघ के ढहने के कारण भारत तब बिना दोस्त के था। बेनजीर भुट्टो अपने दूसरे कार्यकाल में भारत से हजार साला लड़ाई लड़ने की बात कहते हुए नरसिंह राव को चैलेंज करती थीं कि वे श्रीनगर जा कर बताएं!
कश्मीर घाटी का सत्य-15: एथनिक क्लींजिंगः न आंसू, न सुनवाई! क्यों?
इस सबके बीच प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने क्या किया? वे मौन रहे और चुपचाप जवाब दिया। उन्होंने 22 फरवरी 1994 को भारतीय संसद से प्रस्ताव पारित करवा दुनिया से दो टूक शब्दों में कहा कि जम्मू कश्मीर भारत का हिस्सा है और रहेगा व भारत के पास वह ताकत, वह इच्छाशक्ति है जो भारत की एकता, सार्वभौमता के खिलाफ रची जाने वाली साजिशों को सख्ती से नाकाम करे। नरसिंह राव ने यह मैसेज बेनजीर के अमेरिका पर प्रभाव के बावजूद दिया। अमेरिका तब मानो बेनजीर भुट्टो के जादू से मंत्रमुग्ध था। कई कारणों से बेनजीर भारत के नेताओं जैसे वीपी सिंह, चंद्रशेखर और नरसिंह राव से अधिक वैश्विक धमक बनाए हुई थीं। सो, सितंबर 1993 में अमेरिकी राष्ट्रपति ने संयुक्त राष्ट्र की आमसभा में ‘कश्मीर विवाद’ का जिक्र किया तो पीवी नरसिंह राव चौकन्ने हुए। अक्टूबर 1993 में दक्षिणी एशिया प्रभारी अमेरिकी सह विदेश मंत्री रॉबिन राफेल ने अलग कहा कि विलय का अर्थ अमेरिका यह नहीं मानता कि कश्मीर हमेशा के लिए भारत का हिस्सा! इससे बहुत पहले अगस्त 1991 में इस्लामाबाद स्थित अमेरिकी राजदूत रॉबर्ट ओकले ने भी कहा था कि कश्मीर के भारत के हिस्से होने के दावे को हम नहीं मानते हैं! (We do not accept the Indian claim that this (Kashmir) is a part of India.)
जाहिर है विश्व कूटनीति में पाकिस्तान का दबदबा था। भारत को घेरा हुआ था। जनरल कृष्णराव घाटी में सैन्य अभियान से जब उग्रवादियों की कमर तोड़ रहे थे तब बेनजीर भुट्टो ने मानवाधिकारों के उल्लंघन का हल्ला बनाने के लिए कई मंचों का उपयोग किया। इस्लामी देशों के संगठन ओआईसी से कश्मीर जा कर भारतीय सेना द्वारा कश्मीरियों के साथ हो रही ज्यादतियों की जांच का फैसला कराया। यही नहीं पाकिस्तान ने बाद में संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार आयोग में ओआईसी के जरिए भारत की निंदा का प्रस्ताव भी पेश किया। वह प्रस्ताव यदि पास हो जाता तो भारत के खिलाफ आर्थिक पाबंदियों का मामला बनता।
उस घेरेबंदी के बीच पीवी नरसिंह राव ने वह सफल वैश्विक कूटनीति की जो अपनी राय में आजाद भारत की बिरली दो-तीन कूटनीतिक कामयाबी में एक है। नरसिंह राव ने अभूतपूर्व सूझबूझ, दृढ़ता, बुद्धिमता, दूरदृष्टि दिखलाई। वे दावोस आर्थिक फोरम से जर्मनी गए। जर्मन चांसलर को पटाया। मानवाधिकार आयोग की सुनवाई के लिए भारत की तरफ से अटल बिहारी वाजपेयी, सलमान खुर्शीद, फारूक अब्दुल्ला, ई अहमद, आदि का सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल जिनेवा भेजा। बेनजीर भुट्टो के संयुक्त राष्ट्र में काउंटर के लिए आर्थिक सुधारों की वजह से विश्व नेताओं में साख बनाए डॉ. मनमोहन सिंह को न्यूयॉर्क भेजा। यही नहीं एजेंसियों से मैनेज करा गैर-सरकारी उपस्थिति में हुर्रियत के लोगों को भी जिनेवा भेजा। मुस्लिम प्रतिनिधियों और चेहरों की मौजूदगी का सुनवाई में असर हुआ तो सरकार ने चुपचाप भी ओआईसी के छह प्रभावी देशों को पटाया। प्रधानमंत्री ने अस्पताल में इलाज करा रहे बीमार विदेश मंत्री दिनेश सिंह को विशेष विमान से तेहरान भेजा। वहा नरसिंह राव के पुराने दोस्त व विदेश मंत्री अली अकबर विलायती ने दिनेश सिंह की राष्ट्रपति रफसनजानी से मुलाकात कराई। विदेश मंत्री ने प्रधानमंत्री नरसिंह राव का निजी पत्र रफसनजानी को दिया। बेबाक बात हुई। तेहरान में तब चीनी विदेश मंत्री भी थे। भारत के विदेश मंत्री ने उनसे भी कूटनीति की। संयुक्त राष्ट्र में चीन के एक मसले पर भारत के समर्थन का वादा किया। यही नहीं नरसिंह राव ने ईरानी नेताओं पर असर रखने वाले हिंदूजा को तेहरान में एक्टिव किया। इस कूटनीति का अंत परिणाम था जो इस्लामी देशों के संगठन के प्रस्ताव से इंडोनेशिया, लीबिया पीछे हटे तो सीरिया ने बहाना बना कर दूरी बनाई। नौ जनवरी 1994 के आखिरी दिन चीन और ईरान ने भी पाकिस्तानी प्रस्ताव से हाथ खींचे। अंततः पाकिस्तान शाम पांच बजे की समय सीमा से पहले प्रस्ताव को वापिस लेने को मजबूर हुआ।
वह भारत की अभूतपूर्व कूटनीतिक जीत थी। प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने एक तरफ घाटी में जनरल कृष्ण राव से अलगाववादियों, आतंकियों के खिलाफ सैन्य अभियान चलवाए रखा तो दूसरी तरफ पाकिस्तान की बेनजीर, नवाज शरीफ, दोबारा वापिस बेनजीर सरकार की 1994 तक की कूटनीति को हर मोड़ पर काटा, असफल बनाया। अमेरिका और ब्रिटेन में सांसदों-नेताओं के ‘फ्रेंडस ऑफ पाकिस्तान’ ग्रुप बने हुए थे। उनसे और यूरोपीय संसद में भी पाकिस्तान ने कश्मीर में मानवाधिकार उल्लंघन के मुद्दे को बहुत उछाला। अंतरराष्ट्रीय जस्टिस कोर्ट (आईसीजे) से अलग पड़ताल और रिपोर्ट बनवाने का पैंतरा चला। लेकिन सभी का नरसिंह राव ने बेधड़क सामना किया। विदेशी प्रतिनिधियों को श्रीनगर भी जाने दिया। कुल मिलाकर पाकिस्तान की हर संभव लॉबिंग के बावजूद एक भी भारत विरोधी रपट व प्रस्ताव सिरे नहीं चढ़ पाया।
भारत का पक्ष अमेरिका से बिगड़ा हुआ था। चुनौती थी कि उसे समझाने, भारत पक्षधर बनाने के लिए क्या हो? पीवी नरसिंह राव ने खुद पूरी कमान संभाली। जून 1994 में छह दिन अमेरिका में रहे। भारत में निवेश के बहाने अमेरिकी अरबपतियों, महाबली कंपनियों के सीईओ को पटाया। मैं उस यात्रा में प्रधानमंत्री की मीडिया टीम में था। पीवी नरसिंह राव, पीएमओ के राज्यमंत्री भुवनेश चतुर्वेदी को मैं जानते-समझते और बूझे हुए था। अमेरिकी यात्रा का लब्बोलुआब था कि व्हाइट हाउस के ओवल ऑफिस में बिल क्लिंटन और नरसिंह राव की डेढ़-दो घंटे की उस मुलाकात में दोनों नेताओं में खुल कर वह बात हुई, वह समझदारी बनी तो वह दिन है और आज का दिन है, अमेरिका से फिर ऐसा कोई बयान नहीं आया जो भारत की कीमत पर पाकिस्तानी की पीठ थपथपाते हुआ हो। तभी अपना मानना है पीवी नरसिंह राव का मौनी राज भारत की सर्वाधिक उपलब्धियां लिए हुए है।
सोचें, कैसा था तब घाटी में संकट और पाकिस्तान ने क्या कुछ नहीं किया! तभी घाटी से हिंदुओं के सफाए का वह वैश्विक नैरेटिव बन नहीं पाया जो बनना चाहिए था। भारत की सरकारों को कश्मीरी पंडितों के मानवाधिकारों पर सोचने का समय ही नहीं था। सरकारें लगातार घाटी के मुसलमानों के मानवाधिकारों के हल्ले पर सफाई देते हुए थी। उन नाते सोचना गलत नहीं होगा कि पाकिस्तान की चुनौतियों के आगे जगमोहन, जनरल कृष्ण राव की घाटी में सख्ती और नरसिंह राव की कमान व कूटनीति से जो हुआ वहीं कम नहीं था। (जारी)
नब्बे का वैश्विक दबाव और नरसिंह राव
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