भारत की अक्रिय कूटनीति किस तरह से देश को नुकसान पहुंचा रही है इसे अफगानिस्तान से लेकर म्यांमार तक और श्रीलंका से लेकर यूक्रेन-रूस तक के संकट में देखा जा सकता है। आज सारी दुनिया यूक्रेन और रूस के बीच जंग छिड़ने की संभावना से परेशान है।.. क्या कहीं भी दिखा कि भारत इस मामले में कोई कूटनीतिक पहल कर रहा है? कितनी बार रूसी राष्ट्रपति के गले मिल चुके भारत के प्रधानमंत्री ने क्या एक बार भी उनको फोन किया और संकट टालने के बारे में बात की? ukraine russia crisis india
रसायन विज्ञान पढ़ने वालों को पता होगा कि कुछ अक्रिय गैस होती हैं, जैसे हीलियम, जेनॉन, क्रिप्टन, निऑन आदि। इनका अस्तित्व होता है और उपयोगिता भी होती है लेकिन ये साधारणतः रासायनिक अभिक्रियाओं में भाग नहीं लेती हैं। उसी तरह भारत की कूटनीति है। भारत एक बड़ा देश है और विश्व के शक्ति संतुलन में इसकी एक जगह भी है। इसकी एक विदेश नीति भी है। लेकिन वह बुनियादी रूप से अक्रिय विदेश नीति है। इनर्ट गैसेज की तरह इसे इनर्ट डिप्लेमेसी भी कह सकते हैं और ज्यादा सहज रूप से कहना हो तो पैसिव डिप्लोमेसी भी कह सकते हैं। असल में भारत की कूटनीति किसी भी मामले में सक्रिय रूप से हिस्सा नहीं लेने की है। कूटनीति के मोर्चे पर कोई पहल नहीं करने की है। दुनिया में कुछ भी हो जाए भारत को चुपचाप तमाशा देखना है। सोचें, एक जमाने में पंडित नेहरू ने गुट निरपेक्ष आंदोलन की नींव रखी थी। उसके गुण-दोष पर अलग विचार हो सकता है लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि वह भारत की पहल थी। शीतयुद्ध के बीच दुनिया में एक तीसरा ध्रुव बनाने का प्रयास था। सोचें, पिछले सात-आठ साल में कब कोई ऐसी कूटनीति हुई, जिसमें लगे कि भारत एक बड़ी शक्ति है वह विश्व की घटनाओं में हिस्सा ले रहा है?
पिछले सात-आठ साल से भारत की कूटनीति पूरी तरह से अक्रिय हो गई है। कूटनीति के नाम पर जो किया जाता है वह एक सॉफ्ट पावर के रूप में पहले स्थापित भारत की छवि के अनुरूप ही होता है। जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बार बार कहते हैं कि कोरोना की महामारी में भारत ने दुनिया की मदद की, उन्हें वैक्सीन मुहैया कराई और मानवीय मदद भी की। लेकिन यह कूटनीति नहीं है। यह एक वैश्विक भाईचारा है, जो किसी भी आपात स्थिति में दुनिया के हर देश दिखाते हैं। सोचें, कोरोना महामारी की दूसरी लहर में जब भारत तबाह हो रहा था तब अफ्रीका के छोटे से देश केन्या ने भी भारत को मदद भेजी थी। वह केन्या की कूटनीति नहीं थी, बल्कि इंसानियत की मदद करने का एक जज्बा था, जिससे किसी न किसी रूप में दुनिया के सारे देश बंधे हैं।
राजीव गांधी ने श्रीलंका में शांति सेना भेजी थी। उसके भी गलत या सही होने पर चर्चा हो सकती है लेकिन वह एक सक्रिय पहल थी। मालदीव में सत्ता पलट रोकने के लिए राजीव गांधी ने सेना भेजी थी। पीवी नरसिंह राव प्रधानमंत्री हुए तो उन्होंने इजराइल के साथ कूटनीतिक संबंध बहाल किए, जिसके 30 साल पूरे होने का समारोह हाल ही में मनाया गया है। अटल बिहारी वाजपेयी ने दुनिया की परवाह किए बगैर परमाणु परीक्षण किया था और उसके बाद लगी पाबंदियों को खत्म कराने और भारत का अछूतपन दूर करने के लिए मनमोहन सिंह ने अमेरिका के साथ परमाणु संधि की थी। सोचें, उसके बाद भारत ने क्या कूटनीति की है। चार देशों के समूह क्वाड में भारत का शामिल होना जरूर एक कूटनीति है लेकिन वह भी भारत की अपनी पहल पर नहीं है, बल्कि उसमें भी चीन के खिलाफ अमेरिकी अभियान में भारत एक मोहरे के तौर पर शामिल हुआ है। अब तो क्वाड से अलग अमेरिका ने ऑकस बना लिया है, जिसमें ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका तीन देश शामिल हैं। सो, वहां भी भारत की कूटनीति बहुत सक्रियता वाली नहीं है।
भारत की अक्रिय कूटनीति किस तरह से देश को नुकसान पहुंचा रही है इसे अफगानिस्तान से लेकर म्यांमार तक और श्रीलंका से लेकर यूक्रेन-रूस तक के संकट में देखा जा सकता है। आज सारी दुनिया यूक्रेन और रूस के बीच जंग छिड़ने की संभावना से परेशान है। सारी दुनिया की तरह भारत पर भी इसका बड़ा असर होना तय है। दोनों देशों के बीच तनाव की वजह से तेल की कीमत एक सौ डॉलर प्रति बैरल तक जा पहुंची है, जिसका भारत जैसे तेल आयातक देश की आर्थिकी पर बड़ा असर हो रहा है। रूस दुनिया को गेहूं का निर्यात करने वाला सबसे बड़ा देश है।
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उसके जंग में शामिल होने और उस पर लग रही पाबंदियों से लेकर तेल की कीमतों से लेकर अनाज की कीमतें तक प्रभावित होंगी। इन सबका अंदेशा पहले से जाहिर किया जा रहा था लेकिन क्या कहीं भी दिखा कि भारत इस मामले में कोई कूटनीतिक पहल कर रहा है? कितनी बार रूसी राष्ट्रपति के गले मिल चुके भारत के प्रधानमंत्री ने क्या एक बार भी उनको फोन किया और संकट टालने के बारे में बात की? जिस तरह बड़े यूरोपीय देशों के नेताओं ने संकट टालने की भागदौड़ की क्या वैसी कोई भागदौड़ भारत की तरफ से दिखी? सोचें, आधुनिक समय के सबसे बड़े संकट के मामले में भारत तटस्थ बना रहेगा और उसके बाद उम्मीद करेगा कि दुनिया उसे गंभीरता से ले और एक बड़ी ताकत तौर पर मान्यता दे!
भारत की यहीं अक्रिय कूटनीति पड़ोस के घटनाक्रम में भी दिखी। अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना के लौटने और तालिबान के पूरी तरह से सत्ता पर काबिज हो जाने के बीच भारत ने कोई कूटनीतिक या सामरिक पहल नहीं की। एक मित्र देश में दुश्मन की सत्ता बहाल हो गई और भारत ने कोई पहल नहीं की! सफल होना या न होना अपनी जगह है लेकिन भारत पहल तो कह सकता था। अमेरिका से रूकने को कह सकता था, अपनी सेना भेजने का प्रस्ताव कर सकता था लेकिन भारत ने कुछ नहीं किया। अपने पड़ोस के देश में दुश्मन शासन बहाल होने और दो दूसरे दुश्मन देशों- चीन व पाकिस्तान के पाले में उसे जाने दिया। इसी तरह म्यांमार में सैनिक जुंटा ने चुनी हुई सरकार का तख्तापलट कर दिया और भारत सरकार तमाशा देखती रही। भारत इस मामले में दखल देकर सैनिक तानाशाही बहाल होने से रोक सकता था। लेकिन भारत ने ऐसा कुछ नहीं किया। दुनिया के देशों ने म्यांमार पर पाबंदी भी लगाई है लेकिन भारत उससे भी हिचक रहा है।
भारत परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह यानी एनएसजी का सदस्य नहीं है। एक समय इसके लिए बड़ा प्रयास होता दिख रहा था। हर बार चीन ने पाकिस्तान का नाम आगे कर भारत को रोका। अब ऐसा लग रहा है कि इसका प्रयास भी बंद हो गया। संयुक्त राष्ट्र में सुधार के लिए दबाव की कूटनीति भी भारत नहीं कर रहा है। इसी तरह भारत चाबहार बंदरगाह परियोजना से बाहर हो गया। भारत के पड़ोस में चीन सिल्क रूट विकसित कर रहा है और तीन तरफ से भारत को घेरने के प्रयास में लगा है लेकिन जब कोरोना के मसले पर सारी दुनिया उसकी घेराबंदी कर रही थी तब भी भारत तमाशबीन ही बना रहा। दुनिया के कूटनीतिक मोर्चे पर इतना कुछ हो रहा है लेकिन भारत सरकार चुनाव लड़ने, विपक्ष की साख बिगाड़ने, उसे आतंकवादी-अलगाववादी साबित करने और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कराने में लगी है। ukraine russia crisis india