बात यहां तक पहुंच चुकी है कि साधारण से बयानों और पोस्टरों को लेकर विपक्ष के खिलाफ कानूनी मामले बढ़ते चले जा रहे हैं। तो सवाल उठा है कि क्या सरकार विपक्ष के नेताओं को कानूनी मामलों में फंसा कर उनकी आवाज दबाना चाह रही है?
विपक्षी दलों में राष्ट्रीय स्तर पर अभी दिख रही एकजुटता आगे चल कर क्या शक्ल लेगी, इस बारे में अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी। अगर एकता टिकी भी रही, तो यह अगले आम चुनाव में कितनी प्रभावी होगी, इस बारे में भी अभी कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता। फिलहाल सिर्फ यह साफ है कि विपक्षी दलों ने महसूस किया है कि अब पानी सिर के ऊपर से गुजर रहा है- अगर अब वे साथ नहीं आए, तो एक-एक कर सबका अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। बात सिर्फ राहुल गांधी पर हुई कार्रवाई की नहीं है। बल्कि यह यहां तक पहुंच चुकी है कि साधारण से बयानों और पोस्टरों को लेकर विपक्ष के खिलाफ कानूनी मामले बढ़ते चले जा रहे हैं। तो यह वाजिब सवाल उठा है कि क्या सरकार विपक्ष के नेताओं को कानूनी मामलों में फंसा कर उनकी आवाज दबाना चाह रही है? जाहिर है, तमाम विपक्षी दल ऐसा ही महसूस कर रहे हैँ। मानहानि के प्रावधान का जिस तरह सियासी इस्तेमाल हुआ है, उसने अब जाकर विपक्षी समूहों की आंख खोली है।
जिस मामले में राहुल गांधी की संसद सदस्यता गई, उसकी सुनवाई करीब चार साल तक चली। अब जाकर अचानक कार्यवाही क्यों तेजी हुई, इसको लेकर विपक्ष अपने अपने निष्कर्ष निकाले हैं। राहुल गांधी के खिलाफ इसके पहले भी मानहानि के मुकदमे दर्ज किए गए हैं। महाराष्ट्र, असम, झारखंड आदि में उनके खिलाफ मानहानि के कई मुकदमे चल रहे हैँ। लेकिन मानहानि ही विपक्ष के नेताओं को परेशान करने के लिए सरकार के पास इकलौता जरिया नहीं है। भ्रष्टाचार और अन्य आरोपों के आधार पर केंद्रीय एजेंसियों का विपक्ष के नेताओं को ही निशाना बनाना इसी सिलसिले की एक कड़ी मानी गई है। गुजरात में एक कांग्रेस कार्यकर्ता को प्रधानमंत्री की तस्वीर फाड़ने के आरोप में सजा हुई है, तो दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना करने वाले पोस्टरों के खिलाफ कार्रवाई करते हुए दिल्ली पुलिस ने दर्जनों मामले दायर किए हैं और छह लोगों को गिरफ्तार कर लिया है। ऐसा इसके पहले आजाद भारत में कभी नहीं हुआ। विपक्ष ने इस घटनाक्रम का संदेश समझा है, यह अच्छी बात है।