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हवाई बातों से क्या होगा?

हवाई बातों से क्या होगा?

यूबीआई के पीछे विचार यह है कि वर्तमान आर्थिक नीतियों से जिन लोगों की जिंदगी मुहाल हो गई है, उनके जख्मों पर प्रत्यक्ष धन हस्तांतरण के जरिए महरम लगाया जाए। लेकिन अब साफ है कि वर्तमान सरकार उसकी जरूरत महसूस नहीं कर रही है।

भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार वी अनंत नागेश्वरन ने कुछ ऊंचे दावे किए हैं और साथ ही यूनिवर्सल बेसिक इनकम (यूबीआई) की भारत में जरूरत को सिरे से नकार दिया है। यह गौर करने की बात है कि वर्तमान सरकार के ही एक पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार की पहल पर भारत में यूबीआई बहस में केंद्र में आई थी। नरेंद्र मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में सलाहकार रहे अर्थशास्त्री अरविंद सुब्रह्मण्यम ने 2017 में संसद में पेश अपने आर्थिक सर्वेक्षण में भारत में यह योजना शुरू करने की जरूरत बताई थी। असल में यूबीआई उसी नव-उदारवादी सोच से निकली एक योजना है, जिसे पिछले साढ़े तीन दशक पहले भारत में अपनाया गया था। तब योजनाबद्ध विकास के आर्थिक ढांचे को बदलने के लिए जिन आर्थिक ‘सुधारों’ पर अमल शुरू हुआ, उसे मानवीय चेहरा देने की जरूरत महसूस की जाती थी। यूबीआई उसी नजरिए से निकली एक सोच है, जिसके पीछे विचार यह है कि कथित ढांचागत बदलाव से जिन लोगों की रोजी-रोटी छिन गई है या जिनकी जिंदगी मुहाल हो गई है, उनके जख्मों पर प्रत्यक्ष धन हस्तांतरण के जरिए महरम लगाया जाए।

लेकिन अब साफ है कि वर्तमान सरकार उसकी जरूरत महसूस नहीं कर रही है। इसीलिए प्रधानमंत्री ने “रेवड़ी कल्चर” के खिलाफ मुहिम छेड़ी है और इस साल के बजट में तमाम कल्याण योजना के मद में कटौती कर दी गई थी। नागेश्वरन ने उसी सोच को आगे बढ़ाया है। बहरहाल, उनका यह दावा खोखला है कि भारत ने ऊंची आर्थिक वृद्धि दर हासिल कर ली है और चीन की तरह वह लंबे समय तक इसे बनाए रखेगा। नागेश्वरन ने कहा कि इस आर्थिक वृद्धि से लोगों की तमाम जरूरतें पूरी हो जाएंगी, इसलिए यूबीआई की ‘पतित संस्कृति’ को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता नहीं है। मगर मुद्दा यह है कि अगर महामारी काल में आई भारी गिरावट को ध्यान में रखें और 2018-19 से 2022-23 के जीडीपी की तुलना करें, तो भारत की औसत वृद्धि दर साढ़े तीन प्रतिशत के करीब बैठती है। यह किसी लिहाज से ऊंची विकास दर नहीं है। इस असलियत की रोशनी में नागेश्वरन के दावे कहां ठहरते हैं?

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