यूपी में दीये और तूफान की लड़ाई-2 : वहीं करें जो अब तक करते आए हैं। चुनाव घोषणा से पहले तक अखिलेश यादव ने बिना शोर-शराबे व भौकाल के राजनीति की थी। नेता, कार्यकर्ता तब हैरान थे कि अखिलेश क्यों नहीं कुछ करते हुए दिखलाई दे रहे हैं! मीडिया, प्रचार, सर्वे आदि के तमाम मामलों में उनके करीबी व समर्थक यहीं कहते मिलते थे कि वे फैसले क्यों नहीं कर रहे? खर्च क्यों नहीं हो रहा? कांग्रेस, आप, रालोद आदि सब पार्टियां अखिलेश की कमान में जब ग्रैंड एलायंस बना चुनाव लड़ने के मूड में हैं तो वे पहल क्यों नहीं कर रहे हैं? उससे क्यों कतरा रहे हैं? जितने मुंह उतनी बातें। मोटा-मोटी अपना मानना है कि केंद्र सरकार के बाहुबल की हकीकत में अखिलेश यादव ने सतर्कता-सावधानी से चुनावी बिसात बिछाई। up election Akhilesh yadav
उनका भाग्य जो भयाकुलता से मायावती घर में दुबकी रहीं और लोगों में अपने आप धारणा बनी कि मुकाबला मोदी-योगी बनाम अखिलेश में होगा। इस परसेप्शन को मोदी सरकार ने अखिलेश के कथित करीबियों के यहां इनकम टैक्स के छापे डलवा कर पुख्ता बनवाया। कानुपर के पान मसाला और इत्र कारोबारियों के यहां छापों से प्रदेश में चर्चा बननी ही थी कि भाजपा के लिए अखिलेश और सपा ही मुख्य चुनौती है इसलिए छापे पड रहे है। नरेंद्र मोदी-योगी आदित्यनाथ व मायावती सबने अनचाहे-अनजाने अखिलेश यादव का ग्राफ बनाया। पश्चिम बंगाल में मोदी बनाम ममता के सीधे चुनावी घमासान की तर्ज पर उत्तर प्रदेश में मोदी बनाम अखिलेश की लड़ाई बूझी जाने लगी।
इसलिए अखिलेश यादव का विपक्ष की धुरी बनना स्वयंस्फूर्त है। यहीं उनकी ताकत है। उसी को सहेज कर समाजवादी पार्टी का चुनाव कैंपेन बनना चाहिए। उत्तर प्रदेश की जमीनी सच्चाई और अकेले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को मुद्दा बना कर अखिलेश यादव को चुनाव लड़ना चाहिए। वे नरेंद्र मोदी का नाम ले कर, उनकी सीधी आलोचना नहीं करें। नरेंद्र मोदी को मुद्दा न बनाएं। उन्हें ममता बनर्जी की स्टाइल वाला आक्रामक चुनाव नहीं लड़ना चाहिए। न आक्रामक और न रक्षात्मक। मुख्यमंत्री योगी को भी बतौर बाबा सम्मान देते रहना चाहिए। इसलिए कि नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ अभी भी हिंदू जनधारणा में हिंदू प्रतीक हैं। समाजवादी पार्टी और अखिलेश को सिर्फ योगी के शासन, उसके अहंकार, उसकी असंवेदनशीलता पर मतदाताओं की याद ताजा करा लोगों से पूछना है कि क्या वे वापिस योगी का पांच साला राज चाहते हैं?
तय मानें योगी-भाजपा और मोदी-शाह अगले डेढ़ महीने सिर्फ और सिर्फ हिंदू-मुस्लिम करके हिंदू मतदाताओं में डर पैदा करने का महा नैरेटिव बनवाएंगे। इसकी अनदेखी कर अखिलेश और विपक्ष को सिर्फ और सिर्फ योगी राज के पांच सालों का अनुभव लोगों को याद करवाना चाहिए। भाजपा के कैंपेन पर ऐसी कोई प्रतिक्रिया, जवाब, माहौल बने ही नहीं, जिससे हिंदू आशंकित हो। इसलिए अखिलेश को अपने हर उम्मीदवार, हर जिला नेता और सहयोगी पार्टियों खास कर जयंत चौधरी, लोकदल को निर्देश देना चाहिए कि मुसलमान की भीड़ नहीं बनवाएं। चुनावी जमावड़ा बिना मुस्लिम-यादव भीड़ के हो। सपा के मुस्लिम-यादव कार्यकर्ता-प्रवक्ता टीवी चैनलों, जनसंपर्क में हिंदू-मुस्लिम डिबेट से बचें। हल्ला न करें कि वे जीत रहे हैं। चुनाव वर्चुअल होता लगता है तो जन संपर्क का महत्व अधिक होना है। इसलिए सपा-रालोद सभी अपने जन संपर्क में ब्राह्मण, अन्य पिछड़ी जातियों, जाट और दलित चेहरों का साझा आगे रखें। समाजवादी पार्टी यादव-मुसलमान की बजाय गैर-यादव पिछड़ों-जाट और दलित-ब्राह्मणों को जितना आगे रखेगी उतनी दीये की ताकत बढ़ेगी।
संभव है इससे प्रचार हल्ला कम हो। पर इस एप्रोच के फायदे अधिक हैं बनिस्पत यादव-मुसलमान के हल्ला बोल भौकाल के। यह इंप्रेशन, यह धारणा मुखर नहीं हो कि समाजवादी पार्टी-रालोद का विपक्षी एलायंस जीता हुआ है। हां, बिहार के 2015 चुनाव में नीतीश-लालू-कांग्रेस के एलायंस के वक्त मोदी-शाह-भाजपा का भौकाल जीत का डंका बनाए हुए था। विपक्ष बेचारा, बिना साधनों का उखड़ा हुआ दिखता था। नरेंद्र मोदी की जनसभाओं की जबरदस्त भीड़ के आगे विपक्ष के हौसले पस्त थे। बावजूद इसके 2014 की आंधी के एक साल बाद ही मोदी-शाह के कैंपेन की हार हुई तो वजह नीतीश कुमार के चेहरे पर दीये के लिए पके वोट थे। अखिलेश की आज नीतीश कुमार से अधिक मौन अपील है तो वजह योगी के चेहरे, उनके राज अनुभव का कंट्रास्ट है। योगी के कंट्रास्ट से अखिलेश की अपील। अखिलेश को लोगों को सिर्फ याद दिलवाना है कि उनके पांच सालों में लोगों की सुनवाई, उनकी चिंता अधिक थी या नहीं? वे जनता से अधिक सरोकार रखते थे या नहीं? वे लोगों से मिलते थे तो उनका मिलना बाबा की तरह था या सहज, भले अपनेपन वाला था? अखिलेश की नंबर एक खूबी स्वभाव है, सहजता है और मान-सम्मान की गरिमा के साथ व्यवहार है। इसे दूर से भी समझा जा सकता है।
तभी अखिलेश का संभल कर राजनीति करना हालातों और जमीनी सच्चाई में फायदेमंद हुआ है। उसी अनुसार चुनाव प्रचार में यदि अखिलेश और जयंत चौधरी, राजभर, मौर्य आदि चेहरों से लाचारगी, तंगी, जैसे-तैसे लड़ने वाली असहायता झलकी रही तो लोगों में सहानूभुति-समर्थन अपने आप बनेगा। योगी तब हिंदुओं में आशंका नहीं बना सकेंगे कि ‘वे’ लोग जीत कर जीना हराम कर देंगे। उस नाते मतदाताओं में अखिलेश का भरोसा तभी पुख्ता होगा जब मुसलमान-यादव के बजाय दूसरी जातियों के सपा कार्यकर्ता जन सपंर्क करें। विपक्ष की गड़बड़ यह है कि वे नरेंद्र मोदी के चुनाव लड़ने के तौर-तरीकों पर फोकस नहीं रखते। हाल में नरेंद्र मोदी ने पर्ची कटवा लोगों से चंदा लेने का अभियान चलाया। क्या यह काम अखिलेश यादव, जयंत चौधरी, राजभर आदि को नहीं करना चाहिए? हिसाब से सपा-रालोद के उम्मीदवार को पहले दिन ही घर-घर जा कर पांच-दस रुपए का चंदा मांगना चाहिए। आखिर यह तो आम धारणा है कि मोदी सरकार विरोधी दलों को चुनाव खर्च में भूखा मार रही है। विपक्ष का कार्यकर्ता पांच दिन घर-घर जा कर दस रुपए का चंदा मांगे, भीख मांगे और फिर उसी से नौ दिन वर्चुअल प्रचार-जन संपर्क व बूथ मैनेजमेंट का काम संभाले तो उससे भाजपा का माइक्रो प्रबंधन बेजान हो सकता है।
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मगर कार्यकर्ता वे हों जिनसे जातीय राजनीति खासकर मुस्लिम व यादव दबदबे का हल्ला न बने। शुक्रवार को लखनऊ में सपा दफ्तर पर लाल टोपी पहनी भीड़ और भाषण-आत्मविश्वास का जैसा भौकाल दिखा वैसा ही यदि नामांकन पत्र भरने से मतदान तक यादव-मुस्लिम व स्वामी प्रसाद मौर्य छाप भीड़ का हुआ तो तय मानें भाजपा के मजे होंगे। मतदान के आखिरी चार दिनों में तब घर-घर भाजपा का यह नैरेटिव हावी होगा कि यदि विपक्ष को वोट दिया तो ‘उनका’, और गुंडों का राज लौटेगा।
अपना मानना है यूपी की लड़ाई में जनता के मनोविज्ञान में एक धुरी बेहाली-बरबादी-महामारी और मौत के वक्त भी सुनवाई नहीं होने, लावारिस अनुभव, ठूंठ-निष्ठुर-बेरहम योगी सरकार से मोहभंग की है तो दूसरी धुरी इस धारणा पर निर्मित है कि कुछ भी हो लॉ एंड ऑर्डर ठीक रहा। योगी ने गुंडों-माफियाओं को ठोका। इन दो धुरियों पर आखिरी चार-पांच दिनों में जिस धारणा का चुबंकीय आकर्षण अधिक बनेगा उसी से फैसला होगा।
इसलिए अखिलेश यादव की रणनीति का अहम मसला वह सावधानी है, जिससे लोगों के दिमाग में पांच साल पहले के उनके राज के अनुभव के माइनस प्वाइंट लोगों में ताजा नहीं हों। यों चुनाव में लोग वर्तमान पर, मौजूदा सरकार के पांच सालों पर सोचते होते हैं। यूपी के जनमानस में भी योगी के चेहरे से निज और जातिगत अनुभवों पर ही सोचा-विचारा जा रहा होगा। मतलब योगी और उनकी सरकार से क्या मिला? क्या सम्मान पाया? क्या सत्ता भागीदारी पाई? पांच साल सुख-चैन के थे या बरबादी-बदहाली के? दिक्कत यह है कि उत्तर प्रदेश में लोगों का मानना याकि परसेप्शन जात-पांत व चौपाल की चख-चख में फंसा होता है। उसे गैर-सुनामी माहौल में बूझना आसान नहीं। हां, यह तो मान लेना चाहिए कि दीये बनाम तूफान की लड़ाई में भाजपा सुनामी वाला दम फिलहाल लिए हुए नहीं है! वह बैकफुट पर है। (जारी)
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