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आजादी के प्रतीकों का इस्तेमाल

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आजादी के प्रतीकों का इस्तेमाल
आजादी दिवस नजदीक है। क्या इसलिए प्रधानमंत्री इन दिनों अपने भाषणों में आजादी की लडाई से जुड़े प्रतीकों का इस्तेमाल कर रहे हैं या किसी सुविचारित योजना के तहत वे मंदिर निर्माण से लेकर स्वच्छता तक के अभियान के लिए इन प्रतीकों का इस्तेमाल कर रहे हैं? एक सवाल यह भी है कि क्या अपने राजनीतिक एजेंडे के लिए आजादी की लड़ाई के प्रतीकों का इस्तेमाल करके प्रधानमंत्री मोदी उनका महत्व कम कर रहे हैं? क्या राजनीतिक, धार्मिक एजेंडे से जुडऩे की वजह से इन प्रतीकों की गरिमा कम हो रही है? ये बहुत जरूरी सवाल हैं, जो प्रधानमंत्री के हाल में दिए दो भाषणों से उठे हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर के भूमिपूजन और शिलान्यास के बाद जो भाषण दिया उसमें उन्होंने मंदिर आंदोलन की तुलना आजादी के आंदोलन से की। उन्होंने कहा कि जिस तरह आजादी की लड़ाई में लोगों ने अपना सर्वस्व त्याग दिया उसी तरह मंदिर आंदोलन में भी लोगों ने त्याग किया। उन्होंने कहा- आजादी के लिए देश के हर कोने में आंदोलन न चला हो ऐसा उस कालखंड में कभी नहीं रहा। 15 अगस्त का दिन उस अथाह तप के लाखों बलिदान का प्रतीक है। ठीक उसी तरह राम मंदिर के लिए कई-कई सदियों तक, कई-कई पीढ़ियों ने अखंड अविरल एक निष्ट प्रयास किया है। आज का ये दिन उसी तप, त्याग और संकल्प का प्रतीक है। राम मंदिर भाजपा के लिए हमेशा एक राजनीतिक मसला रहा है और इसलिए उसके नेता इस पूरे घटनाक्रम का राजनीतिक लाभ लेने का प्रयास कर रहे हैं। उस पर एक बहस अलग हो सकती है। पर मंदिर आंदोलन की तुलना आजादी के आंदोलन से किए जाने से आजादी के ऐतिहासिक और महान संघर्ष की गरिमा कम होती है। भारत की आजादी की लडाई कोई मामूली लड़ाई नहीं थी। वैसे आंदोलन की मिसाल इतिहास में नहीं है। वह लड़ाई दो सदी तक चली थी और कई पीढ़ियों ने उस लड़ाई में अपना सर्वस्व होम किया था। वह सिर्फ भारत को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति दिलाने की लड़ाई नहीं थी, बल्कि अनेक महान मूल्यों को लेकर वह लड़ाई लड़ी जा रही थी। उसकी एक साथ कई धाराएं थीं। वह एक राजनीतिक आंदोलन था तो साथ ही सामाजिक और सांस्कृतिक आंदोलन भी था। देश को एकजुट करना, सामाजिक बुराइयों को दूर करना, धार्मिक व सांप्रदायिक एकता स्थापित करना, आर्थिक गैर बराबरी मिटाना और इस किस्म के और भी कई लक्ष्य थे, जिन्हें सामने रख कर स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े लोगों ने लड़ाई की और अपना जीवन कुर्बान किया। इसके मुकाबले मंदिर आंदोलन एक सीमित दायरे में और सीमित लक्ष्य के साथ हुआ था, जिसका स्पष्ट राजनीतिक मकसद था। आजादी की लड़ाई हिंदू, मुस्लिम, सिख मिल कर लड़ रहे थे और धार्मिक भाईचारे की मिसाल कायम कर रहे थे। उस लड़ाई के बाद भले देश का विभाजन हुआ पर सांप्रदायिक आधार पर मौजूद सामाजिक विभाजन की खाई कम हुई थी। इसके उलट मंदिर आंदोलन ने सांप्रदायिक विभाजन की उस फॉल्टलाइन को चौड़ा किया, जिसे शहीद भगत सिंह, पंडित गणेश शंकर विद्यार्थी और महात्मा गांधी ने अपने बलिदान से भरा था। दोनों आंदोलनों में एक और बुनियादी फर्क यह है कि आजादी की लड़ाई महात्मा गांधी की हत्या पर खत्म होती है और वहीं से धार्मिक राजनीति की नई धारा शुरू होती है। गांधी की धर्मनिरपेक्षता, सर्वधर्म समभाव की सोच को खत्म करने के लिए ही तो उनकी हत्या की गई थी। गांधी के अपने राम थे। उन्होंने ‘हे राम’ कहते हुए दम तोड़ा था और उनकी हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे के अपने राम थे। सबके अपने अपने राम हैं। किसी के दिल में राम का मंदिर है तो किसी के लिए सिर्फ मंदिर में ही राम हैं। गांधी का प्रिय भजन ‘रघुपति राघव राजा राम’ था पर इस भजन ने कभी भी दूसरे धर्म के लोगों के मन में भय या अलगाव की भावना नहीं पैदा की परंतु मंदिर आंदोलन में ‘जय श्रीराम’ का नारा अलगाव और सामाजिक विभाजन का कारण बना। शायद तभी प्रधानमंत्री मोदी ने शिलान्यास के बाद जय श्रीराम की बजाय जय सियाराम का नारा लगाया। बहरहाल, अब सवाल है कि क्या मंदिर आंदोलन की आजादी के आंदोलन से तुलना एक दिन के भाषण की बात थी या यह किसी सुविचारित योजना का हिस्सा है? अगर मंदिर के शिलान्यास के दौरान भावुकता में बह कर यह तुलना की गई है तो कोई बात नहीं है। लेकिन अगर इसके पीछे कोई सुविचारित सोच है या अपने उस भाषण से प्रधानमंत्री ने नया राजनीतिक नैरेटिव बनाया है फिर यह बड़ी बात है। तब तो यह बात सोशल मीडिया, आईटी सेल और पाठ्यपुस्तकों के जरिए भी स्थापित की जाएगी कि कैसे मंदिर के लिए लड़ने वाले लोग भी उतने ही महान थे, जितने आजादी के लिए लड़ऩे वाले थे। पांच अगस्त को अयोध्या में दिए भाषण के तीन दिन बाद प्रधानमंत्री मोदी ने आठ अगस्त को दिल्ली में राष्ट्रीय स्वच्छता केंद्र का उद्घाटन किया। इस दौरान उन्होंने आजादी की लड़ाई के एक और प्रतीक का इस्तेमाल किया। स्वच्छता केंद्र के उद्घाटन के लिए भारत छोड़ो आंदोलन की सालगिरह के दिन को चुन गया और उस दिन प्रधानमंत्री ने महात्मा गांधी के दिए नारे ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का इस्तेमाल गंदगी दूर भगाने के लिए किया। उन्होंने देश के लोगों का आह्वान करते हुए कहा कि एक हफ्ते तक ‘गंदगी भारत छोड़ो’ अभियान चलना चाहिए। इसमें कोई संदेह नहीं है कि स्वच्छता अपने आप में एक बड़ा आंदोलन है। लेकिन उसके लिए आजादी की लड़ाई के प्रतीक का इस्तेमाल करना चौंकाता है। स्वच्छता की बात करते हुए प्रधानमंत्री हमेशा महात्मा गांधी की बात करते हैं। ऐसा लगता है कि महात्मा गांधी ने अपने जीवन में सिर्फ स्वच्छता का संदेश दिया है। उन्होंने गांधी को स्वच्छता के नैरेटिव में ही समेट कर रख दिया है। जबकि हकीकत यह है कि गांधी के सिद्धांतों में मूल बात सत्य, अहिंसा, साहस और रचनात्मकता, ये चार चीजें थीं। राजघाट पर स्वच्छता केंद्र का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री ने बार बार कहा कि गांधी के लिए दक्षिण अफ्रीका से लेकर चंपारण तक के आंदोलन में स्वच्छता मूल मंत्र था। पर ऐसा नहीं था। मूल मंत्र सत्य, साहस, अहिंसा और रचनात्मकता के थे। स्वच्छता तो इन मूल्यों के साथ अपने आप पैदा होने वाला भाव है। स्वच्छता कोई अलग से प्रतिपादित किया गया सिद्धांत नहीं है वह गांधी के भाव और आचरण का हिस्सा था। लेकिन उस पर जोर देकर सत्य, अहिंसा, साहस के उनके अद्वितीय प्रयोगों को हाशिए में डाला जा रहा है। गांधी ने देश के लोगों को सबसे पहले साहसी बनाने का प्रयास किया था। बर्बर अंग्रेजी शासन के खिलाफ तन कर खड़े होने की हिम्मत पैदा की थी। उन्होंने सत्य का संधान किया था और यह सिद्धांत दिया था कि हर हाल में सत्य सामने आना चाहिए। लेकिन अफसोस की बात है कि आज हर प्रयास सत्य को दबाने और लोगों से उनका साहस छीनने का हो रहा है।
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