बेबाक विचार

राजनीति के लिए "राम" की शरण!

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राजनीति के लिए
Politics in Rams name बसपा का श्रीराम और ब्राह्मण समाज के लिए एकाएक प्रेम उमड़ना विशुद्ध अवसरवाद का परिचायक है। स्वतंत्र भारत में श्रीराम के अस्तित्व को नकारने, उन्हें काल्पनिक बताने, तथ्यों को विकृत करके उनका चरित्रहनन करने और राममंदिर पुनर्निर्माण में अवरोध डालने वाले "सेकुलरिस्ट-वामपंथी-जिहादी कुनबे" को बसपा का राजनीतिक कारणों से प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन मिलता रहा है। उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव होने में आठ माह का समय शेष है। ऐसे में राजनीतिक दलों द्वारा अपनी तैयारियों को आरंभ करना स्वाभाविक है। इसी कड़ी में घोर जातिवादी राजनीतिक दल और दलित-उत्थान के नाम पर उपजी बहुजन समाज पार्टी (बसपा) डेढ़ दशक बाद फिर से उत्तरप्रदेश को ब्राह्मण समाज को साधने हेतु दांव चला है। पार्टी राज्यभर में "प्रबुद्ध वर्ग संवाद सुरक्षा सम्‍मान विचार गोष्‍ठी" नामक श्रृंखला आयोजित कर रही है। यही नहीं, प्रदेश की अन्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी भी भगवान परशुराम के नाम पर आगामी दिनों में ऐसे ही सम्मेलनों का आयोजन करेगी। क्या यह इन दलों में ह्द्य-परिवर्तन का सूचक है? बसपा ने अपने इस राजनीतिक अभियान की शुरूआत 23 जुलाई को भगवान श्रीराम की जन्मस्थली अयोध्या से की है। तब बसपा अध्यक्ष मायावती के निकटवर्ती और पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव सतीश चंद्र मिश्र ने न केवल रामजन्मभूमि परिसर में रामलला के दर्शन किए, साथ ही हनुमानगढ़ी में पूजा-अर्चना के बाद सरयू नदी का दुग्धाभिषेक भी किया। यही नहीं, मिश्रा ने अपने भाषण का अंत में जय श्रीराम और जय परशुराम नारे से भी किया। यह पहली बार है जब अयोध्या में बसपा ने इस तरह का कार्यक्रम आयोजित किया है। ऐसे में स्वाभाविक हो जाता है कि बसपा की वैचारिक संकल्पना, उससे जनित नारों और पार्टी की राजनीतिक जीवन यात्रा पर प्रकाश डाला जाए। Read also झाग व जात में लौटी राजनीति! वास्तव में, चुनाव से कुछ माह पहले बसपा का श्रीराम और ब्राह्मण समाज के लिए एकाएक प्रेम उमड़ना विशुद्ध अवसरवाद का परिचायक है। स्वतंत्र भारत में श्रीराम के अस्तित्व को नकारने, उन्हें काल्पनिक बताने, तथ्यों को विकृत करके उनका चरित्रहनन करने और राममंदिर पुनर्निर्माण में अवरोध डालने वाले "सेकुलरिस्ट-वामपंथी-जिहादी कुनबे" को बसपा का राजनीतिक कारणों से प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन मिलता रहा है। क्या 2019 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा रामलला के पक्ष में निर्णायक फैसला देने से पहले बसपा ने राममंदिर के पक्ष में कोई आधिकारिक वक्तव्य दिया? पाठकों को शायद स्मरण नहीं होगा कि जब 1990 के दशक में रामजन्मभूमि का आंदोलन चरम पर था और रामसेवकों द्वारा 1992 में बाबरी ढांचा ढहा दिया गया था, तब भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ समाजवादी पार्टी (सपा) और बसपा ने उत्तरप्रदेश में गठजोड़ किया था। तब दोनों जातिवादी पार्टियां "मिले मुलायम कांशीराम, हवा हो गए जयश्रीराम" नारे के साथ चुनावी मैदान में उतरी थी। Mayawati On ATS Action Read also  ममता से है खूब झाग! विभिन्न कालखंड में भारत आए विधर्मियों और बाद में उनके मानसपुत्रों ने अपने सनातन विरोधी चिंतन के अनुरूप हिंदू समाज में व्याप्त सामाजिक बुराइयों (अस्पृश्यता सहित) के परिमार्जन बजाय इसे और अधिक गहरा करने का काम किया है। इसमें चर्च, ईसाई मिशनरियों, ब्रितानियों और वामपंथियों ने मुख्य भूमिका निभाई है। इस चिंतन के पुरोधाओं में से एक बसपा के संस्थापक कांशीराम भी थे, जिन्होंने अपने जीवनकाल में संविधान बाबा साहेब अंबेडकर के नाम पर चर्च प्रेरित हिंदू विरोधी मानसिकता को ही आगे बढ़ाया। मुझे स्मरण है कि रक्षा विभाग के डीआरडीओ में बतौर वैज्ञानिक सहायक पद तैनात कांशीराम जी ने त्यागपत्र देकर 1970 के दशक में अनुसूचित-जाति, अनुसूचित-जनजाति, पिछड़े और मतांतरित अल्पसंख्यकों को संगठित करने हेतु "बामसेफ" नामक संस्था की स्थापना की थी, जिसका घोषित शत्रु ब्राह्मण समाज था। इसके पश्चात 1981 में कांशीराम ने "दलित शोषित समाज संघर्ष समिति" अर्थात् "डीएस-फोर" की नींव रखी। तब कांशीराम ने एक और विवादित नारा दिया था, "ठाकुर, ब्राह्मण, बनिया छोड़, बाकी सब हैं डीएस-फोर"। इसी कालक्रम में वर्ष 1984 को कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की, जो आज ब्राह्मण समाज की "सच्ची हितैषी" होने का दावा कर रही है। तब कांशीराम और उनकी पार्टी से अपनी राजनीतिक जीवनयात्रा की शुरूआत करने वाली बसपा की वर्तमान अध्यक्ष सुश्री मायावती ने "तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार" नारा दिया। इस प्रकार के विषैले और घृणास्पद नारों से 1980-90 के दशक में बसपा ने अपनी राजनीतिक पहचान पाई। इन चर्च प्रेरित नारों का उद्देश्य मतांतरण को बढ़ावा देना, दलितों को शेष हिंदू समाज से विभक्त करना और उनमें अविश्वास की दरार को अधिक गहरा करना था। चूंकि बदलते समय अर्थात्- सोशल मीडिया के प्रारंभिक दौर में दीर्घकालीक राजनीतिक स्वार्थ की प्राप्ति हेतु ऐसा जहरीला नारा निष्फल था, तब 2007 में मायावती के नेतृत्व में बसपा ने पुराने नारे बदलकर "हाथी नहीं गणेश हैं, ब्रह्मा विष्णु महेश हैं" कर दिया। इसका लाभ मायावती को तुरंत मिला और वह उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री बन गई। किंतु भ्रष्टाचार (आय से अधिक संपत्ति) के आरोपों, पैसों के बदले पार्टी टिकट को बांटने और 'ब्रह्मा-विष्णु-महेश' की उपेक्षा (राम मंदिर पुनर्निर्माण के प्रति उदासीनता सहित) ने बसपा की लुटिया डूबो दी, जिससे वह अबतक उभर नहीं पाए है। Read also घटनाओं के आगे लाचार मोदी बात केवल बसपा तक सीमित नहीं है। सपा भी भगवान परशुराम के नाम पर ब्राह्मणों को लामबंद कर रही है। हिंदू समाज से इस प्रकार का संवाद हास्यास्पद ही प्रतीत होता है, क्योंकि जिस पार्टी ने 1990 में अपने कार्यकाल के दौरान रामभक्त कारसेवकों पर गोलियां चलवाई और हाल ही में राम-मंदिर पुर्निर्माण हेतु व्यापक दान-अभियान का उपहास किया हो- वह ब्राह्मण समाज के हितों की रक्षा करने संबंधी दावों की होड़ कर रही है। ऐसा करने वाले शायद भूल रहे है कि भगवान राम और परशुराम में तात्विक रूप से एक ही है, क्योंकि दोनों ही करोड़ों हिंदुओं के विश्वास के अनुसार, भगवान विष्णु के अवतार हैं। अकाट्य सच तो यह है कि जब से भाजपा के शासनकाल में अयोध्या स्थित श्रीराम के मंदिर की आधारशिला रखी गई है, तब से भगवान परशुराम बसपा-सपा आदि विपक्षी दलों के लिए आदर्श हो गए हैं। क्या इससे पहले इतनी मुखर उत्सुकता इन दलों ने कभी दिखाई? वास्तव में, उत्तरप्रदेश की योगी सरकार से ब्राह्मणों के तथाकथित मोहभंग का नैरेटिव बुनने के लिए हिंदू विरोधी कुनबा- कानपुर के कुख्यात अपराधी विकास दुबे की पुलिसिया मुठभेड़ में मौत और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के ठाकुर पृष्ठभूमि को आधार बना रहा है। ऐसा करने वाली सेकुलरिस्ट-वामपंथी-जिहादी जमात वही है, जिनका 18 अक्टूबर 2019 को लखनऊ स्थित ब्राह्मण नेता कमलेश तिवारी के हत्यारों, 1989-91 में घाटी स्थित सैकड़ों कश्मीरी पंडितों को मौत के घाट उतारने वालों, देश-विदेश में आए दिन आतंकवादी हमले करने वालों और हाल ही पत्रकार दानिश सिद्दीकी की निर्मम हत्या करने वाले तालिबानियों की मजहबी पहचान करने में दम फूल जाता है। यह कुनबा अक्सर ब्राह्मणों को कलंकित करने हेतु मनुवाद को आधार बनाता है, किंतु इस्लामी आतंकवाद को प्रोत्साहित करने वाले दर्शन-साहित्य-वांग्मय को उद्धृत करने से बचता है। क्यों? Read also घबराहट में भाजपा के प्रदेश नेता देश के इस विकृत वर्ग द्वारा राष्ट्रीय स्वयंसवेक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत द्वारा दिए हालिया वक्तव्य, "सभी भारतीयों का डीएनए एक है, चाहे वे किसी भी मजहब के हों। हिंदू-मुस्लिम एकता भ्रामक है, क्योंकि वे अलग-अलग नहीं, बल्कि एक हैं"- को उत्तरप्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव से जोड़ रहे है। क्या संघ ने ऐसा वक्तव्य पहली बार दिया है? संघ का अपरिवर्तित विचार रहा है कि भारतीय उपमहाद्वीप में जन्मे सभी लोग इस भूखंड की संतानें है, जिनकी जड़ें यहां की मूल सनातन संस्कृति में मिलती है। उनका वैचारिक विरोध केवल उन दर्शनों-विचारधाराओं के विरुद्ध है, जो देश के समावेशी-सहिष्णु समाज, बहुलतावाद, पंथनिरपेक्षता और लोकतंत्र को खोखला करना चाहते है। Read also कांग्रेस भी घर ठीक कर रही है स्वाभाविक है कि कोई भी सुधी पाठक यह प्रश्न पूछ सकता है कि भाजपा और दूसरी तरफ सपा-बसपा के "जयश्रीराम"-"जयपरशुराम" में अंतर क्या है? भाजपा के लिए अपनी स्थापना से राम मंदिर का पुनर्निर्माण राजनीति का नहीं, अपितु आस्था का विषय रहा है। श्रीराम का व्यक्तित्व भील-शबरी से लेकर समाज के अन्य सभी वर्गों को समरसता के साथ जोड़ने वाला है। दूसरी ओर, सपा-बसपा का तथाकथित ब्राह्मण-प्रेम (बसपा द्वारा रामनगरी अयोध्या में सम्मेलन सहित) उस विकृत "सेकुलर" दर्शन के अनुरूप है, जिसमें हिंदू समाज को जाति के आधार पर विभाजित और मुस्लिमों को इस्लाम या संबंधित मजहबी विश्वास के नाम पर एकजुट किया जाता है। "मुस्लिम-यादव (एम.वाय)" समीकरण और "दलित-मुस्लिम" गठजोड़ का दावा इसके उदाहरण है। अब जो लोग राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति हेतु और वैचारिक कारणों से आतंकवादियों-अलगाववादियों के समर्थन में खड़े होते है, उनके द्वारा न तो ब्राह्मण समाज की और ना ही शेष हिंदू समाज के भले या उत्थान की अपेक्षा की जा सकती है।  
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