बेबाक विचार

उंगलियों के पोरों से बहती क्रांति के युग में

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उंगलियों के पोरों से बहती क्रांति के युग में
विकास दुबे को तो मारा जाना ही था। आज नहीं तो कल। अगर कोई इतने पुलिस वालों को मार देने की घटना का केंद्रीय पात्र हो तो वह कितने दिन अपनी जान बचा सकता है? जो भी ऐसा करेगा, भरेगा। इसमें कौन-सा मानव-अधिकार? अगर अपराधियों के मानवाधिकार हैं तो सुरक्षाकर्मियों के भी मानवाधिकार हैं। इसलिए एक ऐसे व्यक्ति के अंत पर दीदे बहाने का कोई मतलब नहीं है, जो अलग-अलग राजनीतिकों और प्रशासनिक अफ़सरों के बूते इतना बेख़ौफ़ हो गया था कि सारी व्यवस्था को अपने ठेंगे पर रख कर घूम रहा था। अगर बिकारू जैसे बित्ते भर के गांव से निकल कर दस बरस के भीतर कोई विकास दुबे अरबपति भी बन जाए और उसका गब्बरपन भी सारी हदें पार करने लगे तो आख़िर एक-न-एक दिन तो उसका यह अंजाम होना ही था। इसलिए जिन्हें अब उससे ज़रा सहानुभूति जैसी हो रही है, मुझे उन पर तरस आ रहा है। उसके लिए मन गीला करने वाले उससे कम बड़े खलनायक नहीं हैं। वह किसी के आंसुओं का हक़दार नहीं है। आंसू तो बहने चाहिए उस व्यवस्था पर, जो विकास दुबेओं को जन्म देती है, पालती-पोसती है, इस्तेमाल करती है और चूस लेने के बाद थोथे की तरह उड़ा देती है। मन तो गीला होना चाहिए व्यवस्था के उस पतन पर, जिसके चलते दुर्बुद्धि से सने विकास दुबेओं को लगने लगता है कि वे नियामक हो गए हैं, वे नियंता हो गए हैं और अपनी मनमानी कर सकते हैं। आख़िर बिना डोर के पतंगें आसमान में कितनी ऊंचाई तक जा सकती हैं? इस डोर की घिर्री किसी के तो हाथों में होती है! सो, हमें दीदे बहाने चाहिए यह सोच कर कि हमेशा पतंगें कट जाने के बाद किस्सा ख़त्म क्यो हो जाता है और घिर्रियां थामे हाथ कैसे बचे रह जाते हैं? विकास दुबे ‘मुठभेड़ों’ में मरते रहे हैं। वे आगे भी ‘मुठभेड़ों’ में मरते रहेंगे। अब तो बच्चे भी इन ‘मुठभेड़ों’ की पटकथाएं रट चुके हैं। हालात ऐसे हो गए हैं कि सच्ची मुठभेड़ों को भी सच्चा मानने के लिए लोगों का मन अब आसानी से राजी नहीं होता है। राज्य-व्यवस्था के मनचाहे संचालन के लिए हमने अपनी पुलिस-व्यवस्था की साख को उस निचली सीढ़ी पर ले जा कर बैठा दिया है, जहां पांव-पोंछ पड़ा रहता है। ‘मुठभेड़ों’ की फूहड़ता ने पिछले दो-एक दशक में पुलिस की पगड़ी को जितना शर्मसार किया है, उतना उसके बाकी किसी दंद-फंद ने नहीं। समय-समय पर हमारी अलमारियों से निकलने वाले विकास दुबेओं के कंकाल अपराध-शास्त्र की विवेचना का विषय भले हों, मगर दरअसल समीक्षा तो उनके राजनीति शास्त्र की होनी चाहिए। तमाम विकास दुबेओं का अपना समाजशास्त्र है। उनका अपना अर्थशास्त्र है। वे सब हमारे जनतंत्र को चलाने वाली चुनाव प्रणाली की उपज हैं। चूंकि चुनाव होते हैं, इसलिए अपने पसंदीदा लठैतों की ज़रूरत होती है। इसलिए अपने पसंदीदा अफ़सरों की ज़रूरत होती है। इसलिए अनैतिक और अवैध ज़रियों से होने वाली कमाई की ज़रूरत होती है। माचिस की इस डिब्बी में विकास दुबे तो एक तीली भर है। हालांकि अपवाद शब्द अब हमारे शब्दकोश से विदा ले चुका है, मगर सामाजिक लिहाज़ बरतते हुए हम अपवादों को छोड़ भी दें तो किसे नहीं मालूम कि हर राजनीतिक दल अपनी ही सरकार क्यों बनाना चाहता है? हर राजनीतिक मुख्यमंत्री, मंत्री, सांसद, विधायक और सरपंच तक सब ख़ुद ही क्यों बनना चाहता है? हर अफ़सर की नज़र चंद महकमों, ज़िलों और थानों पर ही क्यों लगी रहती है? अगर राजनीतिक व्यवस्था नमामि गंगे है और अगर प्रशासनिक व्यवस्था लोकतंत्र के मंदिर का प्रक्षाल करने के लिए है तो फिर राजनीति और प्रशासन में लार-टपकाऊ नदीदों को ही सब-कुछ क्यों मिल रहा है? हम माल्याओं, चौकसियों, ललितों, नीरवों, सोनियों, वाधवानियों और दुबेओं जैसे मगरमच्छों और पिद्दियों के किस्से तो समय-बिताऊ अंतराल में अपने स्नानागार में पढ़ कर भी ख़ुद को गुदगुदा लेंगे। मगर अध्ययन कक्ष में बैठ कर संजीदगी से पढ़े-गुने जाने वाले विषयों पर हम कब ग़ौर करेंगे? एक-दूसरे को गिराने की टप्पेबाज़ी में ही हम इतने मशगूल हैं कि हमारा ध्यान प्रजातंत्र की नींव में उसका स्थायी-भाव बन कर बैठ गई उस सीलन की तरफ़ जाता ही नहीं है, जिसने दीमक के ढूहों का अंबार लगा दिया है। दिल पर हाथ रख कर बताइए कि पिछले छह साल में चुनावों में धन का इस्तेमाल बढ़ा है कि घटा है? चुनावों में प्रशासनिक एजेंसियों का इस्तेमाल बढ़ा है कि घटा है? चुनावों में हेराफेरी के शुबहे बढ़े हैं कि घटे हैं? चुनावों में समुदाय और बिरादरीवाद बढ़ा है कि घटा है? चुनावों में सामूहिक और व्यक्तिगत नफ़रत की हवाएं तेज़ हुई हैं या धीमी पड़ी हैं? चुनावों में मीडिया की भूमिका पहले से सकारात्मक हुई या नकारात्मक हुई है? बहुमत आधारित जनतंत्र का रहनुमा बनने के लिए तिकड़मों का फूहड़पन बढ़ा है या घटा है? अगर हमारी प्रशासनिक व्यवस्था इतनी ही निष्पक्ष है, जितना कि उसे होना चाहिए तो हर नई सरकार को आते ही सबसे पहले सैकड़ों अधिकारियों-कर्मचारियों के स्थानांतरण क्यों करने पड़ते हैं? क्यों यह ज़रूरी है कि देष की तमाम महत्वपूर्ण प्रशासनिक इकाइयों के अहम पदों पर प्रधानमंत्री के राज्य से आने वाले अफ़सर ही तैनात हों? अगर हम शासन-प्रशासन की स्वायत्तता और गरिमा पर इतना ही गर्व करते हैं तो हमें यह सब करने की ज़रूरत क्यों पड़ती है? इसलिए चूं-चूं के मुरब्बों के बहाने पूरे विमर्श को दिग्भ्रमित करने की कोशिशों से क्या होगा? हर चार दिन बाद किसी-न-किसी सनसनी की आड़ में हमारे हुक़्मरान चार-चार दिन करके हमारे चार साल निकाल देते हैं। और, फिर आ जाता है पांचवा साल। उस साल हम अपने लिए एक नया रहनुमा चुनने की रंगोली बनाते हैं। चूंकि किसी विकल्प को हमारे सामने आकार लेने ही नहीं दिया जाता है, सो, हमें समझा दिया जाता है कि विकल्प चूंकि है नहीं, तो जो चल रहा है, वही सर्वश्रेष्ठ है। बुनियादी मसलों पर बात हो तो विकल्प दिखें! असली मुद्दों पर ध्यान जाए तो वैकल्पिक राहें नज़र आएं! जब पूरे कुएं में रोज़मर्रा के लतीफ़ों, बहसों, सनसनियों और ख़ुराफ़ातों की भांग पड़ी हो तो काहे के विकल्प? तो हुकूमत तो अपना काम कर रही है। ‘वि-पक्ष’ की विद्वत परिषद ने ख़ुद को ‘वि-रोध’ मान लिया है। यह भान ही कहीं गुम हो गया है कि उसे तो ‘वि-कल्प’ बनना है। सो, पूरा संग्राम आभासी-संसार में लड़ा जा रहा है। असत्यनारायण कथा का एक अध्याय सरकार शुरू करती है और विपक्ष के योद्धा अपनी-अपनी ट्विटर-तोपें ले कर गोले दागने लगते हैं। इसी के साथ सूर्योदय होता है और इसी के साथ सूर्यास्त हो जाता है। इसलिए जिन्हें मरना है, उन्हें मरने दीजिए। उनके मरने में जिनका जीवन छिपा है, उन्हें जीने दीजिए। जीवन-मरण का यह खेल ऐसे ही चलने दीजिए। टुकुर-टुकुर देखते रहने के अलावा हमारे पास चारा भी क्या है? हम डिजिटलयुगीन हो गए हैं। हमारा सारा पराक्रम अब भुजाओं में नहीं, उंगलियों के पोरों पर हैं। हम फेसबुक बिछाते हैं। हम इंस्टाग्राम ओढ़ते हैं। हम ट्वीट दागते हैं। हम मैदानी रहे ही कहां हैं? हम जिन लेज़र किरणों से सुसज्जित हैं, वे और कुछ भी कर सकती हों, हमारी ज़मीन की गुड़ाई नहीं कर सकतीं। और, बिना गुड़ाई के नई फ़सल हम बो नहीं सकते।  (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)
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