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वात्स्यायन जी (अज्ञेय) और दिल्ली

कवि अज्ञेय ने अपने अंतिम वर्ष में एक लंबी कविता लिखी थी ‘घर’, जिस में यह पंक्तियाँ भी थीं: ‘‘घर/ मेरा कोई है नहीं/ घर मुझे चाहिए…’’। इस में रूपक और दर्शन, दोनों की अद्भुत प्रस्तुति थी। पर स्थूल रूप से उन के संपूर्ण जीवन पर सरसरी नजर डाल कर दिखता है कि उन का डेरा, या ठौर-ठिकाना सब से अधिक समय और सब से अधिक प्रकार के डेरों में दिल्ली ही रहा। अपने क्रांतिकारी जीवन के आरंभ में, जब वे मात्र उन्नीस वर्ष के थे, तब भी वे दिल्ली में थे, फिर दिल्ली जेल में रहे, और अंततः जीवन के अंत में भी चाणक्यपुरी में उन का निवास था जहाँ उन्होंने अंतिम साँस ली।

सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन, अथवा कवि अज्ञेय ने अपने अंतिम वर्ष में एक लंबी कविता लिखी थी ‘घर’, जिस में यह पंक्तियाँ भी थीं: ‘‘घर/ मेरा कोई है नहीं/ घर मुझे चाहिए…’’। इस में रूपक और दर्शन, दोनों की अद्भुत प्रस्तुति थी। पर स्थूल रूप से उन के संपूर्ण जीवन पर सरसरी नजर डाल कर दिखता है कि उन का डेरा, या ठौर-ठिकाना सब से अधिक समय और सब से अधिक प्रकार के डेरों में दिल्ली ही रहा। अपने क्रांतिकारी जीवन के आरंभ में, जब वे मात्र उन्नीस वर्ष के थे, तब भी वे दिल्ली में थे, फिर दिल्ली जेल में रहे, और अंततः जीवन के अंत में भी चाणक्यपुरी में उन का निवास था जहाँ उन्होंने अंतिम साँस ली।

वात्स्यायन जी 18 वर्ष की आयु में लाहौर में क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद की टोली से जुड़े थे। उन का सक्रिय क्रांतिकारी जीवन सरदार भगत सिंह को जेल से छुड़ाने की योजना में भाग लेने से शुरू हुआ था। वात्स्यायन जी उस ट्रक के ड्राइवर थे, जिस में भगत सिंह को लेकर भागना था। पर किसी अंदरूनी मुखबिर के कारण वह योजना विफल हो गई। (आजाद को मुखबिरी का संदेह यशपाल, जो बाद में जो एक प्रसिद्ध वामपंथी लेखक हुए पर था)। उस के बाद आजाद के निर्देश पर वात्स्यायन जी ने 1930 में दिल्ली में बम बनाने की एक गुप्त फैक्टरी स्थापित की, जिस का ऊपरी नाम सौदर्य-प्रसाधन बनाने का ‘हिमालयन टॉयलेट्स’ था। तब क्रांतिकारी टोली में वात्स्यायन जी को ‘साइंटिस्ट’ कहा जाता था, क्योंकि वे साइंस के विद्यार्थी रहे थे और बम बनाने की तकनीक जानते थे। वह गुप्त फैक्टरी ठीक दिल्ली सदर थाने के सामने थी।

पर उसी वर्ष वात्स्यायन जी गिरफ्तार हो गए। उन्हें दिल्ली जेल में रखा गया था। तब यह जेल दिल्ली गेट के पास थी। वहीं वे लगभग चार वर्ष रहे और मुकदमा चला। उस दिल्ली जेल में ही, जब उन्हें मृत्युदंड संभावित था, उन्होंने ‘शेखर: एक जीवनी’ उपन्यास लिखा। फिर 1933 में वे मुलतान जेल भेज दिए गए, और बाद में रिहा हुए। इसी बीच उन की रचनाएं छिपा कर जेल से बाहर आने लगी। तब लेखक का नाम गोपन रखने के लिए जैनेन्द्र कुमार और प्रेमचंद ने मिलकर वात्स्यायन जी को लेखकीय नाम ‘अज्ञेय’ दिया। यद्यपि उन्हें यह नाम रुचा नहीं था, फिर भी वे जीवन भर कवि रूप में इसी नाम से जाने गए। किन्तु गद्य रचनाओं में वे सदैव लेखक के रूप नें सच्चिदानन्द वात्स्यायन ही लिखते थे।

फिर 1942 ई. में वात्स्यायन जी आकाशवाणी दिल्ली में काम करते थे। सिविल लाइन्स के मेडन्स होटल के पास श्रीराम रोड पर निवास था। वहाँ से प्रायः पैदल आकाशवाणी जाते थे। तब उन के साथ नीरद सी. चौधरी, जो भी बाद में विश्वप्रसिद्ध लेखक हुए, भी आकाशवाणी में काम करते थे। उन का निवास भी उसी निकट था, और प्रायः वे पैदल चलते एक दूसरे को दिख जाते थे। उसी वर्ष वात्स्यायन जी ने दिल्ली में ‘अखिल भारतीय एंटी-फासिस्ट कांफ्रेस’ आयोजित की। किन्तु यह काफी नहीं लगा। तब द्वितीय विश्व-युद्ध में फासिज्म के विरुद्ध लड़ने के उद्देश्य से वात्स्यायन जी सेना में भर्ती हो गए। फिर वे तीन वर्ष तक बर्मा मोर्चे पर रहे। फासिज्म की पराजय के बाद उन्होंने सेना की सेवा छोड़ दी।

पुनः वात्स्यायन जी दिल्ली में 1950-58 के बीच रहे। इस दौरान वे अंग्रेजी त्रैमासिक ‘वाक्’ का संपादन करते मिलते हैं। इसी बीच उन की  कपिला मलिक से निकटता हुई। इस अवधि में अज्ञेय के पत्रों में उन के दिल्ली के विविध डेरे फैज बाजार रोड, फिरोजशाह रोड, रूप नगर, अंसारी रोड,एवं  सुंदर नगर पतों पर मिलते हैं। फिर उन का निवास 1958-64 तक मोती बाग और सत्य मार्ग पर रहा, संभवतः अपनी पत्नी कपिला वात्स्यायन जी के साथ, जो तब केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय में एक अधिकारी  थीं। उन से 1956 में विवाह हुआ था। दोनों  चौदह वर्षों तक साथ रहे। फिर अलग हो गए, यद्यपि कभी विवाह-विच्छेद नहीं किया।

1965 में वात्स्यायन जी ने दिल्ली से टाइम्स समूह का समाचार-विचार साप्ताहिक ‘दिनमान’ आरंभ किया, जो अपने युग का कीर्तिमान बना। ऐसा कि उस के अनुकरण में अनेक अंग्रेजी पत्रिकाएं आईं। वे पाँच वर्ष तक ‘दिनमान’ में रहे। फिर जयप्रकाश नारायण के आग्रह पर 1972-74 के बीच अंग्रेजी पत्रिका ‘एवरीमैन’ का संपादन किया। तब वे वसंत विहार में रहते थे। इस के बाद 1974 में उन्होंने अपनी साहित्य पत्रिका पुनः ‘नया प्रतीक’ नाम से शुरू की। इस समय पता राऊज एवेन्यू मिलता है। फिर 1976-77 के बीच गोल्फ लिंक में भी उन का निवास था।

वर्ष 1977 के आरंभ में एक दिन वात्स्यायन जी लक्ष्मीचंद्र जैन के साथ सीताराम गोयल के यहाँ दरियागंज में उन के ‘वॉयस ऑफ इंडिया’ गए।  वहीं से इकट्ठे होकर सभी  अजमेरी गेट पर जेपी व जगजीवन राम की ऐतिहासिक आम सभा सुनने गए थे। फिर 1977-1980 के बीच वात्स्यायन जी दिल्ली में दैनिक ‘नवभारत टाइम्स’ के भी संपादक रहे। उन्होंने हिन्दी पत्रकारिता को नई भाषा दी और अनेक नए शब्द भी दिए। तब वात्स्यायन जी का डेरा निजामुद्दीन वेस्ट में था।

अंत में वात्स्यायन जी 1981 से केवेन्टर्स ईस्ट, चाणक्यपुरी में रहने लगे। वहीं नीम के पेड़ पर एक कमरा भी बनाया था। जिस दिन,  4 अप्रैल 1987, उस में प्रवेश एवं काव्य-पाठ होना था, उसी प्रातः हृदयाघात से वात्स्यायन जी अनन्त की यात्रा पर चले गए।

आजीवन गतिमान वात्स्यायन जी का जीवन विपुल अनुभवों से भरता रहा। वे गति, लय, और सत्य के अनन्य प्रेमी थे। जो उन की कविता और गद्य में गहनता से भरा है। सागर और पहाड़ उन की आत्मा में बसते थे। पर संयोगात् उन्होंने अपना सर्वाधिक काम दिल्ली से ही किया। वे नए रचनाकारों की मदद करते थे। उन्होंने ही चित्रकार सतीश गुजरात की पहली प्रदर्शनी लगवाई थी।

नये रचनाकारों के साथ वात्स्यायन जी के संबंध पर कवि दिनकर का एक रोचक प्रसंग है। तब दिनकर जी राज्य-सभा सदस्य थे। वे प्रातः सैर करते हुए  कभी-कभी अज्ञेय के यहाँ चले जाते। फिर चाय-नाश्ते बाद वात्स्यायन जी उन्हें गाड़ी से घर छोड़ आते। यह 1958-64 के बीच की बात होगी। दिनकर ने अपनी कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद में भी अज्ञेय का सहयोग माँगा और पाया था। एक बार सुबह-सुबह दिनकर गंभीर मुद्रा में वात्स्यायन जी से पूछने आए कि युवा रचनाकारों में अज्ञेय इतने प्रभावी क्यों हैं? पर उत्तर से संतुष्ट नहीं हुए। फिर दिनकर जी ने एक बार बड़ी व्यग्रता से पूछा, “हम यह जानना चाहते हैं कि तुम में इतना आत्मविश्वास कैसे है? … तुम्हारा कस कर विरोध होता है, लेकिन तुम पर जैसे किसी बात का कोई असर नहीं है – तुम अपने रास्ते चले जा रहे हो। वह क्या चीज है – कहाँ से तुम को बल मिलता है – ईश्वर से या श्रद्धा से?” सवाल बड़ी गंभीरता से पूछा गया था।

उत्तर भी वात्स्यायन जी ने धीर-गंभीर भाव से दिया था:  ‘‘दिनकर जी, आपके सवाल का जबाव मैं नहीं जानता, सचमुच नहीं जानता। लेकिन जीवन हमेशा मेरे लिये बड़ी अचरज भरी चीज रहा है – एक के बाद एक अचरज और उस में से निकलने वाली कर्म-प्रेरणा जिस के मारे कभी फुर्सत ही नहीं मिली…. यही समझ लीजिए कि मुझे इतनी भी फुर्सत नहीं है कि दुर्बलता के आगे झुक सकूँ – इसी को आप स्ट्रेंग्थ कहते हैं तो ठीक है।’’

अपने अंतिम जन्म-दिवस, फाल्गुन शुक्ला सप्तमी पर वात्स्यायन जी ने मानो सांकेतिक आत्म-मूल्याकंन जैसा किया था, ‘‘काल की रेती पर/ हमारे पैरों के छापे?…’’। यह अंतिम कविता उन्होंने 7 मार्च 1987 को काठमांडौ, पशुपतिनाथ में भगवान  पशुपतिनाथ पर लिखी थी: ‘‘तीन आँखों से देखता है वह सारा विश्व…’’।

वस्तुतः कवि अज्ञेय भी अंदर-बाहर, अपनी दोनों आँखों से आजीवन भरपूर देखते और हृदय से अपना सर्वोत्तम देते रहे। ‘मेरी स्वाधीनता, सब की स्वाधीनता’ के अक्षुण्ण स्वातंत्र्य-बोध के साथ। ऐसे जीवन के धुनी गुरू-कवि को नित्य-स्मरण प्रणाम!

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