नेपाल हमारे राज्य गोवा की तरह हमेशा राजनीतिक अस्थिरता का शिकार रहा है। उसमें 58 साल में 45 सरकारे रही है। इनमें राजशाही का शासन भी शामिल था। दुनिया में नेपाल, चीन समेत पांचवा ऐसा देश है जहां वामपंथी सत्ता में है। उसकी सत्ता में भी उत्तरी कोरिया, क्यूबा, लाओस, वियतनाम और चीन की तरह कम्युनिस्ट हैं। याद दिला दें कि मई 2018 में नेपाल की दो बड़ी वामपंथी पार्टियों कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (एकीकृत माओवादी व लेनिनवादी) तथा कम्युनिस्ट पार्टी नेपाल (माओवादी केंद्र) ने मिलकर नेपाल की सरकार बनाई। पहली पार्टी के प्रमुख ओली व दूसरी के प्रमुख पुष्प कमल दहल प्रचंड थे। कुछ दूसरी छोटी मोटी वामपंथी पार्टियां भी सरकार में शामिल हुई थी व गठबंधन सरकार के 275 सदस्यीय सदन में 175 सीटे थी। मतलब दो-तिहाई बहुमत हासिल था।
यहां यह याद दिलाना जरूरी हो जाता है कि नेपाल की 30 फीसदी जनता भारतीय मूल के लोगों की है। जिन्हें मधेसी कहा जाता है। ये लोग काफी पहले भारत से नेपाल जा कर वहां के सीमावर्ती इलाको में बस गए थे। वे लोग लंबे अरसे से नेपाल के संविधान में अपने लिए ज्यादा अधिकार दिए जाने की मांग करते आए हैं। मगर उनकी नहीं सुनी गई। मधेसियो की पार्टी को संघीय समाजवादी पार्टी कहते हैं जो तीसरा सबसे बड़ा दल है। वहां कांग्रेस व भारतीय समाजवादी पार्टियो का काफी प्रभाव रहा व बाद में मधेसी पार्टी के बाबूराम भट्टाराई की पार्टी नवशक्ति पार्टी में विलय हो गया व उसे समाजवादी पार्टी कहते हैं।
उसका बाद में राष्ट्रीय जनता पार्टी में विलय हो गया जो अब जनता समाजवादी पार्टी कहलाती है। नेपाल की राजनीतिक प्रणाली बहुत जटिल है। वहां की 275 सीटो में से 165 सीटो पर सीधे चुनाव होते हैं व हर पार्टी को चुनाव में एक-एक अतिरिक्त वोट भी मिलता है जिससे कि अनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के तहत उसके बाकी उम्मीदवार जीतते है। 2018 के चुनाव में किसी भी दल को बहुमत न मिलने के कारण प्रचंड व ओली ने मिलकर दो तिहाई बहुमत हासिल करके अपनी सरकार बनाई थी।
हालांकि सही अर्थों में नेपाल अब कट्टर कम्युनिस्ट देश हो गया है। बावजूद इसके वहां महज सत्ता हासिल करने के लिए दो वामपंथी दल साथ आए। पहले यह तय हुआ था कि ओली व प्रचंड बारी-बारी से ढाई-ढाई साल तक प्रधानमंत्री रहेंगे। मगर इस ओली की कार्यकाल खत्म होने के बाद ओली ने कहा कि वे प्रधानमंत्री ही रहेंगे पर पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे देंगे। ध्यान रहे कि दोनो पार्टियों का विलय कर एक नई पार्टी सीपीएन या कम्युनिस्ट पार्टी आफ नेपाल बनी थी। ओली ने न तो प्रधानमंत्री पद से ही इस्तीफा दिया और न ही अध्यक्ष पद को छोड़ा।
देश के असली मुद्दों से लोगों का ध्यान हटाने के लिए उन्होंने राष्ट्रवाद का कार्ड खेलते हुए नेपाल का नया नक्शा जारी कर दिया। जिसमें मानसरोवर को जाने वाली लिपुलेख और लिम्पियाधुरा को नेपाल का हिस्सा होने का दावा किया गया है। बताते हैं कि इस कदम को उठाने के पीछे चीन का दिमाग काम कर रहा था। अंततः उन्होंने संसद ही भंग करवा कर नए चुनावो का ऐलान करवा दिया। अब कुछ दल इस मामले को नेपाल की सुप्रीम कोर्ट में ले गए।
अपने फैसले पर देश को संबोधित करते हुए ओली ने इसके लिए अपने ही दल के नेताओं को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा कि वो लोग उनकी सरकार को काम नही करने दे रहे हैं। देश की राजनीति परिणाम विहीन व बे-मतलब होती जा रही है। वे इसलिए सत्ता में नहीं रहना चाहते हैं। हर रोज विरोधी नए विवाद खड़े कर रहे हैं। वे इन लोगों से अकेले में कोई गलत समझौता नहीं करना चाहते थे अतः उन्होने संसद को भंग करवाने का फैसला किया है।
नेपाल में जो होगा वह तो वे ही जाने मगर हम भारतीयों को सबसे बड़ी चिंता यह है कि इस सबका हमारे व नेपाल के संबंधों पर क्या प्रभाव पड़ेगा? दोनों देशों के बीच आई खाई और गहरी तो नहीं हो जाएगी? जब ओली ने काला पानी व लिपुलेख को अपनी जगह बताया था तब उनकी अपनी पार्टी के नेताओं तक ने उनके इस काम की आलोचना की थी क्योंकि भारत द्वारा कैलाश मानसरोवर की यात्रा के लिए बनाई गई सड़क का सबने स्वागत ही किया था तब ओली ने भारत तक को नहीं बख्शा व यहां तक कहा था कि भारत उनकी सत्ता को बेदखल करना चाहता है व इसके लिए उसने नई सड़क का निर्माण किया है। इसके बाद उनकी अपनी सत्तारूढ़ पार्टी के नेता तक उनके इस्तीफे की मांग करने लगे थे।
तब पुष्प कमल दहल ने कहा कि ओली का यह बयान दोनों देशों के रिश्तो को खराब करने वाला है। उन्हें अपने दावे के सबूत देने चाहिए। माधव नेपाल आदि नेताओं ने भी उनकी जमकर आलोचना की। शुरू में चीनी प्रतिनिधियों ने नेपाल के विभिन्न नेताओं से मुलाकात कर इस विवाद को सुलझाने की कोशिश की थी मगर वह असफल रहा। ओली ने विपक्ष के नेता व नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष शेर बहादुर से मुलाकात कर अपनी सरकार बचाने के लिए समर्थन मांगा था मगर वे असफल ही रहे। नेपाल के साथ हमारे रोटी बेटी के संबंध है। सीता तो खुद नेपाल की ही थी। दोनों देश के बीच न तो कोई पासपोर्ट की व्यवस्था है और ना ही नेपाली नागरिकी को सेना से लेकर अन्य किसी भी सरकारी नौकरी करने पर कोई रोक है मगर अब हालात बदल रहे हैं। नेपाल अब भारत से बहुत दूर चला गया है।