बेबाक विचार

यूपीए तब प्रभावी था पर अब?

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यूपीए तब प्रभावी था पर अब?
हाल ही में मुंबई में ममता बनर्जी ने पत्रकारों के एक सवाल के जवाब में कहा कि यूपीए या संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन है कहां?... पर ममता बनर्जा यूपीए के कारण ही बनी थी और 2004 में अस्तित्व में आते ही केंद्र में उसकी सरकार बनी। तब के लोक सभा चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी लोकसभा चुनाव हार गए व कांग्रेस को उनसे दो सीटें ज्यादा मिली। अतः 22 मई 2004 को डा मनमोहन सिंह के नेतृत्व में पहली यूपीए सरकार बनी तो वह दस साल चली। UPA congress mamta banerjee समय कितनी तेजी से बदलता है! एक समय था जब देश भर के राजनीतिक दल कांग्रेस को अपना सबसे बड़ा दुश्मन मान उसके खिलाफ एकजुट हो रहे थे। इसके चलते 1977 में जनता दल अस्तित्व में आया और देश के तमाम विपक्षी दलों ने इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस के खिलाफ एकजुट होकर उन्हें पराजित कर सत्ता से बाहर किया। अब 44 साल बाद पुनः वैसा ही प्रयोग किया जा रहा है। कोशिश चल रही है। अंतर सिर्फ इतना है कि आज विपक्षी दल कांग्रेस की जगह नरेंद्र मोदी व अमित शाह के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी को अपना असली दुश्मन मान एकजुट होकर उन्हें चुनौती देने की कोशिश कर रहे हैं। दूसरी अहम बात यह है कि तब इंदिरा गांधी व कांग्रेस के खिलाफ विपक्ष का असली मुद्दा आपात्काल के दौरान उनकी सरकार द्वारा की गई मनमानी थी। इस बार विपक्ष भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी को अपना सबसे बड़ा दुश्मन मान रहा है। उन्हें सत्ता से हटाने के लिए एकजुट होने की कोशिश कर रहा है। मगर 1977 से लेकर आज तक जितनी भी विपक्षी एक साथ आए तब चुनाव से पहले कभी किसी घटक दल को किसी अन्य घटक को अपना निशाना बनाते हुए इस तरह के एकता प्रयोग पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया। मगर इस बार तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी व विपक्षी एकता की सबसे बड़ी घटक कांग्रेस व उसकी अध्यक्षा को 10 साल तक केंद्र में राज्य करने वाली कांग्रेस पर सवालिया निशान लगा दिया। हाल ही में मुंबई में उन्होंने पत्रकारों के एक सवाल के जवाब में कहा कि यूपीए या संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन है कहां? वहीं उनके नए सलाहकार प्रशांत किशोर ने कांग्रेस पर हमला करते हुए कह डाला कि जो पार्टी 90 फीसदी चुनाव हार चुकी हो उसे गठबंधन के नेतृत्व की बात सोचनी क्यों चाहिए? वैसे भी किसी गठबंधन का नेतृत्व करना कांग्रेस का एकाधिकार नहीं। याद दिला दे कि ममता बनर्जी आगामी लोकसभा चुनाव के पूर्व भाजपा विरोधी विपक्षी दलों का गठबंधन बनाने की कोशिश में राकापा नेता शरद पवार बातचीत करने के लिए मुंबई गई थी। उनकी इस टिप्पणी के बाद पिछले कुछ दशकों में बनाए गए विपक्षी गठबंधनों की याद ताजी हो जाती है। उनकी इस बात में कितना दम है कि यूपीए है कहां? यह आने वाला समय ही बताएगा। अगर हम सत्तारुढ़ दल व सरकार के खिलाफ विपक्षी एकता पर नजर डाले तो पता चलता है कि 1977 में इसका प्रयोग जनता दल के गठन से हुआ था फिर जनता दल संयुक्त मोर्चा आदि बने मगर पहली बार 2004 में यूपीए अस्तित्व में आया था व केंद्र में उसकी सरकार बनी। तब के लोक सभा चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी लोकसभा चुनाव हार गए व कांग्रेस को उनसे दो सीटें ज्यादा मिली। अतः 22 मई 2004 को डा मनमोहन सिंह के नेतृत्व में पहली यूपीए सरकार बनी। उनके साथ राकांपा प्रमुख शरद पवार, राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव, लोजपा अध्यक्ष रामविलास पासवान, डीएमके नेता टीआर बालू, दयानिधि मारन, ए राजा व पीएमके प्रमुख एम रामदास के बेटे अनुमणि रामदास ने भी मंत्रीपद की शपथ ली। मगर दो साल के अंदर ही यूपीए के टूट के लक्षण दिखायी देने लगे। महज 2006 में टीआरएस ने अलग तेलंगाना की मांग शुरु कर दी व तत्कालीन श्रममंत्री के चंद्रशेखर अपने साथी नरेंद्र के साथ सरकार से अलग हो गए। अगले ही साल 2007 में एमडीएमके प्रमुख वाइको ने सरकार से अलग होने की घोषणा कर दी। सरकार को सबसे बड़ा झटका अगले साल 2008 में तब लगा कि वामपंथी दलों ने भारत-अमेरिका परमाणु करार का विरोध करते हुए सरकार को दिया जाने वाला समर्थन वापस ले लिया। उस समय अविश्वास प्रस्ताव का सामना करने वाली मनमोहन सिंह सरकार ने मुलायमसिंह की समाजवादी पार्टी को पटाया था। हालांकि कांग्रेस ने उन्हें कभी अहमियत नहीं दी। कांग्रेस ने उन्हें 2004 में यूपीए में शामिल होने का निमंत्रण नहीं दिया मगर अमर सिंह ने एक अहम भूमिका अदा करते हुए अपने दल के सांसदों से सरकार के पक्ष में मतदान करवा कर उसे बचा लिया। वामपंथी दल सीपीएम, सीपीआई, आरएसपी व फारवर्ड ब्लाक कांग्रेस की सरकार में शामिल न होकर बाहर से समर्थन देते रहे। Read also डर से ज्यादा सावधानी की जरूरत common opposition is UPA मुलायम सिंह  यह बात नहीं भूले कि जब हरकिशन सिंह सुरजीत विपक्ष को एक कर सरकार बनाने की कोशिश कर रहे थे व इस काम में 14 राजनीतिक दलों के साथ लाने में कामयाब हो गए तब कांग्रेस द्वारा आयोजित पार्टी में कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी व अजीत सिंह के रालोद को आमंत्रित नहीं किया था हालांकि इस पार्टी में यह दोनों नेता हरकिशन सिंह सुरजीत के निमंत्रण पर हिस्सा लेने पहुंच गए। मगर बाद में अमरसिंह व मुलामय सिंह ने सरकार को बचा लिया। बाद में जम्मू कश्मीर के विधानसभा चुनाव के कारण पीडीपी व तमिलनाडु के विधान सभा चुनाव के कारण 2009 में पीएमके यूपीए से अलग हो गई व यूपीए के अन्नाद्रमुक के साथ मिलकर तमिलनाडु में कांग्रेस द्रम्रुक गठबंधन के खिलाफ चुनाव लड़ा व जम्मू कश्मीर में पीडीपी ने कांग्रेस व नेशनल कान्फ्रेंस के गठबंधन के खिलाफ चुनाव लड़ा। मगर 2009 में तब चमत्कार हुआ जब कांग्रेस ने 206 सीटें जीत पुनः केंद्र में यूपीए की सरकार बनायी। पिछली बार से ज्यादा सीटे जीतने के बावजूद कांग्रेस और ज्यादा बहुमत चाहती थी। इसे यूपीए-2 सरकार कहा जाने लगा। इस बार कांग्रेस ने ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस, नेशनल कान्फ्रेंस, राकांपा, द्रुमुक व आईयूएमएस को भी सरकार में शामिल करा लिया। इस बार उसे वामपंथी दलों का समर्थन नहीं मिला। लालू व रामविलास पासवान ने बिहार में गठबंधन बनाते समय कांग्रेस की उपेक्षा कर दी अतः वे भी सरकार में शामिल नहीं हुए। हालांकि राजद, सपा व बसपा ने कांग्रेस को अपना समर्थन देने का ऐलान कर दिया। 2010 में लालू ने अपना समर्थन वापस ले लिया। उनके विरोध की वजह राज्यसभा में महिला आरक्षण विधेयक का लाया जाना था। इसका सबसे ज्यादा फायदा ममता बनर्जी को हुआ व उन्होंने 2012 में रेल मंत्रालय हासिल कर लिया व अपनी पार्टी के नेता दिनेश त्रिवेदी को रेल मंत्री बनवाया मगर रेल किराया बढ़ाये जाने से नाराज होकर ममता बनर्जी ने उनका इस्तीफा करवाकर अपनी पार्टी के सांसद मुकुल राय को रेल मंत्री बना दिया। मगर उसी साल टीएमसी व डीएमके ने सरकार से बाहर होने का ऐलान कर दिया। द्रुमुक सरकार में शामिल दूसरे सबसे बड़ा घटक दल था। कुछ समय बाद एआईएमएम व जेवीएमपी भी उससे अलग हो गया। अगले साल खुदरा व्यापार में बहु राष्ट्रीय कंपनियों को आमंत्रित किए जाने के मुद्दे पर अपने छह मंत्रियों की सरकार से इस्तीफा करवाकर अपना समर्थन वापस ले लिया। मगर 2014 के लोकसभा चुनाव कांग्रेस के लिए बहुत मंहगे साबित हुए। इन चुनावों में कांग्रेस को महज 44 सीटें जीत कर अपनी रिकार्ड हार स्थापित की। हालांकि तब यूपीए नाम की कोई चीज नहीं थी व कांग्रेस का दावा है कि उसने समान विचार वाले दलों के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था। अतः ममता बनर्जी अब यह ठीक ही कह रही है कि यूपीए कहां था। आज कहने को राकांपा, द्रुमुक व जेएमएन के अलावा किसी से रिश्ते तक नहीं है। पश्चिम बंगाल में उसने तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़ा व कुछ समय पहले मेघालय में तृणमूल कांग्रेस ने ही विधायक दल में सेंध लगा कर उसके 12 विधायकों को तोड़ा। यही नहीं उसने गोवा, दिल्ली, बिहार में भी उसके नेताओं को तोड़ा। अब उसकी नजर नए गठबंधन का नेतृत्व कर प्रधानमंत्री पद पर लगी हुई है। यूपीए का यूनाइटेड प्रोग्रेसिव अलाएंस का नाम पहले ‘यूनाइटेड सेक्यूलर अलायंस’ रखा गया था मगर जब डीएमके नेता एम करुणानिधि से बातचीत हुई तो उन्होंने बताया तमिलनाडू में सेक्यूलर का मतलब धर्मविहीन होता है और उन्होंने गठबंधन का नाम प्रोग्रेसिव एलायंस रखने का सुझाव दिया व सभी दलों के नेताओं ने उनका यह सुझाव मान लिया व अब देखना है कि नए गठबंधन का नया नाम क्या होता है।
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