
अच्छी बात जो एक फिल्म के बहाने हिंदू और मुसलमान के आगे सत्य! हिंदू जहां फिल्म के पहले सीन से आखिरी सीन तक सन्न दिमाग में देखता हुआ तो उधर मुसलमान शायद गुस्से या शर्म में बिलबिलाता और व्यथित। फिर तीसरा वह वर्ग है, जो सच्चाई जानते हुए भी उसे दबाता, उससे मुंह चुराए और पलायनवादी है। इन बातों का अर्थ नहीं है कि फिल्म है या डाक्यूमेंटरी? हिंदू मरे तो मुसलमान भी मरे। या पुराने जख्म पर मरहम के बजाय नए जख्मों की राजनीति। असली बात है सदियों से हिंदू-मुस्लिम रिश्तों में जो (कश्मीर के इतिहास में हिंदुओं का भागना 1990 में सातवां वाकया था) था वह आजाद भारत के आधुनिक काल में भी कैसे? Watch Kashmir Files Hindu
भारत राष्ट्र (या नागरिक) की यह कैसी दुर्दशा जो आंखों से पर्दा 32 साल बाद तब हटा जब एक भदेस फिल्म आई! जब नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने कहा कि फिल्म देखो तो लोगों में जानने की दिलचस्पी बनी? वहीं नरेंद्र मोदी जो खुद कश्मीरियत, इंसानियत के तराने लोगों के दिमाग में डाले हुए थे और जिनकी पार्टी ने खुद घाटी में हिंदुओं की मार-काट की परिस्थितियां बनवाने वाली 1990 की वीपी सिंह-मुफ्ती मोहम्मद सईद की देशघाती सरकार बनवाई थी। यही नहीं बाद में जब वाजपेयी-मोदी के शासन का वक्त आया तो कश्मीरियत, इंसानियत की बातें बोल पहले अब्दुल्ला परिवार, फिर मुफ्ती परिवार को सत्ता दी। नतीजतन जनवरी 1990 में मारकाट करने-करवाने वाले यासीन मलिक व फारूक मलिक बिट्टा की हत्याओं की स्वीकारोक्ति के बावजूद प्रशासन इनकी अदालत से सजा भी नहीं करा सका।
हां, यह सत्य फिल्म में नहीं मिलेगा कि अब्दुल्ला-मुफ्ती परिवारों, केंद्र सरकारों के गवर्नर के सीधे शासन के बावजूद फिल्म में चावल के ड्रम में बंद सतीश पंडित को अंधाधुंध गोलियों से मारने वाले फारूक मलिक बिट्टा का वीडियो रिकार्डेड इंटरव्यू है कि उसने सतीश पंडित को मारा लेकिन श्रीनगर-घाटी का सिस्टम जो उसे अदालत से सजा कराने में फेल है। घाटी की लोकल पुलिस, वकील, कचहरी तब भी और आज भी वहीं है जो जनवरी 1990 में जगमोहन के समय थी या आज राज्यपाल मनोज सिन्हा के वक्त में है।
उस नाते उम्मीद करनी चाहिए कि फिल्म देखने के बाद मोदी-शाह खुद कश्मीर घाटी के लोकल प्रशासन के चप्पे-चप्पे में फारूक मलिक बिट्टा को पैदा करने वाले जमायते इस्लामी-अब्दुल्ला-मुफ्ती परिवार एंड पार्टी के बनवाए स्कूल, थाने, तहसील, कचहरी के मास्टरों से ले कर पटवारी, दरोगा, जज के लोकल ताने-बाने को बदलेंगे! फिल्म के साथ हिंदू नोट रखें कि पिछले आठ सालों में, खासकर अनुच्छेद 370 हटने के बाद अभी तक ऐसा कोई काम कश्मीर घाटी में नहीं हुआ है। और तो और घाटी में जो 500-600 हिंदू बचे हुए थे वे भी पिछले साल श्रीनगर में दिन-दहाड़े हिंदुओं की हत्या के बाद या तो भागे हुए या दुबके हुए हैं।
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फिल्म प्रमाण है कि भारत और भारतीय झूठ में अंधा जीता है। फिल्म जिन तीन घटनाओं पर गुंथी है वे सत्य हैं। चावल के ड्रम में हिंदू सतीश पंडित को गोलियों से भुनने, एयरफोर्स के अफसर-महिलाओं की दिनदहाड़े हत्या और आखिरी सीन में एक साथ हिंदुओं को लाइन में खड़ा करके मारने की तीनों घटनाएं सचमुच घटित हैं। हालांकि फिल्म में घटनाओं को एक दूसरे से जुड़ा जैसे बताया गया है वैसा नहीं था। 370 हटाओ की तख्ती और लोकेशन आदि से फिल्म में झूठ-प्रोपेगेंडा का रंग है। लेकिन तीन घटनाओं में हिंदुओं को बेरहमी से मारने और मुस्लिम आतंकियों की बर्बरता की रियलिटी समय, स्थान, रिकार्ड आदि से प्रमाणित है। मैं इसे फिल्म निर्माता-डायरेक्टर टीम (हिंदुओं) की कायरता मानता हूं, जो कश्मीर घाटी में जा कर घटनास्थल की रियल लोकेशन पर शूटिंग का साहस नहीं किया। सोचें, अमित शाह- मनोज सिन्हा के राज में भी श्रीनगर की गलियों की सत्य शूटिंग की फिल्मकारों में हिम्मत नहीं हुई। कमल ककड़ी खरीदने के सीन में अफसर की अंबेसडर कार भी उत्तराखंड का यूके नंबर लिए हुए थी। भला डायरेक्टर विवेक अग्निहोत्री की कैसे हिम्मत होती जब श्रीनगर में मोदी-शाह आज भी एक सिनेमा हाल नहीं खुलवा सके!
छोटी बात है लेकिन आज भी श्रीनगर का सत्य! मैंने पिछले साल जुलाई-अक्टूबर में 20-25 दिन घाटी में घूम ‘कश्मीर घाटी का सत्य’ में लंबी सीरिज (20-22 किस्त में, www.nayaindia.com विजिट कर पढ़े) लिखी थी। ‘घाटी: इस्लाम का कलंक नहीं तो क्या’? से शुरू सीरिज का अंत ‘हमारी शर्म, घाटी के लावारिस मंदिर’ की सच्चाई और भविष्य के सिनेरियो में ‘मोदी, शाह, डोवाल को कोसेंगे जब भारत भागेगा’! का समापन लेख से चेताते हुए किया। इस सीरिज के बीच की कड़ी में- ‘सत्य भयावह और झांकें गरेबां’!.. ‘उफ! हर साख पर उल्लू ….’ ‘हिंदुओं को भगवाने की भूमिका शेख की’!,.. ‘एथनिक क्लींजिंग’ का सियासी प्री-प्लान’, ..‘वीपी सिंह, मुफ्ती, फारूक से थी हिंदू ‘एथनिक क्लींजिंग’!, …‘मुसलमानों जागो, काफिरों भागो’! के शीर्षकों से सच्चाई-दर-सच्चाई में वह खुलासा था।
‘कश्मीर फाइल्स’ दोनों समुदाय के लिए सत्य की जमीन है। हर हिंदू सोचे कि वह हमेशा क्यों भगोड़ा, भागता और भयाकुल रहता है? मैं हाल में पंजाब में आनंदपुर साहिब गया तो सिख गुरू तेग बहादुर के निवास में एक शिलापट्ट देखी और दिमाग यह सोच भन्ना गया कि हिंदुओं का इतिहास कैसे रिपीट होता है। सत्य जानें कि औरंगजेब के वक्त उससे त्रस्त कश्मीरी पंडितों ने आनंदपुर साहिब जा कर नौंवे गुरू से रक्षा की विनती की। उन्हीं की खातिर गुरू तेग बहादुर कुरबान हुए। सन् 1990 में वापस जब कश्मीरी पंडितों की ‘एथनिक क्लींजिंग’ शुरू हुई तो दिल्ली के राजपूत राजा वीपी सिंह, सूबे के हिंदू गर्वनर जगमोहन, भारत की सेना उन्हें बचाने के लिए थी लेकिन वे नहीं बचे तब एक हिंदू ग्रुप को इतिहास ध्यान आया और वे 1990 में आनंदपुर साहिब बचाने की अरदास करने पहुंचे। मैं वहां लगे अरदास ज्ञापन को पढ़ कर बहुत समय सोचता रहा कि भारत राष्ट्र-व्यवस्था-सेना-एटमी महाशक्ति सब कुछ के बावजूद हिंदू कैसा शक्तिहीन, लाचार, भयाकुल व निराश्रित जीवन लिए हुए है।
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सो, ‘कश्मीर फाइल्स’ के सत्य के पीछे का मूल सत्य क्या? जवाब में मुझे बहुत लिखना होगा। जबकि पहले ही मैंने कई किताबों जितना लिखा हुआ है। पाठकों और मुझे जानने वालों को विश्वास नहीं होगा कि जनवरी 1990 में भी मैंने कश्मीर में हिंदू मंदिरों में तोड़फोड़, हिंदुओं की ‘एथनिक क्लींजिंग’ के लक्षणों पर ‘जनसत्ता’ में दबा कर लिखा। एक्सप्रेस समूह के महाभले संपादक बीजी वर्गीज तब सेकुलर चिंता में श्रीनगर जा कर सब ठीक बताते थे। ‘जनसत्ता’ के मेरे संपादक प्रभाषजी भी उनके हमराही। एक्सप्रेस समूह के संपादक लोगों ने घाटी में मंदिरों की तोड़फोड़ के फोटो, रिपोर्ट इस चिंता में दबाए रखी की सेकुलर वीपी सिंह सरकार चलनी चाहिए। जबकि मैं बिल्कुल अलग दिशा में। प्रभाषजी उदार और मुझे मानते थे इसलिए उन्होंने कभी रोका नहीं। मैंने अपने ‘गपशप’ कॉलम में वीपी सिंह-मुफ्ती-फारूक के कश्मीर सत्यानाश पर बेबाकी से लिखा। उन दिनों ‘नवभारत टाइम्स’ के राजेंद्र माथुर ने राम बहादुर राय को ‘जनसत्ता’ से तोड़ कर अपने यहां रख लिया था। एक दिन उन्होंने कश्मीर पर ही ‘जनसत्ता’ में अलग-अलग सुर को पढ़ कर राम बहादुर राय से हैरानी से पूछा- ‘जनसत्ता’ में क्या हो रहा है! सचमुच मुझे कश्मीर में हिंदुओं के स्यापे की जितनी जानकारी मिलती, मैं लिख देता। वीपी सिंह को समर्थन दे रहे भाजपा नेताओं को भी लपेटता। हां, यह सत्य नोट रखें कि तब कांग्रेस, राजीव गांधी सत्ता में नहीं थे। कांग्रेस विरोधी वीपी सिंह सरकार थी। हर मंगलवार को प्रधानमंत्री वीपी सिंह और वाजपेयी-आडवाणी, अरूण नेहरू-वीसी शुक्ला-देवीलाल की कोर मीटिंग हुआ करती थी, जिसमें कश्मीर का मुद्दा कई बार उठा लेकिन सरकार चलाए रखने के सर्वोपरि मकसद में मुफ्ती के रोल, उनकी बेटी के अपहरण जैसे किसी मामले में भाजपा ने दो टूक सख्त फैसला नहीं कराया। उलटे जगमोहन को हटाने का फैसला हुआ।
सोच सकते हैं घाटी-श्रीनगर की घटनाओं पर मेरे लिखे की बेबाकी में प्रतिस्पर्धी अखबार ‘नवभारत टाइम्स’ के महामना संपादक राजेंद्र माथुर का हैरान होना! जाहिर है जनवरी 1990 में देश-दिल्ली के दो-चार पत्रकार ही कश्मीर में हिंदुओं की ‘एथनिक क्लींजिंग’ का खटका लिए हुए थे। ‘इंडिया टुडे’ ग्रुप में मधु त्रेहान की न्यूज ट्रैक वीडियो पत्रिका और उसमें मनोज रघुवंशी की घाटी घूमते हुए कवरेज सत्य बतलाते हुए होती थी। ‘एथनिक क्लींजिंग’ हो जाने के बाद, कश्मीर के सत्य की अनदेखी करके भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने नरेंद्र मोदी को सारथी बना कर केरल से कश्मीर की एकता यात्रा की और श्रीनगर में जैसे तैसे तिरंगा फहराने का मैंने प्रपंच जाना तो उस पर भी मैंने कम नहीं लिखा। डॉ. जोशी हमेशा मुझसे यह कहते हुए नाराज रहे कि आपने मुझे कभी नहीं समझा!
मैं भटका हूं। सन् 1990 की यादों में चला गया हूं। पते की बात यह शर्म है कि भारत के लोग 32 साल बाद एक फिल्म देख स्तब्ध हैं कि ऐसा भी हुआ था! सवाल है इस हैरानी के बाद लोग क्या सोचेंगे या क्या सोचना चाहिए? इस पर कल। (जारी)