बेबाक विचार

विदेश में हम शाकाहारी और रेस्तरां

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विदेश में हम शाकाहारी और रेस्तरां
वहां मुझे सबसे बुरी बात यह लगी कि सड़क किनारे हमारी तरह आपको कहीं भी कोई खोमचा लगाने वाला, समोसे बेचने वाला नहीं मिलेगा। अगर रेस्तरां में खाना खाने जाना हो तो अपनी पहले ही जगह बुक करवानी पड़ती है।... मुझे देख कर अजीब सा लगा कि मुख्य द्वार पर गणेशजी की मूर्ति सजाकर उन्हें फूल मालाएं पहनाने वाले इन रेस्तराओं में खाने के साथ शराब भी पिलाने का प्रबंध था। अब लगता है भला हो मद्रासियों का जिन्होंने देश में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के हर कोने में शाकाहारी भोजन बेचने वाले रेस्तरां खोले हैं। कनाडा में सप्ताह में एक दिन कम से कम बाहर खाते है। जब किसी दक्षिण भारतीय रेस्तरां जा कर मसाला डोसा या इडली खाने का विकल्प रहता था तो एक बात खराब लगती थी कि डोसा या इडली के साथ दुबारा मुफ्त में सांभर नहीं मिलता था। मुझे गरम-गरम सांभर पीना बहुत अच्छा लगता है। शाकाहारी हो जाने के कारण मेरे पास खाने पीने के विकल्प बहुत सीमित हो गए थे। एक दक्षिण भारतीय रेस्तरां की तो 116 देशों में रेस्तरां है। सभी जगह भारतीय बच्चे ही नौकरी करते है। मुझे देख कर अजीब सा लगा कि मुख्य द्वार पर गणेशजी की मूर्ति सजाकर उन्हें फूल मालाएं पहनाने वाले इन रेस्तराओं में खाने के साथ शराब भी पिलाने का प्रबंध था। एक रेस्तरां के मालिक ने बताया कि यहां आने वाले बिना पिए खाना नहीं पसंद करते हैं। वहां पकौड़े भी खाने को मिल जाते थे मगर उन्हें बेसन की जगह चावल के आटे में तला जाता था। बाहर कुछ भी खाने के पहले डर लगता था कि कहीं उसमें कुछ मांसाहारी शामिल न हो हालांकि जब पिछली बार गया था तो वहां एक रेस्तरां में कौतुहलवश सलमन मछली का स्वाद जरुर चखा था जो कि ‘फिश एंड चिप्स’ बेचने वाले एक रेस्तरां पर मिलती थी। दूसरी बात यह कि वे लोग मछली मीट की तुलना में बीफ (गाय या भैंस) ज्यादा खाते हैं। डर लगता था कि कहीं गलती से बीफ न खा लूं। पिज्जा खाते समय भी यह तय करना पड़ता था कि कहीं बनाते समय उसमें मांस न डाल दिया गया हो। आमतौर पर वहां के रेस्तरां में अंडे को भी शाकाहारी माना जाता है। एक बार बीपी का शिकार होने के बाद डाक्टर ने मुझे अंडा खाने से पूरी तरह से रोक दिया था। वहां तो डबल रोटी (ब्रेड) व केक खरीदते समय यह सुनिश्चित करना पड़ता था कि उनमें अंडा नहीं हो। तब लगता था कि शाकाहारी होना वह भी विदेश में, शाकाहारी खाना ही मिलना कितना मुश्किल होता है। भारतीय रेस्तरां में जरुर शाकाहारी जैसे मलाई कोपता मिल जाता है पर शाकाहारी भोजन में पनीर की भरमार रहती है जो कि मुझे ज्यादा पसंद नहीं है। वहां मुझे सबसे बुरी बात यह लगी कि सड़क किनारे हमारी तरह आपको कहीं भी कोई खोमचा लगाने वाला, समोसे बेचने वाला नहीं मिलेगा। अगर रेस्तरां में खाना खाने जाना हो तो अपनी पहले ही जगह बुक करवानी पड़ती है। अंदर पहुंचने के बाद भी इंतजार करना पड़ता है। रात को रेस्तरां जल्दी बंद हो जाते हैं व नौ बजे के पहले ही वहां पहुंच कर खाने का आर्डर देना पड़ता है। कई बार तो यह बताया जाता है कि अमुक सामान देर होने के कारण उपलब्ध नहीं होगा। गाड़ी चलाते समय काफी पीना वहां के लोगों में आम बात है। हालांकि काफी की मात्रा काफी ज्यादा होती है व पेट्रोल पंप के साथ में ही स्थित उनकी दुकानों पर जाने से पहले फोन पर उन्हें आदेश देकर काफी व फ्रेंच फ्राई जैसे सामान का आर्डर बुक करवाया जाता है। वहां पहुंचने तक बिना कार से उतरे बैठे बैठे कार्ड से पैसे अदा कर कार में ही खाना पीना हासिल कर लिया जाता है। खरीदे जाने वाले सामान की पैकिंग बहुत अच्छी होती है। वहां सामान मंहगा होने की एक वजह यह भी हो सकती है जब मैं पहली बार क्रूज पर सवार होकर वेंकूवर की राजधानी विक्टोरिया गया तो चार मंजिली क्रूज का सफर बहुत आश्चर्यजनक था। हमारी कार भी क्रूज में लद गई व गंतव्य पर पहुंचने के बाद हम लोग अपनी ही कार में सवार होकर घूमने गए। बहुत बड़ी क्रूज में रेस्तरां व  शापिंग माल थे। हालांकि उनमें बिकने वाला खाना मुझे ज्यादा पसंद नहीं आया। इतना जरुर था कि इस समु्द्री यात्रा के दौरान हमे समुद्र में तैरती व्हेल मछली जरुर देखने को मिल गई। हमे एक भी जगह ऐसी नहीं दिखी जहां आप बिना बुकिंग करवाए सीधे जाकर खाना खा सकते हो हालांकि क्रूज की विशाल छत से समुद्री लहरों को देखकर मुझे टाइटेनिक की याद आ गई और डर लगा कि कहीं इसके साथ कुछ गड़बड़ी न हो जाए। जब भी किसी रेस्तरों में खाने जाता तो अपनी पुरानी आदत के मुताबिक कार्ड में लिखे दामों को जरुर देखता और इसकी कीमत को 60 से गुना करके रुपए में बदल देता तब मुझे 800 रुपए की कीमत वाले उस डोसे को खाने में बहुत दिक्कत होती जिसमे साथ में दोबारा सांभर या चटनी तक नहीं मिलती है। रेस्तरां में एक अच्छी बात यह है कि आप का खाना बच जाए तो उसे आप पैक कर के अपने साथ घर ले जा सकते हैं पर बेटा खाना पैक नहीं करता है। वह आपके मेज पर प्लास्टिक के ढक्कन व डब्बे लाकर आपको दे देगा व आपको अपने हाथों से बचा खाना पैक कर के घर ले जाना होगा। वहां बुरी बात यह है कि खाने के बाद टिप न देना असभ्यता मानी जाती है। खाने के बिल की 7 से 15 प्रतिशत तक राशि टिप के रुप में अदा करनी पड़ती है। आप को कितनी टिप देनी है इसका फैसला वही लोग करते हैं व आपको बिल में टिप की राशि लिख भेज दी जाती है। आमतौर पर रेस्तरां खाने की होम डिलीवरी नहीं करते हैं। अगर कोई करता भी है तो उसके लिए अपना पहले भुगतान करना पड़ता है काफी इंतजार भी करना पड़ता है। सामान पहुंचने के पहले आप को फोन द्वारा सूचित करने के बाद आपको अपनी सोसायटी के मुख्य गेट पर आकर उसे लेना पड़ता है। अन्यथा सामान लाने वाला व्यक्ति उसे गेट पर छोड़ कर जा सकता है। कनाडा व अमेरिका में अनेक ऐसे रेस्तरां है जहां पिज्जा या कुछ अन्य खाने के सामान के साथ आप को असीमित कोल्ड ड्रिंक पीने की छूट होती है पर उसे पहले वाले जूठे गिलास में ही पीना पड़ता है। आम रेस्तरां काफी विशाल एयर कंडीशन व कई मंजिला होते हैं मगर वहां पर सीट खाली होने के बावजूद कर्मचारी द्वारा बताए गए स्थान पर ही बैठना पड़ता है। कहीं भी कपड़े के नैपकिन नहीं होते है। इसकी जगह कागज के टिश्यू पेपर दिए जाते हैं। पानी के गिलास काफी बड़े होते हैं जिनमें ठंडा पानी पीकर मजा आ जाता है। वहां आमतौर पर लोग फिल्टर वाटर की बोतल नहीं मंगाते हैं क्योंकि वहां नल से आने वाला पानी भी काफी स्वच्छ माना जाता है। भारतीय लोग ही खाने के बाद प्याज व हरी मिर्च की मांग करते हैं। खाने के बाद सौंप या मोटी सुपारी नहीं दी जाती है।
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