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जीत के ऐलान की जल्दी क्यों?

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जीत के ऐलान की जल्दी क्यों?
पश्चिम बंगाल में पहले चरण की 30 सीटों के लिए 27 मार्च को मतदान हुआ। उस दिन शाम छह बजे तक ईवीएम का आखिरी बटन दबा भी नहीं होगा कि भाजपा ने जीत का ऐलान कर दिया। चुनाव आयोग मतदान का अंतिम आंकड़ा जारी करता उससे पहले केंद्रीय गृह मंत्री ने प्रेस कांफ्रेंस करके कहा कि 30 में से 26 सीटों पर भाजपा जीत रही है। यह एक तरह का संकेत था मुख्यधारा की मीडिया और सोशल मीडिया के समर्थकों के लिए, जिन्होंने उस प्रेस कांफ्रेंस के बाद भाजपा की जीत का डंका बजाना शुरू कर दिया। सवाल है कि जीत का ऐलान करने की इतनी जल्दी क्या है? वैसे एक सवाल तो यह भी है कि चुनाव आयोग ने किसी तरह के एक्जिट पोल पर 29 अप्रैल तक रोक लगाई है तो क्या इस किस्म की घोषणाओं पर भी रोक नहीं लगाई जानी चाहिए? आखिर यह भी तो एक तरह का एक्जिट पोल ही है! केंद्रीय गृह मंत्री का ऐलान भी तो किसी आंकड़े पर ही आधारित होगा, जो निश्चित रूप से किसी एजेंसी ने उठाया होगा! पार्टियां नतीजों से पहले अपनी जीत का दावा करती हैं पर इतने पक्के तौर पर सीटों की संख्या नहीं बताती हैं! अगर केंद्रीय गृह मंत्री को मतदान का अंतिम आंकड़ा आने से पहले ही पता है कि उनकी पार्टी 30 में से 26 सीट जीत रही है तो इससे बड़ा सवाल उठता है। अगर नतीजों में सचमुच इन 30 में से 26 सीट भाजपा जीती तो कई सवालों के जवाब देने होंगे। अगर भाजपा इतनी सीटें नहीं जीतती है तब भी दावा करने वाले को सफाई देनी होगी लेकिन किसी जवाब या सफाई की उम्मीद बेमानी है। केंद्रीय गृह मंत्री ने जो दावा किया उसे आंकड़ों की बाजीगरी से मीडिया समूहों ने दिखाना शुरू कर दिया। इस बात पर जोर दिया गया कि पहले चरण की 30 सीटों पर 84 फीसदी मतदान हुआ है, बंपर वोटिंग हुई है और बंपर वोटिंग हमेशा सत्ता के बदलाव का संकेत देती है। लेकिन हकीकत यह है कि बंगाल का मानक इससे बड़ा है। वहां 80-82 फीसदी को बंपर वोटिंग नहीं, बल्कि सामान्य वोटिंग मानते हैं। पिछले चुनाव में यानी 2016 में भी पश्चिम बंगाल में 82.66 फीसदी मतदान हुआ था। इस बार भी अगर उतना या उससे एक-डेढ़ फीसदी ज्यादा मतदान हुआ है तो इसे न तो बंपर कहेंगे और न बदलाव का संकेत मानेंगे। सामान्य वोटिंग का फायदा हमेशा सत्तारूढ़ दल को होता है। ऊपर से भाजपा के पास तो राज्य में ऐसी मशीनरी भी नहीं है कि वह बड़ी संख्या में मतदाताओं को बूथ पर ले जाए और अपने पक्ष में मतदान कराए। सो, 84 फीसदी वोटिंग के आधार पर सत्ता बदल की संभावना देखना जल्दबाजी है। दूसरे, ज्यादा मतदान होना हमेशा इस बात की गारंटी नहीं होती है सत्ता बदलेगी। कई बार वह प्रो इनकंबैंसी का वोट भी होता है। जैसे बंगाल में ही 2001 में 75.29 फीसदी मतदान हुआ था और उसके अगले चुनाव में 2006 में 81.97 फीसदी यानी साढ़े छह फीसदी ज्यादा मतदान हुआ, फिर भी सत्तारूढ़ लेफ्ट मोर्चा ही जीता। लेकिन इसके अगले चुनाव में 84.33 फीसदी यानी करीब ढाई फीसदी ज्यादा मतदान हुआ और ममता बनर्जी सत्ता में आ गईं। उसके बाद 2016 में 82.66 फीसदी मतदान हुआ और ममता दोबारा जीतीं। सो, इस बार अगर पहले चरण में 84 फीसदी मतदान हुआ है तो वह पिछले साल के औसत मतदान से थोड़ा ही ज्यादा है और इस आधार पर कोई भी नतीजा निकालना ठीक नहीं होगा। इसके बावजूद पहले चरण के मतदान का आंकड़ा आने से पहले ही केंद्रीय गृह मंत्री ने 30 में से 26 सीटों पर भाजपा की जीत का ऐलान किया तो उसके दूसरे कारण हैं। इसका मुख्य कारण हवा बनाने का प्रयास है। भाजपा नेतृत्व को पता है कि पश्चिम बंगाल में उसके पास न तो मजबूत संगठन है और न चुनाव लड़ने वाले मजबूत नेता हैं। उसके लगभग सारे स्टार प्रचारक भी दूसरे राज्य के हैं और चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार दूसरी पार्टियों के हैं। तभी भाजपा के लिए अपनी जीत की हवा बनाना सबसे जरूरी है। वह चुनावी लड़ाई जमीन से ज्यादा धारणा के स्तर पर लड़ रही है। इसलिए केंद्रीय गृह मंत्री सहित भाजपा के सभी नेताओं ने पहले चरण के मतदान के तुरंत बाद कहना शुरू किया कि भाजपा जीत रही है। इस धारणा के आधार पर भाजपा अपने कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ा रही है और अगले चरणों के लिए उन्हें तैयार कर रही है। यह संयोग है कि पहले चरण का मतदान उस इलाके में था, जहां लोकसभा चुनाव में भाजपा सबसे मजबूत रही या शुभेंदु अधिकारी के भाजपा में शामिल हो जाने से मजबूत हो गई। पहले चरण में पुरुलिया, बांकुड़ा, झारग्राम, पूर्वी व पश्चिमी मेदिनीपुर के जिस इलाके में 30 सीटों पर मतदान हुआ उसमें 2016 के विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी की पार्टी 27 पर जीती थी। लेकिन 2019 के चुनाव में भाजपा ने लोकसभा की पांच सीटें जीतीं। यानी भाजपा के सबसे मजबूत असर वाले इलाके से मतदान शुरू हुआ और मतदान का अंतिम आंकड़ा आने से पहले ही भाजपा नेताओं ने जीत का दावा शुरू कर दिया। तभी तृणमूल कांग्रेस के नेता इसे संयोग नहीं मान रहे हैं। वे चुनाव आयोग पर सवाल उठा रहे हैं और कह रहे हैं कि एक डिजाइन के तहत शुरुआती चरण में उन इलाकों में मतदान कराया जा रहा है, जहां भाजपा मजबूत है। तृणमूल कांग्रेस के चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने एक अंग्रेजी अखबार को दिए इंटरव्यू में कहा कि तृणमूल के सबसे मजबूत गढ़ में छठे, सातवें और आठवें चरण में मतदान रखा गया है। वे चुनाव रणनीतिकार हैं इसलिए उनको पता है कि इसका क्या असर होता है। कोई चुनाव अगर कई चरणों में होता है तो यह बात बहुत मायने रखती है कि शुरुआती मतदान किन इलाकों में हो रहा है और उनके मतदान को लेकर क्या धारणा या हवा बन रही है। चूंकि शुरुआती चरणों में मतदान भाजपा के असर वाले इलाकों में है और पार्टी किसी भी तरह की हवा बनाने में सक्षम है इसलिए ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि भाजपा जीत रही है। अगर जमीनी स्तर तक यह हवा पहुंचती है तो आगे के चरणों में भाजपा को इसका फायदा होगा। हालांकि यह नहीं कहा जा सकता है कि हवा बनाने से मिलने वाला फायदा इतना बड़ा होगा कि भाजपा चुनाव जीत जाएगी। चुनाव जीतने के लिए जो दूसरी जरूरी चीजें या स्थितियां हैं उनमें भाजपा अपेक्षाकृत कमजोर हैं। स्टार प्रचारक और उम्मीदवार से लेकर पोलिंग एजेंट तक के मामले में भाजपा की कमजोरी दिख रही है। जिस तरह से यह संयोग है कि ‘निष्पक्ष’ चुनाव आयोग ने आठ चरण में बंगाल का मतदान रखा, शुरुआती चरण उधर रखे, जहां भाजपा मजबूत है और तृणमूल कांग्रेस के असर वाले इलाकों में सबसे आखिर में मतदान रखा उसी तरह यह भी संयोग है कि पोलिंग एजेंट के लिए चुनाव आयोग ने नियम बदल दिए। यह नियम बनाया गया कि एक चुनाव क्षेत्र का मतदाता उस क्षेत्र में कहीं भी पोलिंग एजेंट बन सकता है, जबकि पहले यह नियम था कि पोलिंग एजेंट उसी पोलिंग बूथ का या बगल की किसी बूथ का मतदाता होना चाहिए। तृणमूल कांग्रेस ने चुनाव आयोग से इसकी शिकायत की है। जाहिर है कि जिस पार्टी के पास हर पोलिंग बूथ पर वहीं का पोलिंग एजेंट नहीं होगा, उसी को नियम बदलने का फायदा मिलेगा। सोचें, जिस पार्टी के पास हर पोलिंग बूथ पर उसी बूथ का पोलिंग एजेंट नहीं होगा वह कितनी भी हवा बना ले, क्या उसके लिए जीतना संभव होगा? पश्चिम बंगाल में भाजपा के चुनाव जीतने के रास्ते में और भी कई बाधाएं हैं, उन पर कल विचार करेंगे।
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