बेबाक विचार

जहरीली और हिंसक होती राजनीति!

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जहरीली और हिंसक होती राजनीति!
लोग चुनाव लड़ने के लिए राजनीति करते हैं। कुछ लोग राजनीति में आते ही चुनाव लड़ जाते हैं लेकिन बहुत से लोग जीवन भर राजनीति करते रह जाते हैं और चुनाव नहीं लड़ पाते। कुछ लोग पहली ही बार चुनाव लड़ कर विधायक, सांसद, मंत्री, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री बन जाते हैं और बहुत से लोग अनेक बार चुनाव लड़ कर भी जीत नहीं पाते। चुनाव लड़ना एक साध्य है, जिसका साधन राजनीति है। यानी केंद्रीय तत्व राजनीति है। राजनीति तब भी थी, जब राज्य नहीं थे और वहां भी है, जहां राज्य नहीं है। कारोबार में राजनीति है, नौकरी की जगह पर राजनीति है और यहां तक कि परिवार में, बेहद नजदीकी रिश्तों में भी राजनीति है। इसलिए जब राजनीति घृणा या हिंसा का पर्याय बन जाती है तो वह किसी भी समाज के लिए दुखद स्थिति होती है। राजनीति अच्छी, सच्ची और साफ-सुथरी भी हो सकती है। राज्य की और चुनाव की राजनीति भी संस्कारों के साथ की जा सकती है। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि राजनीति से उसके संस्कार खत्म हो गए हैं। उसकी अच्छाई खत्म हो गई। राजनीति सचाई से दूर चली गई है। अब राजनीति का मतलब खास कर चुनावी राजनीति का मतलब सिर्फ झूठ बोलना, नफरत फैलाना, हिंसा को बढ़ावा देना, विरोधी के बारे में अपशब्द करना ही रह गया है। पश्चिम बंगाल में चल रहे चुनाव में भारतीय राजनीति का यह विद्रूप चेहरा जगजाहिर हुआ है। वैसे पिछले कई चुनावों से इसका आभास हो रहा था। जब प्रधानमंत्री ने श्मशान और कब्रिस्तान के नाम पर वोट मांगे, खुद को नीच कहे जाने पर नीची जाति का नैरेटिव बना कर वोट मांगा और केंद्र में सत्तारूढ़ दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने पाकिस्तान में पटाखे फूटने की बात करके सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कराने का प्रयास किया, तब आभास हुआ था कि चुनावी राजनीति का स्तर थोड़ा और गिर गया है। लेकिन पश्चिम बंगाल और असम का चुनाव इस गिरावट का सबसे निचला स्तर है। इस चुनाव की सबसे बड़ी अश्लीलता तो यह है कि देश में कोरोना वायरस की महामारी के बीच केंद्र सरकार के सर्वोच्च मंत्री हजारों-लाखों की भीड़ इकट्ठी करके चुनावी रैलियां कर रहे हैं। राज्यों के मुख्यमंत्री भी इसमें पीछे नहीं रहे। लेकिन चूंकि मीडिया की स्वामीभक्ति सिर्फ एक दल या दो नेताओं के प्रति है, इसलिए कोरोना काल में प्रचार का समूचा फोकस भी सिर्फ दो ही लोगों पर रहा और जब गैर जिम्मेदार ठहराने की बारी आई तब भी निशाने पर वे ही दो नेता रहे। बहरहाल, दूसरी अश्लीलता यह है कि संवैधानिक पद पर बैठे, संविधान की शपथ लिए लोगों ने जाति, धर्म, नस्ल आदि सबका चुनावी फायदे के लिए इस्तेमाल किया। हिंसा का प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन किया। विरोधियों के लिए अपशब्द कहे। भाषणों के कंटेट और भाषण देने की टुच्ची शैली से पद की गरिमा गिराई। देश की एकता और अखंडता की शपथ लेने वाले नेताओं ने समाज का विभाजन करने वाली बातें कहीं। चोटीवाले, दाढ़ीवाले, टोपीवाले की बातें कही गईं। अपने ही देश के लोगों को पाकिस्तानी और बांग्लादेशी बताया गया। संप्रभु भारत के एक भूभाग को मिनी पाकिस्तान बताया गया। विदेश दौरे और कूटनीति का चुनाव लाभ के लिए इस्तेमाल किया गया। संस्थाओं की साख पर बट्टा लगाया गया। जाने-अनजाने में संस्थाओं ने भी खुद को राजनीति का टूल बनने दिया, जो लंबे समय में देश के लिए बहुत घातक साबित हो सकता है। कुल मिला कर नेताओं के भाषणों ने पूरे माहौल को जहरीला बना दिया। हवा में जहर, हिंसा और नफरत भर दी। चुनावी फायदे के लिए नेताओं ने पाला खींच दिया, जिसमें एक तरफ के लोग अच्छे, सच्चे, देशभक्त और ईमानदार हैं, जबकि दूसरी तरफ के लोग देशविरोधी, भ्रष्टाचारी और बुरे हैं। यह विभाजन तथ्यात्मक आधार पर नहीं हुआ है, बल्कि सिर्फ इस आधार पर हुआ है कि कौन हमारे साथ है और कौन विरोधी है। जो आज हमारे साथ है वह अच्छा है लेकिन कल वहीं हमारे विरोध में होगा तो बुरा हो जाएगा! पाला खींच कर विभाजन बनवाने का नतीजा है कि ममता बनर्जी केंद्रीय सुरक्षा बलों, केंद्रीय एजेंसियों और चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था को भाजपा के साथ मिला हुआ बताती हैं और प्रधानमंत्री व देश के गृह मंत्री अपने भाषणों से इस बात की तस्दीक करते हैं। वरना क्या वजह थी कि केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बलों की गोलियों से चार लोगों की मौत हो गई और प्रधानमंत्री या गृह मंत्री ने इस पर दुख जताने का एक शब्द नहीं कहा? आतंकवाद से प्रभावित इलाकों में भी पुलिस या सुरक्षा बलों की गोली से किसी नागरिक की मौत होती है तो उसकी निंदा होती है, उस पर दुख जताया जाता है और उसकी जांच होती है। लेकिन पश्चिम बंगाल के कूचबिहार में सुरक्षा बलों ने चार लोगों की गोली मार कर हत्या कर दी और देश के प्रधानमंत्री व गृह मंत्री ने इस पर दुख जताने और इसकी जांच कराने की बजाय इसके लिए ममता बनर्जी को जिम्मेदार ठहराया। उनकी पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष ने कहा कि सुरक्षा बलों ने चार को ही क्यों मारा, आठ को मारना चाहिए था। उनकी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष ने मारे गए लोगों को ‘बुरे लड़के’ बताया। ये तमाम बातें हिंसा को न्यायसंगत ठहराने वाली हैं। प्रधानमंत्री बांग्लादेश के दौरे पर गए तो वहां से लौट कर आने के बाद उन्होंने बंगाल की सभा में बताया कि वे बांग्लादेश में मतुआ समाज के पारंपरिक मंदिर में गए थे। उन्होंने तृणमूल कांग्रेस की एक उम्मीदवार के भाषण के आधार पर कहा कि तृणमूल कांग्रेस दलित विरोधी है। विदेश दौरे का चुनावी राजनीति के लिए इस्तेमाल और जाति-समुदाय के आधार पर वोट मांगने का भाषण दोनों गलत है- नैतिक रूप से भी और संवैधानिक रूप से भी। राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने धर्म के आधार पर वोट एकजुट कराने की अपील की। उन्होंने मुस्लिम मतदाताओं से कहा कि वे अपना वोट नहीं बंटने दें। यह भी नैतिकता और संविधान दोनों की कसौटी पर गलत है। जब सर्वोच्च संवैधानिक पदों पर बैठे लोग जाति, धर्म के आधार पर वोट मांग रहे हों तो नैतिकता और संविधान का क्या मतलब रह जाता है! चुनावों में पहले भी हिंसा होती रही है। टीएन शेषन के देश का चुनाव आयुक्त बनने से पहले तक बिहार, उत्तर प्रदेश सहित देश के कई हिस्सों में बूथ लूटने, मतदाताओं को डराने-धमकाने और विरोधियों की हत्या जैसी घटनाएं होती थीं। तब भी ‘भूराबाल साफ करो’ या ‘तिलक, तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार’ जैसे समाज तोड़ने वाले नारों पर वोट मांगे जाते थे। लेकिन यह दो-ढाई दशक पुरानी परिघटना है, जब कुछ राज्यों में चुनाव लड़ना शक्ति प्रदर्शन की तरह होता था और चुनाव के समय होने वाली हिंसा या विभाजनकारी नारेबाजी उस समय की समाज व्यवस्था को प्रकट करती थी। दूसरे, वह सांस्थायिक हिंसा नहीं होती थी, एक राजनीतिक विचार या चुनावी टूल की तरह उसका इस्तेमाल नहीं होता था। देश के उस चरण से निकल आने के दो दशक बाद हिंसा, विभाजन, अराजकता को राजनीतिक विचार के तौर पर या चुनाव जीतने की रणनीति के तौर पर स्थापित जा रहा है। दुर्भाग्य से यह उन राज्यों में ज्यादा होता है, जहां भाजपा चुनाव लड़ रही होती और उसका कुछ दांव पर लगा होता है। जहां भाजपा मुख्य चुनावी प्लेयर नहीं होती है वहां चुनाव अपेक्षाकृत कम जहरीला और कम विभाजनकारी होता है। जैसे इसी बार तमिलनाडु में देखने को मिला। वहां कहीं भी मारो, काटो, जेल भेजो जैसी बातें नहीं हुईं। इसके उलट असम में भाजपा के एक मंत्री ने विरोधी नेता को सरेआम उठवा लेने की धमकी दी तो बंगाल में बुआ-भतीजे को जेल भेजने की बात कही गई। आंध्र प्रदेश, तेलंगाना या यहां तक कि केरल में भी वैसा जहरीला प्रचार देखने को नहीं मिला, जैसा पश्चिम बंगाल और असम में देखने को मिला है या जैसा बिहार और उत्तर प्रदेश में देखने को मिला था।
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