बेबाक विचार

एनपीआर का भविष्य क्या?

Share
एनपीआर का भविष्य क्या?
जनगणना के साथ साथ राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर, एनपीआर बनाने औरउसे अपडेट करने की शुरुआत 2010 में हुई थी। मतलब कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए-दो की सरकार ने शुरूआत की थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर पेश किए गए धन्यवाद प्रस्ताव पर हुई चर्चा का जवाब देते हुए संसद में इस बात का खास जिक्र किया था कि एनपीआर को कांग्रेस ने लागू किया था। तभी सवाल है कि कांग्रेस शासित और दूसरी भाजपा विरोधी पार्टियों के शासन वाले राज्यों में एनपीआर लागू करने को लेकर विरोध क्यों हो रहा है? और अगर इसी तरह विरोध जारी रहा तो इसका भविष्य क्या होगा? असल में एनपीआर इसलिए लाया गया था ताकि भारत में रहने वाले सामान्य रहवासियों की सूची बन सके। इसमें ऐसे लोग भी शामिल होते हैं, जो भारत के नागरिक नहीं होते हैं। इसलिए यह बहुत ज्यादा विवाद का विषय नहीं होना चाहिए था। इसकी प्रक्रिया भी बहुत जटिल नहीं है और न इसमें किसी से कोई दस्तावेज मांगा जाता है। कोई भी व्यक्ति, जो किसी खास स्थान पर छह महीने से रह रहा हो या अगले छह महीने तक उस इलाके में रहने वाला हो उसका नाम, पता इस सूची में दर्ज किया जाता है। केंद्रीय कैबिनेट ने पिछले साल दिसंबर में 24 तारीख को एनपीआर अपडेट करने की मंजूरी दी। तय किया गया कि अप्रैल से इसकी शुरुआत होगी। पर एक एक करके कई राज्यों ने एनपीआर लागू करने से इनकार कर दिया है। इस इनकार का आधार यह है कि इस बार के जनसंख्या रजिस्टर में हर व्यक्ति से उसके माता-पिता के जन्म स्थान और उनकी जन्मतिथि के बारे में जानकारी मांगी गई है। हालांकि अब सरकार कह रही है कि यह जानकारी देना वैकल्पिक होगा पर विपक्षी पार्टियों को लग रहा है कि इसका इस्तेमाल राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर, एनआरसी बनाने के लिए किया जाएगा। एनपीआर में जो भी व्यक्ति अपने माता-पिता के जन्म स्थान या जन्म तिथि की जानकारी नहीं देगा उसे संदिग्ध की सूची में डाला जा सकता है और बाद में उसके नागरिकता प्रमाणित करने वाले दस्तावेज मांगे जा सकते हैं। यह चिंता भाजपा की सहयोगी पार्टियों के नेताओं ने भी जताई है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी कहा कि उनको अपने माता-पिता की जन्म तिथि की जानकारी नहीं है। नीतीश कुमार और रामविलास पासवान दोनों चाहते हैं कि इस सवाल को सूची से हटाया जाए। इस बीच पश्चिम बंगाल और केरल ने एनपीआर की गतिविधियां रोक दी हैं। खबर है कि महाराष्ट्र की सरकार भी इस बारे में कानूनी राय ले रही है। कांग्रेस शासित राज्यों ने संशोधित नागरिकता कानून का विरोध किया है और एनआरसी नहीं लागू करने का ऐलान किया है। पर साथ ही वे एनपीआर को लेकर भी आशंकित हैं और इस पर कानूनी राय ले रहे हैं कि क्या मौजूदा प्रपत्र के साथ एनपीआर को नहीं लागू किया जा सकता है। यहां यह ध्यान रखने की बात है कि नागरिकता का मामला पूरी तरह से केंद्रीय सूची का मामला है। इसमें राज्यों के अधिकार सीमित होते हैं। तभी अगर केंद्र सरकार दबाव डालती है और अपनी बात पर अड़ती है तो राज्यों के लिए मुश्किल होगी। पर केंद्र दूसरी ओर केंद्र की मुश्किल यह है कि उसके पास इतने संसाधन और प्रशिक्षित लोग नहीं हैं कि वह जनगणना, जनसंख्या रजिस्टर और नागरिक रजिस्टर का काम खुद से करा सके। वह केंद्रीय कर्मचारियों के दम पर यह काम नहीं करा सकती है। कुछ कानूनी जानकारों का कहना है कि सरकार मदद और अनुदान रोक कर राज्यों को बाध्य कर सकती है। अब सवाल है कि इसका रास्ता कैसे निकलेगा? न केंद्र सरकार संशोधित नागरिकता कानून वापस लेने को तैयार है और न विपक्षी पार्टियां इसके बगैर किसी मसले पर बात करने को तैयार हैं? अगर सरकार विपक्ष को बातचीत की टेबल पर ले आए, सर्वदलीय बैठक बुला कर बात करे तो उसे बहुत समझौते करने होंगे। यह तभी संभव है जब सत्तारूढ़ दल अपने राजनीतिक नफा-नुकसान को किनारे रखे और गतिरोध खत्म करने का गंभीर प्रयास करे। दूसरा रास्ता यह है कि सुप्रीम कोर्ट से नागरिकता कानून पर दो टूक फैसला आए। गौरतलब है कि सर्वोच्च अदालत इस कानून को चुनौती देने वाली करीब 60 याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है। इसके फैसले से भी बातचीत की गाड़ी आगे बढ़ सकती है। इसका एक रास्ता यह भी है कि सरकार यह ऐलान करे कि वह देश भर में एनआरसी नहीं लाएगी और एनपीआर से माता-पिता के जन्म स्थान और जन्म तिथि की जानकारी मांगने वाला सवाल प्रपत्र में से हटा दे। असल में भाजपा को इस वजह से भी मुश्किल हो रही है कि एक के बाद एक राज्यों से उसकी सत्ता खत्म होती जा रही है और वहां विपक्षी पार्टियों का राज आ रहा है। डेढ़ साल पहले तक 13 राज्यों में भाजपा की अपनी सरकार थी, जो अब सिर्फ आठ राज्यों में रह गई है। इनमें भी बड़े राज्यों की संख्या और कम है। बड़े राज्यों में उसके पास उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, असम और गुजरात ही बचे हैं। इसके अलावा उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, गोवा और पूर्वोतर के राज्य हैं। तभी विपक्षी पार्टियों की एकजुटता से भाजपा के ऊपर दबाव बना है। बहरहाल, नागरिकता और जनसंख्या को लेकर बने गतिरोध को खत्म करने की जिम्मेदारी केंद्र सरकार की है। वह पहल करे, विपक्ष से बात करे और कुछ मसलों पर अपनी जिद छोड़ कर पीछे हटे तभी इसका समाधान होगा नहीं। कोई भी देश इस किस्म के गतिरोध अनंत काल तक नहीं झेल सकता है। इस तरह के गतिरोध का सीधा असर अर्थव्यवस्था और विकास की गतिविधियों पर पड़ता है और सामाजिक संरचना भी प्रभावित होती है।
Published

और पढ़ें