बेबाक विचार

विपक्ष की क्या तैयारी है?

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विपक्ष की क्या तैयारी है?
जैसा कि हर चुनाव के बाद होता है, गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव के बाद भी इस बात की चर्चा शुरू हो गई है कि अगले लोकसभा चुनाव पर इसका क्या असर होगा और विपक्षी पार्टियां किस तरह से भाजपा और नरेंद्र मोदी का मुकाबला करेंगी। चुनाव नतीजों के बाद आए नेताओं के बयानों से भी इसका अंदाजा लग रहा है। कम से कम दो बड़े विपक्षी नेताओं ने इस बात का संकेत दिया है कि विपक्ष में कुछ न कुछ ऐसा चल रहा है, जो 2024 के लोकसभा चुनाव से जुड़ा है। पर सवाल है कि विपक्ष की क्या तैयारी है? विपक्ष की तैयारियों का आकलन करने की तीन कसौटी है। पहली विचारधारा के स्तर पर विपक्ष के पास क्या वैकल्पिक विचार है, दूसरी, नेता के स्तर पर नरेंद्र मोदी के मुकाबले कौन नेता हैं और तीसरी, भाजपा की चुनाव मशीनरी का मुकाबला करने के लिए विपक्ष के पास क्या मशीनरी है? ध्यान रहे सिर्फ एकजुटता की बात करना या चुनाव के समय जैसे तैसे एकजुटता बना लेना, इस बात की गारंटी नहीं है विपक्ष भाजपा को रोक लेगा। इन तीनों कसौटियों पर विपक्ष की तैयारियों का आकलन करेंगे लेकिन उससे पहले दो विपक्षी नेताओं के बयानों पर एक नजर डालना जरूरी है, जिससे कुछ संकेत सूत्र मिलेंगे। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कहा कि विपक्षी एकजुटता बनाने के लिए काम हो रहा है। उन्होंने तीन नेताओं का नाम लेकर कहा- नीतीश जी, ममता जी, केसीआर साहेब लगातार काम कर रहे हैं। इन तीनों नेताओं को काम करते हुए सबने देखा है। पर यह स्पष्ट नहीं है कि ये तीनों नेता अलग अलग काम कर रहे हैं या एक साथ! तीनों की अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हैं और तीनों की अपनी प्रादेशिक राजनीतिक मजबूरियां भी हैं। इनकी तैयारियों का विश्लेषण करते समय इस बात को भी ध्यान में रखना होगा। दूसरे नेता नीतीश कुमार हैं, जिन्होंने गुजरात के नतीजों के बाद विपक्ष का हौसला बढ़ाने वाला बयान दिया। उन्होंने कहा- हमने विपक्ष की एकजुटता का सुझाव दिया है, अगर मान लिया गया तो भाजपा को बड़े अंतर से हराया जा सकता है। उन्होंने यह नहीं बताया कि उनके सुझाव क्या है और उन्हें मानने के रास्ते में क्या बाधाएं हैं। बहरहाल, विपक्ष की तैयारियों के आकलन की जो मुख्य कसौटी है वह ये है कि उनके पास क्या राजनीतिक ढांचा है, क्या संगठन है और संसाधन क्या हैं? यानी उनके पास चुनाव लड़ने की मशीनरी है या नहीं? यह पहली जरूरत इसलिए है क्योंकि नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने भाजपा को चुनाव लड़ने की मशीनरी में बदल दिया है। चुनाव हो या न हो, भाजपा की मशीनरी काम कर रही होती है। हर राज्य में अलग अलग सर्वेक्षण हो रहे होते हैं, जमीनी फीडबैक ली जाती है, उसके हिसाब से नैरेटिव सेट किया जाता है, नेताओं की जिम्मेदार लगाई जाती है और सोशल मीडिया में 24 घंटे प्रचार का नगाड़ा बजता रहता है। सोचें, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी उपलब्धियों का बखान करते हैं और पार्टी भावनात्मक मुद्दों से राजनीति की दिशा तय करती है उसके बावजूद जमीनी स्तर पर चुनाव की मशीनरी काम कर रही होती है। भाजपा को पता है कि मोदी के करिश्मे और तमाम भावनात्मक मुद्दों को वोट में बदलने के लिए जमीन पर मशीनरी की जरूरत है। इस नजरिए से देखें तो विपक्ष के पास कोई मशीनरी नहीं है। पहले तो विपक्ष एकजुट ही नहीं हुआ है। उसका आपस में तालमेल नहीं हुआ है। सीटों की पहचान नहीं हुई है। यह तय नहीं हुआ है कि कहां कौन सी पार्टी मुख्य खिलाड़ी के तौर पर मैदान में उतरेगी और कौन सी पार्टी उसके लिए पूरक का काम करेगी। सो, विपक्ष को सबसे पहले यह तय करना होगा। यह काम जितनी जल्दी हो उतना अच्छा होगा। विपक्षी पार्टियों को हर राज्य में अपनी अपनी ताकत और कमजोरी के हिसाब से गठबंधन कर लेना चाहिए। सामाजिक समीकरण के हिसाब से सीटों का बंटवारा और उम्मीदवार की पहचान का काम जितनी जल्दी होगा, प्रचार उतनी जल्दी शुरू हो पाएगा। इसके अलावा संसाधन का कॉमन पूल होना चाहिए। कई पार्टियां ऐसी हैं, जिनके पास जमीनी आधार है, कार्यकर्ता हैं और नेता भी हैं लेकिन चुनाव लड़ने का साधन नहीं है, जबकि कुछ पार्टियां साधन संपन्न हैं। सो, संसाधनों का कॉमन पूल होगा तो सभी पार्टियों के लिए भाजपा से लड़ना आसान होगा। कहने का आशय यह है कि साधन संपन्न पार्टियां दूसरी पार्टियों की चुनाव लड़ने में मदद करें। दूसरी प्रमुख कसौटी नेता की है। यह आम धारणा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मुकाबला करने के लिए विपक्ष के पास भी एक बड़ा चेहरा होना चाहिए। लेकिन क्या सचमुच ऐसा है? और अगर ऐसा है तो विपक्ष के पास कौन सा चेहरा है, जिसे मोदी के मुकाबले खड़ा किया जा सकता है? ईमानदारी की बात यह है कि विपक्ष के पास कोई ऐसा चेहरा नहीं है, जिसकी अखिल भारतीय पहचान हो, करिश्मा हो और अगले सवा साल में नरेंद्र मोदी को चुनौती दे सके। उलटे अगर मोदी के मुकाबले विपक्ष एक नेता तय करके चुनाव लड़ने की रणनीति बनाता है तो उसमें जोखिम ज्यादा है। ध्यान रहे हर क्षेत्रीय पार्टी का अपने अपने राज्य में मजबूत आधार है, जहां उसकी जातीय या भाषायी अस्मिता की राजनीति काम कर जाती है। पर लोकसभा चुनाव में जातीय या भाषायी अस्मिता की राजनीति इसलिए काम नहीं करती है क्योंकि सबको पता होता है कि उसका प्रादेशिक नेता प्रधानमंत्री नहीं बनने जा रहा है। अगर विपक्ष कोई एक नेता तय  कर लेता है तो इस धारणा की पुष्टि होगी। इसका नतीजा यह होगा कि जिस राज्य के नेता को विपक्ष का चेहरा घोषित किया जाएगा वहां तो हो सकता ही बड़ी सफलता मिले लेकिन बाकी राज्यों में मामला बिगड़ जाएगा। इसलिए एक चेहरा घोषित करने की बजाय सामूहिक नेतृत्व में लड़ने की बात ज्यादा कारगर होगी। हालांकि इसमें भी खतरा यह है कि भाजपा की तरफ से बार बार पूछा जाएगा कि ‘दूल्हा’ कौन है और यह धारणा बनाई जाएगी कि नरेंद्र मोदी का मुकाबला करने के लिए विपक्ष के पास कोई चेहरा नहीं है। फिर भी अगर विपक्ष होशियारी से यह धारणा बनवाने में कामयाब होता है कि देश को पहला बंगाली प्रधानमंत्री मिल सकता है या पहला बिहारी प्रधानमंत्री मिल सकता है या पहला मराठी प्रधानमंत्री मिल सकता है या चंद्रशेखर के 31 साल बाद उत्तर प्रदेश का कोई असली नेता प्रधानमंत्री बन सकता है तो अस्मिता की यह राजनीति हर राज्य में कारगर हो सकती है। सो, चेहरा तय करने की जिद पर अड़े नेताओं को इस बारे में सोचना चाहिए और नफा-नुकसान देख कर ही कोई फैसला करना चाहिए। तीसरी कसौटी यह है कि विपक्ष के पास क्या वैकल्पिक विचार है? क्या भाजपा के हिंदुत्व, राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा के एजेंडे के बरक्स विपक्ष के पास कोई मजबूत विचार है? अभी विपक्षी पार्टियां कंफ्यूज दिखाई देती हैं। विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस बार बार विचारधारा की बहस में लौटती है और भाजपा के सामने उसको मुंह की खानी पड़ती है। इसलिए विचारधारा की बहस में पड़ने की बजाय अगर विपक्ष नागरिकों की मुश्किलों को मुद्दा बनाए, सरकार की आर्थिक नीतियों की विफलताओं को मुद्दा बनाए और राष्ट्रीय सुरक्षा की चुनौतियों को उठाए तो उसका काम आसान हो सकता है। देश के लोग महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी से परेशान हैं। ये वास्तविक मुद्दे हैं और विपक्ष को इसी पर टिके रहना चाहिए। देश में 96 फीसदी के करीब हिंदू आबादी वाले राज्य हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की जीत से विपक्ष को सबक लेना चाहिए। रोजगार और पेंशन का मुद्दा वहां इतना काम आया कि लोगों ने भाजपा को हरा कर कांग्रेस को पूर्ण बहुमत दिया। अंत में यह सवाल है कि विपक्ष के नेता कैसे यह सब करेंगे? उनको अपनी महत्वाकांक्षा छोड़नी होगी, आराम छोड़ कर दिन रात काम में लगना होगा, संसाधनों का साझा करना होगा और सबसे ऊपर केंद्रीय एजेंसियों का खतरा उठाना होगा। लगभग सभी क्षेत्रीय पार्टियों की अपनी अपनी समस्या है। वे केंद्र के हस्तक्षेप से डरी रहती हैं। भाजपा के हमले और केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई के कारण लगभग सभी क्षेत्रीय पार्टियां प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से केंद्र के साथ शांति बनाने के प्रयास करती हैं। भाजपा के आक्रामक प्रयासों और राजनीति के कारण कई राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियां कमजोर हुई हैं। महाराष्ट्र में शिव सेना, बिहार में जदयू, उत्तर प्रदेश में बसपा, तमिलनाडु में अन्ना डीएमके जैसी कई पार्टियां कमजोर हुई हैं। उन्हें अपनी मजबूती के लिए भी काम करना होगा।
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