क्या सन् 2022 में या सन् 2023-24 में? यह गलतफहमी न रखें कि वैक्सीन आ गई है तो छह- आठ महिने में भारत कोविड़-19 के संक्रमण से मुक्त हो जाएगा। कतई नहीं। अपना मानना है कि सन् 2021-22 तो भारत में वायरस का पीक होगा। इसलिए कि भारत की राजनीति ने जितनी लापरवाही, जितना मजाक, जितना अज्ञान सन् 2020 में वायरस को ले कर दिखाया है उससे वह पू देश की हवा में घुलमिल गया है और उसका क्रमशः विस्फोट धीरे-धीरे भारत को लगातार घायल किए करेगा। दुनिया का सर्वाधिक प्रभावित देश भारत होगा और उसके देश की दशा-दिशा-आर्थिकी, जनजीवन परसालों परिणाम भुगतने पड़ेंगे।
यह भी जान ले कि सन् 2021 में अमेरिका-योरोपीय देश भी सामान्य नहीं होने है। जनवरी 2021 से यदि अमेरिका-ब्रिटेन में टीके लगने शुरू हुए तब भी गर्मियों में जा कर इन देशों के कुछ ‘नार्मल’ होने का अनुमान है। नार्मल का मतलब शत-प्रतिशत वायरस मुक्ति नहीं है। यह जरूर संभव है कि अगली क्रिसमस तक अमेरिका-योरोप व दुनिया के अमीर-विकसित देशों में लोग बिना मास्क के बेफिक्र घूमना शुरू कर दें।
इसका अर्थ है कि कोरोना वायरस की सर्वाधिक मार का अमेरिका-योरोप-दुनिया को अनुभव इस दिशंबर की क्रिसमस में होना है। एक महिने बाद दुनिया क्रिसमस के त्योहार को, छुट्टियों को घर में बैठ कर मनाएगी। समकालीन इतिहास में वर्ष 2020 का क्रिसमस वायरस के कारण कभी नहीं भुलाया जा सकेगा। विकसित -अमीर देशों में लगभग तालाबंदी की दशा में क्रिसमस मनाया जाना है। न्यूयार्क-लंदन की सड़कों पर सन् 2021 के नए साल का स्वागत बदला हुआ होगा। 20 जनवरी को राष्ट्रपति ट्रंप व्हाइट हाउस छोडे उससे पहले अमेरिका में टीकाकरण का रोडमैप शायद ही बन पाए। सो अमेरिका हो या योरोप सभी देशों का क्रिसमस महामारी की त्रासदी को घर-घर में यह फील कराने वाला होगा कि वायरस ने क्या नौबत ला दी है और इंसान की लापरवाही की कैसी कीमत चुकानी पड़ रही है।
भारत बनाम अमेरिका-योरोप या शेष विश्व का मौटा फर्क यह है कि बाकि देशों में पिछले आठ महिनों से लगातार वायरस की चिंता रही है। वहां हर दिन सरकार, मीडिया की नंबर एक खबर, टीवी चैनलों की दो -तिहाही न्यूज में वायरस छाया रहता है जबकि भारत में नरेंद्र मोदी सरकार ने वायरस की खबरों को गुल किए रहने की रणनीति बनाई हुई है। उसकी एकमेव चिंता आर्थिकी व सरकार की कमाई की है। देश को हर तरह से अनलॉक करके वायरस के साथ जीने का आव्हान करते हुए लोगों को लापरवाह बनने दिया। असली आरटी-पीसीआर टेस्ट के बजाय रेपिड टेस्ट से सब कंट्रोल का मुगालता बनाया। मतलब भारत ने वायरस को उस गंभीरता से लिया ही नहीं जैसे अमेरिका-योरोप के देशों ने लिया है। तभी दुनिया में भारत को वायरस की मार सर्वाधिक लंबी भुगतनी पड़ेगी। जनता में सरकार ने वायरस का जैसा झूठ बनाया उसके चलते देश की लंबी-चौड़ी आबादी वैक्सीन आने पर भी टीका लगाने से भागी रहेगी। गरीब-आदिवासी-मुसलमान आबादी में यह जिद्द होगी ही नहीं कि जैसे भी हो फटाफट टीका लगाओं। जब काढ़े, दीया-ताली-थाली जैसा अंधविश्वास घर-घर पहुंचा हुआ है और बेफिक्री में लोग घूम रहे है तो वैक्सीन-टीके की जागरूकता कैसे बनेगी? लोग अपने को वायरस प्रूफ मान रहे है तो आगे बड़ी आबादी को टीके को लेकर आंशकाएं होनी है।
हां, हकीकत है कि अमेरिका, ब्रिटेन में भी यह आंशका है कि सब लोग टीके के लिए तैयार होंगे या नहीं? गरीब-अल्पसंख्यक-नस्लीय आबादियों में टीकाकरण प्रोग्राम कैसे चलेगा तो भारत में लोगों को मनोवैज्ञानिक तौर पर टीके के लिए तैयार करना कितना समय लेगा इसकी क्या कल्पना है?
भारत की हिंदी पत्रकारिता में मौलिक चिंतन, बेबाक-बेधड़क लेखन का इकलौता सशक्त नाम। मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक-बहुप्रयोगी पत्रकार और संपादक। सन् 1977 से अब तक के पत्रकारीय सफर के सर्वाधिक अनुभवी और लगातार लिखने वाले संपादक। ‘जनसत्ता’ में लेखन के साथ राजनीति की अंतरकथा, खुलासे वाले ‘गपशप’ कॉलम को 1983 में लिखना शुरू किया तो ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ में लगातार कोई चालीस साल से चला आ रहा कॉलम लेखन। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम शुरू किया तो सप्ताह में पांच दिन के सिलसिले में कोई नौ साल चला! प्रोग्राम की लोकप्रियता-तटस्थ प्रतिष्ठा थी जो 2014 में चुनाव प्रचार के प्रारंभ में नरेंद्र मोदी का सर्वप्रथम इंटरव्यू सेंट्रल हॉल प्रोग्राम में था।
आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों को बारीकी-बेबाकी से कवर करते हुए हर सरकार के सच्चाई से खुलासे में हरिशंकर व्यास ने नियंताओं-सत्तावानों के इंटरव्यू, विश्लेषण और विचार लेखन के अलावा राष्ट्र, समाज, धर्म, आर्थिकी, यात्रा संस्मरण, कला, फिल्म, संगीत आदि पर जो लिखा है उनके संकलन में कई पुस्तकें जल्द प्रकाश्य।
संवाद परिक्रमा फीचर एजेंसी, ‘जनसत्ता’, ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, ‘राजनीति संवाद परिक्रमा’, ‘नया इंडिया’ समाचार पत्र-पत्रिकाओं में नींव से निर्माण में अहम भूमिका व लेखन-संपादन का चालीस साला कर्मयोग। इलेक्ट्रोनिक मीडिया में नब्बे के दशक की एटीएन, दूरदर्शन चैनलों पर ‘कारोबारनामा’, ढेरों डॉक्यूमेंटरी के बाद इंटरनेट पर हिंदी को स्थापित करने के लिए नब्बे के दशक में भारतीय भाषाओं के बहुभाषी ‘नेटजॉल.काम’ पोर्टल की परिकल्पना और लांच।