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विपक्षी एकता का कौन सा मॉडल?

देश के राष्ट्रीय चुनावों में विपक्षी एकता के वैसे तो कई मॉडल आजमाए गए हैं लेकिन तीन मॉडल सफल हुए हैं। पहला मॉडल 1977 का है, दूसरा 1989 का और तीसरा 2004 का। ये तीनों कई मामलों में बिल्कुल अलग अलग मॉडल थे और समय की जरूरत के हिसाब से बने थे। अब सवाल है कि 2024 में इनमें से कोई मॉडल अपनाया जाएगा या मौजूदा समय के हिसाब से कोई नया मॉडल तैयार होगा? यह सवाल इसलिए है क्योंकि देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस 2024 के लोकसभा चुनाव में गठबंधन की जरूरत बताने लगी है। विपक्ष के एक महत्वपूर्ण नेता नीतीश कुमार ने भी गेंद कांग्रेस के पाले में डाली है और कहा है कि कांग्रेस तय करे कि किस तरह से विपक्षी एकता बनानी है। पिछले तीन सफल मॉडल की खूबियों-कमियों को समझने से यह अंदाजा लग सकता है कि 2024 में किस तरह के मॉडल के सफल होने की संभावना ज्यादा रहेगी।

सबसे पहले 1977 मॉडल की बात, जिसके बारे में एक बार अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि,‘सबने अपनी अपनी नौकाएं जला दीं और जनता पार्टी के जहाज पर सवार हो गए’। उस समय लगभग सभी समाजवादी पार्टियों और भारतीय जनसंघ का विलय हो गया था और जनता पार्टी बनी थी। इस मॉडल की दूसरी खास बात यह थी कि जयप्रकाश नारायण जनता पार्टी के सर्वोच्च नेता थे लेकिन वे प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं थे। जेपी सर्वोच्च नेता थे तो चंद्रशेखर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। मोरारजी देसाई से लेकर बाबू जगजीवन राम तक कांग्रेस छोड़ने वाले अनेक बड़े नेता थे तो मधु लिमये, चौधरी चरण सिंह, राजनारायण जैसे समाजवाद के पुरोधा भी साथ थे। अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे हिंदू राष्ट्रवादी राजनीति करने वाले नेता भी इसमें थे। यह सही मायने में सामूहिक नेतृत्व से इंदिरा गांधी को चुनौती देने वाली लड़ाई थी। परंतु इसके बिखरने के बीज इसकी स्थापना में ही छिपे हुए थे। अपनी अपनी पार्टियों की स्वतंत्र राजनीति कर चुके नेताओं को लंबे समय तक किसी एक नेता के नेतृत्व में रखना संभव नहीं था तो कांग्रेस, समाजवादी और हिंदू राष्ट्रवाद की बिल्कुल अलग अलग विचारधारा के नेताओं का भी लंबे समय तक साथ रहना संभव नहीं था।

गैर-कांग्रेसवाद के खिलाफ दूसरा प्रयोग 1989 का था। उस समय तक विपक्षी राजनीति ज्यादा परिष्कृत हो चुकी थी और पार्टियों ने 1977 के प्रयोग से सीखा भी था। तभी साथ आने की बजाय समाजवादी, साम्यवादी और हिंदुवादी, अलग अलग लड़े। पार्टियों का विलय करने और या एक मोर्चा बनाने की बजाय सब अलग अलग लड़े। जनता दल में सिर्फ समाजवादी पार्टियां शामिल हुईं। कम्युनिस्ट पार्टियों का अपना मोर्चा रहा और भाजपा पहली बार राम मंदिर के एजेंडे पर चुनाव लड़ी। यह प्रयोग 1977 से इस मायने में भी अलग था कि इसमें अघोषित रूप से वीपी सिंह चेहरा थे, जिन्होंने राजीव गांधी को चुनौती दी थी। यह प्रयोग भी सफल रहा है। लेकिन इस प्रयोग के बाद जो सरकार बनी वह भी 1977 वाली गति को प्राप्त हुई। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि समाजवाद की सरकार साम्यवादी और हिंदुवादी ताकतों के समर्थन से चल रही थी।

गठबंधन का नया प्रयोग या नया मॉडल 2004 में देखने को मिला। यह मॉडल पहले के दोनों मॉडल से बिल्कुल अलग था। इस बार न तो कोई जेपी जैसा बड़ा नेता था, न पार्टियों का विलय करके कोई बड़ी पार्टी बनी थी, न बोफोर्स जैसा कोई मुद्दा था और न वीपी सिंह जैसा कोई नेता। कांग्रेस का कुछ चुनिंदा पार्टियों के साथ गठबंधन था और बाकी सभी विपक्षी पार्टियों ने अपना अपना चुनाव लड़ा था। इस बार विपक्ष के सफल होने का कारण सत्तापक्ष का अहंकार और छह साल के राज की विफलताएं थीं। कोई विकल्प नहीं होने की सोच में भाजपा नेता समय से पहले चुनाव में गए और इंडिया शाइनिंग व फीलगुड में ऐसी योजनाओं का प्रचार किया, जो अभी धरातल पर नहीं उतरी थीं। फिर भी कांग्रेस और भाजपा से सिर्फ सात सीटों का मामूली अंतर था। परंतु वामपंथी, समाजवादी व प्रादेशिक पार्टियों ने भाजपा को रोकने के लिए कांग्रेस की सरकार बनवाई।

सवाल है कि इन तीन में कोई मॉडल 2024 में कारगर हो सकता है या नया मॉडल बनाना होगा? ध्यान रहे देश की राजनीति पिछले 10 साल में बहुत बदल चुकी है और भारतीय जनता पार्टी एक विचारधारा आधारित सामान्य राजनीतिक पार्टी नहीं रह गई है। वह चुनाव लड़ने वाली विशालकाय मशीनरी में बदल गए है, जिसके पास बेहिसाब संसाधन है और हर हाल में चुनाव जीतने या सत्ता हासिल करने की भूख है। दूसरी ओर विपक्षी पार्टियां पहले की तरह भारतीय राजनीति में न तो किसी वैचारिक स्पेस का प्रतिनिधित्व कर रही हैं, न उनके पास कोई अखिल भारतीय स्तर का चमत्कारिक नेता है और न उनके पास संगठन व संसाधन हैं। कांग्रेस और लेफ्ट दोनों में विचारधारा का विचलन साफ दिख रहा है और समाजवादी पार्टियां विशुद्ध रूप से प्रादेशिक, जातिवादी और परिवारवादी संगठन में बदल गई हैं। 1977 और 1989 में यह स्थिति नहीं थी।

तभी कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियों को दूसरे और बिल्कुल नए मॉडल पर काम करना होगा। एक स्तर पर राजनीतिक हालात 2004 से मिलते जुलते हैं, जब सरकार कोई विकल्प नहीं होने के अहंकार से भरी थी और अपनी कथित उपलब्धियों को लेकर इतनी आश्वस्त थी कि उसने खुद ही इंडिया शाइनिंग और फीलगुड का डंका बजा दिया था। इस समय भी माना जा रहा है कि नरेंद्र मोदी का कोई विकल्प नहीं है। इस बार इंडिया शाइनिंग की जगह अमृत काल और विश्व गुरू भारत का डंका बजाया जा रहा है, जबकि जनता महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी, सामाजिक टकराव और असुरक्षा से ग्रसित है। 2004 के मुकाबले फर्क यह है कि इस बार सत्तारूढ़ भाजपा के पास हिंदुत्व का हथियार है। अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की भाजपा भी हिंदू राष्ट्रवाद की राजनीति करती थी लेकिन हिंदुत्व को हथियार बना कर उन्होंने समाज को 80 और 20 फीसदी वोटर में नहीं बांटा था। विपक्ष के सामने इस समय सबसे बड़ी चुनौती यह विभाजन है, जिसकी कोई काट नहीं दिख रही है।

तभी इस बार विपक्ष को ज्यादा सावधानी से अपना मॉडल तैयार करना होगा। वह 1989 और 2004 के मॉडल का मिला जुला रूप हो सकता है। एक बड़ा गठबंधन बनाने की बजाय कांग्रेस का एक गठबंधन उन राज्यों में हो, जहां किसी भी प्रादेशिक पार्टी के हित प्रभावित नहीं हो रहे हों। इसका मतलब है कि अभी जो यूपीए है वह बना रहे और उसके घटक दलों के बीच सीटों का तालमेल हो जाए। उसमें दूसरी विपक्षी पार्टियां दखल न दें। यानी कांग्रेस और एनसीपी व शिव सेना का महाराष्ट्र में गठबंधन हो, कांग्रेस व राजद-जदयू का बिहार में, कांग्रेस और जेएमएम का झारखंड में, कांग्रेस और डीएमके का तमिलनाडु में गठबंधन हो जाए और दूसरी प्रादेशिक पार्टियां इसमें दखल न दें तो 161 सीटों पर भाजपा के मुकाबले विपक्ष का एक साझा उम्मीदवार होगा। इसी तरह पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और लेफ्ट ममता को लड़ने दें, तेलंगाना में कांग्रेस केसीआर को लड़ने दे और दिल्ली व पंजाब में आम आदमी पार्टी को लड़ने दे तो 79 और सीटों पर भाजपा के खिलाफ विपक्ष का साझा उम्मीदवार हो जाएगा। केरल में कांग्रेस व लेफ्ट और कर्नाटक में कांग्रेस और जेडीएस में तालमेल हो जाए तो 48 अन्य सीटें भी साझा लड़ाई वाली हो जाएंगी। इस तरह 288 सीटें ऐसी हो जाएंगी, जिन पर विपक्ष का एक एक उम्मीदवार होगा। उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी का विपक्षी गठबंधन में शामिल होना मुश्किल है लेकिन अगर कांग्रेस और सपा के बीच भी तालमेल हो जाए तो 80 सीटों पर विपक्ष मजबूत टक्कर दे सकता है।

इसके बाद बची हुई 175 सीटों में आंध्र प्रदेश एक ऐसा राज्य है, जहां दो प्रादेशिक पार्टियां हैं लेकिन उनमें से कोई भी कांग्रेस के साथ तालमेल नही करेगा। असम और पूर्वोत्तर में जरूर कांग्रेस कुछ क्षेत्रीय पार्टियों के साथ तालमेल कर सकती है। आंध्र प्रदेश और पूर्वोत्तर में 50 सीटें हैं। इनके अलावा 125 ही सीटें ऐसी हैं, जो भाजपा के सर्वाधिक मजबूत क्षेत्र में हैं और वहां कांग्रेस के साथ उसकी सीधी लड़ाई है। इन 125 में से 114 सीटें भाजपा के पास हैं। इन पर भाजपा को चुनौती तभी होगी, जब कांग्रेस की स्थिति सुधरे। सीटों के रणनीतिक एडजस्टमेंट के अलावा विपक्ष को 1977 और 2004 से सबक लेकर इस बार भी कोई नेता प्रोजेक्ट करने की जरूरत नहीं है।

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