अरविंद केजरीवाल की राजनीति देख कर ऐसा लग रहा है कि उनका इतिहास अपने को दोहरा रहा है। कोई 13-14 साल पहले अरविंद केजरीवाल ने इंडिया अगेंस्ट करप्शन के बैनर तले एक सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत की थी। उस समय उन्होंने अन्ना हजारे को आगे किया था और पूरे देश में आंदोलन का ऐसा तूफान खड़ा किया था कि मनमोहन सिंह जैसे ईमानदार और भले प्रधानमंत्री की छवि को धूल में मिला दिया था। अन्ना हजारे और केजरीवाल के आंदोलन ने यूपीए सरकार के सारे अच्छे कामों पर भी पानी फेर दिया था। यूपीए सरकार ने कई अधिकार आधारित कानून बनाए थे, जिनसे आम लोगों का जीवन बदला था और लोकतंत्र को मजबूती मिली थी। लेकिन अन्ना और केजरीवाल के उठाए भ्रष्टाचार के बवंडर में सारे सत्कर्म भी समाप्त हो गए।
केजरीवाल तब इतने बड़े आंदोलन का राजनीतिक लाभ लेने की स्थिति में नहीं थे। उनके पास संगठन नहीं था और अखिल भारतीय स्तर की राजनीति करने की सलाहियात नहीं थी। हालांकि ऐसा नहीं है कि उन्होंने प्रयास नहीं किया। उन्होंने 2014 के लोकसभा चुनाव में सवा चार सौ से ज्यादा उम्मीदवार उतारे और खुद वाराणसी जाकर भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ा। लेकिन कामयाबी नहीं मिली। उनकी पार्टी के सिर्फ चार ही सांसद जीत सके। वे सिर्फ दिल्ली, पंजाब तक सिमट गए और उनके आंदोलन का पूरा फायदा भाजपा को मिल गया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि भाजपा उस स्थिति का फायदा उठाने की स्थिति में थी। उसके पास पूरे देश में मजबूत संगठन था, राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ का समर्थन था और नरेंद्र मोदी जैसा नेता था। सो, माहौल अन्ना हजारे और केजरीवाल ने बनाया, फायदा भाजपा और नरेंद्र मोदी ले गए। एक फिल्मी गाने से इसे ऐसे समझें- भंवरे ने खिलाया फूल, फूल को ले गया राजकुंवर!
अब केजरीवाल फिर फूल खिलाने की तैयारी में हैं। इस बार उन्होंने भाजपा के खिलाफ जंग छेड़ी है। धारणा की लड़ाई में इस बार उनका निशाना नरेंद्र मोदी हैं। वे मोदी को कम पढ़ा लिखा या अनपढ़ साबित करने की कोशिश कर रहे हैं। वे बार बार कह रहे हैं कि यह देश महत्वाकांक्षी युवाओं का है और उनका अधिकार है कि उनको पढ़ा लिखा प्रधानमंत्री मिले। वे बहुत विस्तार से समझाते हैं कि कम पढ़ा लिखा प्रधानमंत्री होने का क्या नुकसान होता है। वे नोटबंदी से लेकर जीएसटी तक के फैसलों को अनर्थकारी बताते हुए उनकी मिसाल देते हैं। केजरीवाल केंद्र सरकार के ऊपर भ्रष्टाचार के बड़े आरोप भी लगा रहे हैं। उन्होंने दावा किया है कि 70 साल में कांग्रेस ने इस देश को जितना लूटा उससे ज्यादा केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने सात साल में लूट लिया है। उन्होंने भाजपा के आरोपों का मुंह उसी की तरफ मोड़ते हुए कहा कि सीबीआई और ईडी की वजह से विपक्ष एकजुट नहीं हुआ है, बल्कि एजेंसियों के डर से विपक्ष के सारे भ्रष्ट नेता भाजपा में चले गए हैं।
जाहिर है कि केजरीवाल यह काम अपने लिए कर रहे हैं। वे खुद को कट्टर ईमानदार बताते हैं और पढ़े-लिखे होने का सबूत भी उनके पास है। वे आईआईटी खड़गपुर से पढ़े हैं और भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी रहे हैं। सो, मोदी के कंट्रास्ट में वे अपने को पेश कर रहे हैं। अब सवाल है कि दो राज्य सरकारों के प्रचार तंत्र और मीडिया व सोशल मीडिया में अपनी पहुंच व लोकप्रियता का फायदा उठा कर अगर वे नरेंद्र मोदी की छवि को खंडित करते हैं, उसे तोड़ने में कुछ हद तक भी कामयाब होते हैं तो क्या वे इसका चुनावी लाभ लेने की स्थिति में हैं या इस बार फिर उनकी मेहनत का फल किसी और को मिल जाएगा? क्या ऐसा हो सकता है कि कांग्रेस की तत्कालीन सरकार के खिलाफ अभियान का फायदा भाजपा को मिला था तो भाजपा सरकार के खिलाफ अभियान का फायदा कांग्रेस को मिल जाए? यह सवाल इसलिए है क्योंकि आम आदमी पार्टी के पास अब भी पूरे देश में संगठन और कार्यकर्ता नहीं हैं। उसकी स्थिति पूरे देश में भाजपा को चुनौती देने की नहीं है। उसके मुकाबले में कांग्रेस ज्यादा बेहतर स्थिति में है।
केजरीवाल के अलावा दूसरी प्रादेशिक पार्टियां भी अपने अपने स्तर पर भाजपा और केंद्र सरकार के खिलाफ अभियान चला रही हैं। पश्चिम बंगाल में सरकार चला रही तृणमूल कांग्रेस और तेलंगाना में सत्तारूढ़ भारत राष्ट्र समिति भी अपने अपने संसाधनों से भाजपा के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं। उनका फोकस केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग पर है और वे यह साबित करने में जुटे हैं कि भ्रष्टाचार का आरोप उन्हीं विपक्षी नेताओं पर लग रहा है, जो भाजपा से समझौता नहीं कर रहे हैं। जो समझौता कर लेता है, भाजपा में चला जाता है उसके सारे दाग धुल जाते हैं। इसे दिखाने के लिए ममता बनर्जी ने पिछले दिनों कोलकाता में वाशिंग मशीन लेकर प्रदर्शन किया और कहा कि भाजपा इसी तरह की वाशिंग मशीन हो गई है, जिसमें काला कपड़ा डालने पर वह सफेद होकर निकलता है। अपनी बात साबित करने के लिए ये कई ऐसे नेताओं के नाम लेते हैं, जो कांग्रेस या दूसरी पार्टियां छोड़ कर भाजपा में गए हैं।
कांग्रेस और ज्यादातर प्रादेशिक पार्टियों के खिलाफ भाजपा का सबसे बड़ा हथियार वंशवाद का आरोप है। अरविंद केजरीवाल को इस आरोप से कोई मतलब नहीं है। इसलिए वे इस पर चुप हैं। लेकिन बाकी प्रादेशिक पार्टियां इसे लेकर मुखर हैं और वे अपने अपने प्रचार तंत्र के दम पर भाजपा के अंदर के वंशवाद को सार्वजनिक करने में लगे हैं। इस काम में कई जाने माने सामाजिक कार्यकर्ता भी शामिल हैं। ऐसे सामाजिक कार्यकर्ता, जो पहले आम आदमी पार्टी के साथ रह चुके हैं। वे सोशल मीडिया में प्रचारित करते हैं कि भाजपा के कितने बड़े नेताओं के बेटे या बेटियां इस समय विधायक, सांसद या मंत्री हैं या किसी दूसरे उच्च पद पर बैठाए गए हैं। इसमें केंद्र से लेकर राज्यों तक में भाजपा के अनेक बड़े नेताओं के नाम आ रहे हैं।
सो, किसी न किसी तरह से तमाम विपक्षी पार्टियां, प्रधानमंत्री मोदी के बारे में बनी धारणा को तोड़ने के प्रयास में लगी हैं। कम पढ़ा लिखा बता कर नई सदी में नई पीढ़ी के अनुरूप विकास करने की उनकी क्षमता पर सवाल उठाया जा रहा है तो अदानी समूह के बहाने सरकार की ईमानदारी के कठघरे में खड़ा किया जा रहा है और भाजपा नेताओं के बेटे बेटियों की तस्वीरों के सहारे वंशवाद पर उनके हमले को हिप्पोक्रेसी साबित किया जा रहा है। हो सकता है कि यह अभियान पूरे देश में सफल न हो लेकिन संबंधित राज्य में इसका असर हो सकता है। जहां भाजपा सरकारों के ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं कम से कम वहां के लोग तो इसे समझते हैं। मिसाल के तौर पर कर्नाटक का मामला हैं। वहां भाजपा दूसरी पार्टियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए और खुद को पाक साफ बताए तो लोग कितना यकीन करेंगे! इसी तरह जिन राज्यों में भाजपा नेताओं के बेटे बेटी राजनीति कर रहे हैं वहां दूसरी पार्टियों पर वंशवाद का आरोप कितना कारगर होगा! तभी अगर विपक्ष धारणा की लड़ाई में कुछ भी कामयाब होता है तो उसका फायदा किसको मिलेगा? क्या कांग्रेस उसका फायदा उठाने की स्थिति में है?