लाख टके का सवाल है कि मीडिया को जवाबदेह बनाने की जिम्मेदारी किसकी होगी? संसद, सरकार या न्यायपालिका में से कोई आगे बढ़ कर मीडिया की नकेल पकड़ेगा और उसे घुटनों पर बैठा देगा या आम लोग उठ खड़े होंगे और मीडिया को जवाबदेह बनाने की पहल करेंगे या बाजार की ताकतें मीडिया को जवाबदेह बनाएंगी? सरकार ने तो अपना पल्ला झाड़ लिया है। पैसे देकर टीआरपी बढ़वाने का न्यूज चैनलों का घोटाला खुला तो सूचना व प्रसारण मंत्री ने कहा कि व्यवस्था में व्यापक बदलाव की जरूरत है पर यह बदलाव करना सरकार के कार्यक्षेत्र में नहीं है। तो क्या न्यायपालिका से उम्मीद की जा सकती है? उसकी भी सीमाएं हैं।
देश की कई अदालतों में मीडिया और मीडिया से जुड़े लोगों को लेकर मुकदमे दायर हुए हैं। कोरोना वायरस के प्रसार के बिल्कुल शुरुआती दिनों में दिल्ली में तबलीगी जमात के लोगों के बड़ी संख्या में संक्रमित पाए जाने की घटना की जैसी कवरेज हुई थी, उसे लेकर पिछले दिनों उच्च न्यायपालिका ने नाराजगी जाहिर की। अदालत ने कहा कि अभिव्यक्ति की आजादी का दुरुपयोग किया गया। मीडिया द्वारा अभिव्यक्ति की आजादी के दुरुपयोग को लेकर हिंदी फिल्म उद्योग सामूहिक रूप से अदालत में पहुंचा है और फिल्म उद्योग के बारे में अनाप-शनाप बोलने पर रोक लगाने की मांग की है। उम्मीद कर सकते हैं कि अदालतों में चल रहे मुकदमों से कोई रास्ता निकलेगा।
उससे पहले बाजार ने भारतीय मीडिया को जवाबदेह बनाने की एक पहल की है और उसका स्वागत किया जाना चाहिए। हालांकि उसके अपने खतरे हैं परंतु अगर मीडिया की साख, उसकी शुचिता और स्वतंत्रता बचानी है तो ऐसी पहलों का स्वागत करना होगा। देश की बिस्कुट बनाने वाली मशहूर कंपनी पारले-जी ने कहा है कि वह आक्रामक और जहरीली सामग्री का प्रसारण करने वाले चैनलों को अपने किसी उत्पाद का विज्ञापन नहीं देगी। इससे पहले ऑटोमोबाइल सेक्टर की कंपनी बजाज समूह ने ऐलान किया कि वह भड़काऊ और समाज को बांटने वाले कंटेंट का प्रसारण करने वाले चैनलों को विज्ञापन नहीं देगा।
दोनों कंपनियों की पहल अच्छी है और उनकी मंशा पर भी संदेह नहीं करना चाहिए। हालांकि इसमें खतरा यह है कि देश में हर जगह राजनीतिक रूझान के आधार पर विभाजन हो रहा है उसे देखते हुए संभव है कि आगे कोई कंपनी ऐसा कहे कि सरकार विरोधी कंटेंट दिखाने वाले को विज्ञापन नहीं देंगे या अमुक पार्टी या अमुक नेता का विरोध करने वाले चैनल या अखबार को विज्ञापन नहीं देंगे। अगर ऐसा होगा तो इससे मीडिया की जवाबदेही बनने की बजाय और बिगड़ने का खतरा पैदा हो जाएगा। बहरहाल, सोचें कैसा समय आ गया है? नैतिकता के सर्वोच्च शिखर पर बैठ कर पत्रकार सब पर सवाल उठाते हैं। राजनीति से लेकर, बाजार और खेल से लेकर फिल्म तक के कामकाज में खोट निकालते हैं और आज फिल्मों से जुड़े लोग नसीहत दे रहे हैं तो राजनेता मीडिया की हालत पर अफसोस जाहिर कर रहे हैं!
तभी सबसे अच्छी बात यह होगी कि मीडिया अपना नियमन खुद करे। पर सवाल है कि मीडिया अपना नियमन खुद कैसे करे? नियमन करने का एक तरीका तो यह है कि पत्रकारिता के उच्च आदर्शों को सामने रखा जाए और उनके हिसाब से आचरण हो। परंतु मौजूदा समय में यह संभव नहीं है। अखबारों को प्रसार संख्या में नंबर वन होना है तो चैनलों को टीआरपी में नंबर वन आना है और बिल्कुल नए पैदा हुए डिजिटल मीडिया को व्यूअर्स की संख्या में नंबर वन होना है। ऊपर से इन दिनों नंबर वन बनाने के कई चोर दरवाजे बन गए हैं। डिजिटल मीडिया को फर्जी या भाड़े के व्यूअर्स दिलाने का काम धड़ल्ले से चल रहा है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पैसे लेकर कंटेंट प्रमोट करते हैं। ऐसे में सिर्फ अच्छा कंटेंट देना सफल होने की गारंटी नहीं है।
यहीं खेल प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया में बरसों से चल रहा है। अखबार बढ़ा-चढ़ा कर अपनी प्रसार संख्या दिखाते हैं और न्यूज चैनल टीआरपी बढ़ाने के लिए दस तरह के उलटे-सीधे काम करते हैं। विज्ञापन हासिल करने के लिए ऐसा करना जरूरी होता है। असल में विज्ञापन की पूरी व्यवस्था संख्या के इस गणित पर टिकी है। संख्या बढ़ाने की होड़ के कारण ही कंटेंट की गुणवत्ता प्रभावित होती है। अपनी होड़ में अखबार, चैनल और डिजिटल मीडिया लोगों की अभिरूचि को प्रभावित कर रहे हैं। हर चीज को इस आधार पर न्यायसंगत ठहराया जाता है कि लोग यहीं देखना चाहते हैं। जबकि हकीकत इसके उलटी होती है। लोग मजबूरी में खराब कंटेंट देखते और पढ़ते हैं। देश के किसी नागरिक ने कहा नहीं था पर न्यूज चैनलों ने बरसों पहले खुद ही यह सिद्धांत प्रतिपादित किया था कि थ्री ‘सी’ यानी सिनेमा, क्रिकेट और क्राइम बिकता है। बरसों तक चैनल यहीं तीन चीजें बेचते रहे। इसके बाद हर चीज को सनसनी बना कर बेचने का चलन शुरू हुआ, जो अभी तक चल रहा है। सबसे आगे रहने की होड़, सबसे पहले खबर दिखाने की जल्दी और सबसे ज्यादा सनसनीखेज बना कर खबर पेश करने की चिंता में चैनलों, डिजिटल मीडिया प्लेटफॉर्म्स और कुछ हद तक अखबारों ने भी अपनी साख का भट्ठा बैठाया है। नंबर वन बनने और ज्यादा से ज्यादा विज्ञापन हासिल करने की होड़ में लोकतंत्र के चौथे स्तंभ ने अपने को तमाशे में बदल लिया है, जिसे हर हाल में ठीक करने की जरूरत है।
संसद और सरकार यह काम कर सकती है, अदालतें यह काम कर सकती है और बाजार ने तो शुरू कर ही दिया है। लेकिन अच्छा होता अगर यह काम मीडिया खुद से करता। अगर बाहर की ताकतें, चाहे वह कोई संवैधानिक संस्था ही क्यों न हो, मीडिया को नियंत्रित करने या जिम्मेदार बनाने की पहल करेगी तो मीडिया को अपनी आजादी और अधिकार गंवाने पड़ सकते हैं। सो, मीडिया समूहों को खुद से पहल करनी चाहिए। एडिटर्स गिल्ड है, प्रेस एसोसिएशन है, ब्रॉडकास्ट एसोसिएशन है, प्रेस कौंसिल है, प्रेस क्लब और पत्रकारों के कई प्रतिष्ठित संगठन हैं, उनको आगे आना चाहिए। अपने अंदर की काली भेड़ों को पहचान कर उन्हें चेतावनी देनी चाहिए। ऐसी कार्रवाई होनी चाहिए, जिससे सरकार, संसद और अदालतों को यह मैसेज जाए कि मीडिया के अंदर से ही गड़बड़ियों को ठीक करने का प्रयास किया जा रहा है। यह अपने को और अपनी गौरवशाली विरासत को बचाने की निर्णायक पहल का समय है। स्वतंत्र और सद्बुद्धि वाली पत्रकारिता बचेगी तभी देश, समाज, लोकतंत्र और नागरिकों को बचाना संभव हो पाएगा।
कौन बनाएगा मीडिया को जवाबदेह?
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