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क्यों डरें महर्षि वेलेंटाइन से ?

सेंट वेलेन्टाइन डे’ का विरोध अगर इसलिए किया जाता है कि वह प्रेम-दिवस है तो इससे बढ़कर अभारतीयता क्या हो सकती है? प्रेम का, यौन का, काम का जो मुक़ाम भारत में है, हिन्दू धर्म में है, हमारी परम्परा में है, वह दुनिया में कहीं नहीं है। धर्म शास्त्रों में जो पुरुषार्थ-चतुष्टय बताया गया है–धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष– उसमें काम का महत्व स्वयंसिद्ध है। काम ही सृष्टि का मूल है। अगर काम न हो तो सृष्टि कैसे होगी? काम के बिना धर्म का पालन नहीं हो सकता। इसीलिए काम पर रचे गए ग्रन्थ को कामशास्त्र कहा गया? शास्त्र किसे कहा जाता है? क्या किसी अश्लील ग्रंथ को कोई शास्त्र कहेगा? शास्त्रकार भी कौन है? महर्षि है! महर्षि वात्स्यायन! वैसे ही जैसे कि महर्षि वेलेन्टाइन जो पैदा हुए, तीसरी सदी में| वे भारत में नहीं, इटली में पैदा हुए।

वात्स्यायन को किसी सम्राट से टक्कर लेनी पड़ी या नहीं, कुछ पता नहीं लेकिन कहा जाता है कि तीसरी सदी के रोमन सम्राट क्लॉडियस द्वितीय और वेलेन्टाइन के बीच तलवारें खिंच गई थीं। क्लॉडियस ने विवाह वर्जित कर दिए थे। उसे नौजवान फ़ौजियों की जरूरत थी। कुँवारे रणबाँकुरों की जरूरत थी। सम्राट के चंगुल से निकल भागनेवाले युवक और युवतियाँ, जिस ईसाई सन्त की शरण में जाते थे, उसका नाम ही वेलेन्टाइन है।

वेलेन्टाइन उनका विवाह करवा देता था, उन्हें प्रेम करने की सीख देता था और जो सम्राट की कारागार में पड़े होते थे, उन्हें छुड़वाने की गुपचुप कोशिश करता था। कहते हैं कि इस प्रेम के पुजारी सन्त को सम्राट क्लॉडियस ने आखिरकार मौत के घाट उतार दिया। किंवदन्ती यह भी है कि मौत के घाट उतरने के पहले वेलेन्टाइन डे प्रेम की नदी में स्नान किया। वे क्लॉडियस की जेल में रहे और जेल से ही उन्होंने जेलर की बेटी को अपना प्रेम-सन्देसा पढ़ाया- कार्ड के जरिए, जिसके अन्त में लिखा हुआ था ‘तुम्हारे वेलेन्टाइन की ओर से’। यह वह पंक्ति है, जो यूरोप के प्रेमी-प्रेमिका अब 1700 साल बाद भी एक-दूसरे को लिखना पसंद करते हैं !

ऐसे सन्त वेलेन्टाइन से भारतीयता का भला क्या विरोध हो सकता है? वेलेन्टाइन नाम का कोई सन्त सचमुच हुआ या नहीं, इस पर यूरोपीय इतिहासकारों में मतभेद है। अगर यह मान भी लें कि वेलेन्टाइन सिर्फ कपोल-कल्पना है तो भी इसमें त्याज्य क्या है? वेलेन्टाइन का दिन आखिर कब मनाया जाता है? फरवरी में, 14 तारीख को! फरवरी तक, मध्य फरवरी तक प्रकृति में, पुरूष में, नारी में, पशु-पक्षी में चराचर जगत में क्या कोई परिवर्तन नहीं होता? आया वसन्त, जाड़ा उड़न्त!

वसन्त के परिवर्तनों का जैसा कालिदास ने ऋतुसंहार में, श्रीहर्ष ने रत्नावली में, भास ने स्वप्नवासवदत्तम् में और विशाखदत्त ने मुद्राराक्षस में अंकन किया है, क्या किसी पश्चिमी नाटककार या कवि ने किया है? सौन्दर्य का, प्रेम का, श्रृंगार का, रति का, मौसम की मजबूरियों का इतना सूक्ष्म चित्रण इतना गहन और स्पष्ट है कि उसे यहाँ लिखने की बजाय वहाँ पढ़ने की सलाह दी जा रही है।

प्रेम के इस व्यापार में हजार वेलेंटाइन को पछाड़ने के लिए एक कालिदास ही काफी है। अगर प्रेम की पूजा के लिए वेलेन्टाइन की भर्त्सना करेंगे तो कालिदास का क्या करेंगे? श्रीहर्ष का क्या करेंगे? बाणभट्ट का क्या करेंगे? संस्कृत के इन महान कवियों के लिए तो बाक़ायदा कोई बूचड़खाना ही खोलना पड़ेगा। खजुराहो और कोणार्क के मंदिरों को ढहाने के लिए तो गज़नियों और गोरियों को बुलाना पड़ेगा।

‘वेलेन्टाइन डे’ के पीछे लट्ठ लेकर पड़े हमारे नौजवानों को शायद पता नहीं कि भारत में मदनोत्सव, वसन्तोत्सव और कौमुदी महोत्सव की शानदार परम्परा रही हैं। इन उत्सवों के आगे ‘वेलेन्टाइन डे’ पानी भरता नज़र आता है। यदि मदनोत्सवों के सम्भाषणों की तुलना ‘वेलेन्टाइन डे’ कार्डों से की जाए तो लगेगा कि किसी सर्चलाइट के आगे लालटेन रख दी गई है, शेर के आगे बकरी खड़ी कर दी गई है और मन भर को कन भर से तौला जा रहा है कौमुदी महोत्सवों में युवक और युवतियाँ बेजान कार्डों का लेन-देन नहीं करते, प्रमत्त होकर वन-विहार करते हैं, गाते-बजाते हैं, रंगरलियाँ करते हैं, गुलाल-अबीर उड़ाते हैं, एक-दूसरे को रंगों से सरोबार करते हैं और उनके साथ चराचर जगत भी मदमस्त होकर झूमता है।

मस्ती का वह संगीत पेड़-पौधों, लता-गुल्मों, पशु-पक्षियों, नदी-झरनों–प्रकृति के चप्पे-चप्पे में फूट पड़ता है। सम्पूर्ण सृष्टि प्रेम के स्पर्श के लिए आतुर दिखाई पड़ती है। सुन्दरियों के पदाघात से अशोक के वृक्ष खिल उठते हैं। सृष्टि अपना मुक्ति-पर्व मनाती है। इस मुक्ति से मनुष्य क्यों वंचित रहे? मुक्ति-पर्व की पराकाष्ठा होली में होती है सारे बन्धन टूटते हैं। मान-मर्यादा ताक पर चली जाती है। चेतन में अचेतन और अचेतन में चेतन का मुक्त-प्रवाह होता है। राधा कृष्ण और कृष्ण राधामय हो जाते हैं।

सम्पूर्ण अस्तित्व दोलायमान हो जाता है, रस में भीग जाता है, प्रेम में डूब जाता है। पद्माकर ने क्या खूब कहा है -“बीथिन में, ब्रज में, नवेलिन में, बेलिन में। बनन में, बागन में बगरौ बसंत है।” ब्रज की गोरी, कन्हैया की जैसी दुर्गति करती है, क्या वेलेन्टाइन के प्रेमी उतनी दूर तक जा सकते हैं? अगर वे जाना चाहें तो जरूर जाएँ लेकिन जाएँगे कैसे? काठ के पाँवों पर आखिर वे कितनी देर नाच पाएँगे? वेलेन्टाइन के भारतीय प्रेमी वह ऊर्जा कहाँ से लाएँगे, जो अपनी ज़मीन से जुड़ने पर पैदा होती है?

काम का भारतीय अट्टहास यूरोप को मूर्छित कर देने के लिए काफी है। अगर वेलेन्टाइन के यूरोपीय समाज में आज कोई होली उतार दे तो वहाँ एक बड़ा सामाजिक भूकम्प हो जाएगा। ऐसे अधमरे-से वेलेन्टाइन को भारत का जो भद्रलोक अपनी छाती से चिपकाए रखना चाहता है, जिसकी जड़ें उखड़ चुकी हैं। उसके रस के स्रोत सूख चुके हैं। उसे अपनी परम्परा का पता नहीं। वह नकल पर जिन्दा है। उसकी अपनी कोई भाषा नहीं, साहित्य नहीं, संस्कृति नहीं। वह अंधेरे में राह टटोल रहा हैं। अपने भोजन, भजन, भेषज, भूषा और भाषा- हर क्षेत्र में पश्चिम की नकल को ही अकल मानता है।

इसीलिए शुभ्रा, धवला प्रेम दिवानी मीरा उसकी नज़र से ओझल हो जाती है और किंवदन्तियों के कुहरे में लिपटे हुए वेलेन्टाइन उसके कण्ठहार बन जाते हैं। मीरा और राधा के देश का आदमी अगर वेलेन्टाइन की खोज में इटली जाता है तो उसे क्या कहा जाएगा? वाटिका में बैठा आदमी कागज के फूल सूंघ रहा हो तो उसे क्या कहा जाएगा? हवाई जहाज में उड़ता हुआ आदमी बैलगाड़ी की गति पर गीत लिख रहा हो तो उसे क्या कहा जाएगा?

भारत का आधुनिक भद्रलोक भी बड़ा विचित्र है! सयाना कौआ है। उससे चतुर दुनिया में कौन है? चतुराई इतनी कि अमेरिकियों को उनकी ज़मीन पर ही उसने दे मारा लेकिन वह जितना सयाना है, उतनी ही गलत जगह पर जा बैठता है! मल्टीनेशनल कम्पनियों के जाल में सबसे ज्यादा वही फँसता है, उपभोक्तावाद की तोप का भूसा वही बनता है, नकलची की भूमिका वही सहर्ष निभाता है। ‘वेलेंटाइन डे’ के नाम पर करोड़ों डॉलर के कार्ड, उपहार और विज्ञापन का धंधा होता है। जैसे क्रिसमस आनन्द का पर्व कम, धंधे का पर्व ज्यादा बन गया है, वैसे ही ‘वेलेंटाइन डे’ पर तीसरी दुनिया में फिजूलखर्ची की एक नई लहर उठ खड़ी हुई है।

इसका विरोध जरूरी है। विरोध इसलिए भी जरूरी है कि नुकसान आखिरकार नकलची का ही होता है। नकलची की जेब कटती है और असलची की जेब भरती है। तीसरी दुनिया का पैसा, उसके खून-पसीने की कमाई आखिरकार ईमानदार देशों में चली जाती है, चाहे वह कार्डों के रास्ते जाए, चाहे जीन्स और टाइयों के रास्ते जाए और चाहे पीज़ा और चिकन के ज़रिए जाए! इस रास्ते को बंद करने के लिए यदि कोई शोर मचाए तो बात समझ में आती है लेकिन बेचारे वेलेन्टाइन ने आपका क्या बिगाड़ा है?

वेलेन्टाइन ने रोम के नौजवानों को न अनैतिकता सिखाई, न अनाचार का मार्ग दिखाया और न ही दुश्चारित्र्य को प्रोत्साहित किया। वह तो डूबतों को तिनका था, अंधेरे का दीपक था।जैसे हिन्दू समाज के बागी युवक-युवतियों के लिए आर्य समाज सहारा बनता है, वैसे ही रोम के प्रेमी-प्रेमिकाओं का सहारा वेलेन्टाइन था। वेलेन्टाइन की आड़ में अगर पश्चिमी कम्पनियाँ अपना शिकार खेल रही हैं तो बेचारा वेलेन्टाइन क्या करे? वेलेन्टाइन तो किसी मल्टीनेशनल का मालिक नहीं था! देने के लिए उसके पास कोई उपहार भी क्या रहा होगा?

अगर जेलर की बेटी को कोई कार्ड उसने भेजा भी होगा तो वह हाथ से ही लिखा होगा और डाक टिकट चिपकाकर नहीं, किसी की मिन्नतें करके ही भिजवाया होगा। सम्राट क्लॉडियस जिस पर दाँत पीस रहा हो, वह वेलेन्टाइन अपने प्रेम की अभिव्यक्ति भला विज्ञापन के ज़रिए कैसे कर सकता था। इसीलिए वेलेन्टाइन को नायक बनाना जितना हास्यास्पद है, उतना ही खलनायक बनाना भी है। वास्तव में ये दोनों कर्म एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जो वेलेन्टाइन को नायक बनाते हैं, वे अपनी परम्परा से उतने ही बेगाने हैं जितने कि वे जो उसे खलनायक बनाते हैं।

वेलेन्टाइन का विरोध करनेवाले क्या भारत को एक बन्द गोभी बनाना चाहते हैं? क्या वे भारत को मध्यकालीन यूरोप की पोपलीला में फँसाना चाहते हैं? क्या वे आधुनिक भारत को किसी शेखडम में परिणत करना चाहते हैं? क्या वेलेन्टाइन की आड़ में वे भारत को मुक्त संस्कृति का गला घोटना चाहते हैं? क्या वे वेलेन्टाइन की आड़ में कालिदास पर प्रहार करना चाहते हैं? जो भारत चार्वाकों को चर्वण करता रहा है, क्या वह वेलेन्टाइन को नहीं पचा सकता?

प्रतिबन्धों, प्रताड़नाओं, वर्जनाओं का भारत कभी हिन्दू भारत तो हो ही नहीं सकता। जिसे हिन्दू भारत कहा जाता है, वह ग्रन्थियों से ग्रस्त कभी नहीं रहा। वह भारत मानव-मात्र की मुक्ति का सगुण सन्देश है। उस भारत को वेलेन्टाइन से क्या डर है? उसे हर पहलू में हजारों वेलेन्टाइन बसे हुए हैं। उसे वेलेन्टाइन के आयात नहीं, होली के निर्यात की जरूरत है।

चीन, जापान, थाईलैंड, सिंगापुर आदि देशों के दमित यौन के लिए वेलेन्टाइन निकास-गली बन सकते हैं लेकिन जिस देश में गोपियाँ कृष्ण की बाहें मरोड़ देती हैं, पीताम्बर छीन लेती हैं, गालों पर गुलाल रगड़ देती हैं, और नैन नचाकर कहती हैं लला, फिर आइयो खेलन होरी,’ उस देश में वेलेन्टाइन को लाया जाएगा तो वह बेचारा बगले झाँकने के अलावा क्या करेगा? कृष्ण के मुकाबले वेलेन्टाइन क्या है? कहाँ कृष्ण और कहाँ वेलेन्टाइन? भारत को असली खतरा वेलेन्टाइन से नहीं, उस पिलपिले भद्रलो से है, जो पिछले पचास साल में उग आया है। वेलेन्टाइन-विरोध के नाम पर जो वितण्डा हुआ, वह इस पिलपिले भद्रलोक और सिरफरे भद्रलोक के बीच हुआ है।

वेलेन्टाइन को ये दोनों जानते हैं लेकिन जनता उसे नहीं जानती। वह तो उसके नाम का उच्चारण भी नहीं कर सकती। उसे वेलेंटाइन से क्या लेना-देना है? जैसे आम जनता को वेलेन्टाइन से कुछ लेना-देना नहीं, वैसे ही इन दोनों भद्रलोकों को आम-जनता से कुछ लेना-देना नहीं है। अगर होता तो पहला भारत समतामूलक समाज की जरूरत के प्रति थोड़ा सचेत दिखाई पड़ता और दूसरा भद्रलोक उन मुद्दों पर लड़ाई छेड़ता, जिनके उठने पर धन, धरती, अवसर आदि समाज में समान रूप से बँटते।

‘वेलेंटाइन डे’ का विरोध करके माँ-बहनों की इज़्ज़त बचाने का दावा करने की बजाय यह कहीं बेहतर होता कि ये ही स्वयंसेवक दहेज और बहू दहन आदि के विरूद्ध मोर्चे लगाते। क्या यह विडम्बना नहीं कि ‘वैलेंटाइन डे’ के प्रेमी और विरोधी, दोनों ही स्त्री-शक्ति को दृढ़तर बनाने के बारे में बेख़बर हैं?

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By वेद प्रताप वैदिक

हिंदी के सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले पत्रकार। हिंदी के लिए आंदोलन करने और अंग्रेजी के मठों और गढ़ों में उसे उसका सम्मान दिलाने, स्थापित करने वाले वाले अग्रणी पत्रकार। लेखन और अनुभव इतना व्यापक कि विचार की हिंदी पत्रकारिता के पर्याय बन गए। कन्नड़ भाषी एचडी देवगौड़ा प्रधानमंत्री बने उन्हें भी हिंदी सिखाने की जिम्मेदारी डॉक्टर वैदिक ने निभाई। डॉक्टर वैदिक ने हिंदी को साहित्य, समाज और हिंदी पट्टी की राजनीति की भाषा से निकाल कर राजनय और कूटनीति की भाषा भी बनाई। ‘नई दुनिया’ इंदौर से पत्रकारिता की शुरुआत और फिर दिल्ली में ‘नवभारत टाइम्स’ से लेकर ‘भाषा’ के संपादक तक का बेमिसाल सफर।

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