Chian America Islam Muslim अमेरिका क्यों इस्लाम से हार रहा? -4: इस्लाम वह निर्विवाद सत्य है, जिसने अफगानिस्तान में अमेरिका को फेल किया, उसे भगाया। यही वजह है जो दुनिया में कोई यह कहता हुआ नहीं है कि अफगानिस्तान में आतंक जीता और उससे अमेरिका हारा। जाहिर है तालिबान से हारना इस्लाम से हारना है। तालिबान की जीत इस्लाम की जीत। सो, तालिबान और इस्लाम दोनों एक-दूसरे के पर्याय हैं तो क्या लड़ाई सीधे इस्लाम बनाम अमेरिका की नहीं है? ऐसे सोचना इस्लामोफोबिया नहीं है, बल्कि सत्य मानना है। पौने दो अरब मुसलमानों में अधिकांश मन ही मन तालिबान की जीत और अमेरिका की हार से सुकून में हैं तो वह क्या इस्लाम का सुकून नहीं?
क्या मैं गलत लिख रहा हूं?
सत्य है कि इस्लाम की सच्चाई को सर्वाधिक ईमानदारी और गंभीरता से दुनिया के तानाशाह देशों या सभ्यता के नस्ली गढ़ों (चीन, रूस, जापान, स्पेनिश भाषी ईसाई देशों) ने स्वीकारा हुआ है। चीन नंबर एक मिसाल है। चीन और रूस वे दो महाशक्तियां हैं, जिन्होंने इस्लाम, आसमानी किताब और कुरान को लेकर गांठ बांधी हुई है। राष्ट्रपति शी जिनफिंग ने अपने यहां वह हर प्रबंधन किया है, जिससे मुसलमानों को कुरान अनुसार जीने की सुविधा और मनमानी का मौका नहीं मिले।
यह फर्क है बर्बर देश की बर्बर नस्ल की तासीर बनाम पश्चिमी सभ्यता की लिबरल याकि फ्रांस की आजादी, समानता, भाईचारे वाले संविधान व व्यवहार का! फ्रांस के राष्ट्रपति ने इस्लाम का नाम ले कर सत्य बोला तो महातीर, अर्दोआनो, इमरान खान सहित तमाम मुस्लिम देश, संगठन राष्ट्रपति मैक्रों के पुतले जलाने, फ्रांस के बहिष्कार की बात करने लगे लेकिन शिनजियांग सूबे में चीन और शी जिनफिंग मुसलमानों के दिल-दिमाग से इस्लाम को मिटाते हुए हैं मगर मजाल जो चीन के खिलाफ इमरान खान या महातीर बोलने, सोचने की भी जुरत करें।
इसलिए कि तालिबान और इस्लाम यदि शेर हैं तो चीन की हॉन सभ्यता सवा शेर है। चीन ने मुस्लिम बहुल इलाकों मे न केवल इस्लाम को दबा रखा है, बल्कि 9/11 के बाद वह इस्लाम को बर्बरता से खत्म करते हुए है। चीन से सही जानकारी भी नहीं मिलती कि उसके यहां के दो या तीन करोड़ मुस्लिम लोग (आबादी आंकड़े पर भी भ्रम है) किस प्रांत में कितने रहते हैं? ऐसा इसलिए कि वह मुसलमान के अलग अस्तित्व को मानने और उस पर बात करना ही नहीं चाहता। वह चाइनीज सभ्यता, हॉन नस्ल की मुख्यधारा में मुसलमान को महज मजदूर मानता है। न मस्जिदें फैलने देता है न दाढ़ी रखने देता है न नमाजी टोपी, बुरका पहनने देता है तो दिन में पांच दफा नमाज या रोजा भी नहीं रखने देता है।
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सोचें, अफगानिस्तान से सटे शिनजियांग प्रांत के उइगर मुसलमानों के दिल-दिमाग से इस्लाम को बाहर निकालने के चीन ने जैसे ब्रेनवाश कैंप बनाए हैं वह क्या इस्लाम को बर्बरता से मारना नहीं है? क्या चीन इस्लाम से लड़ता हुआ उसे खत्म करता हुआ नहीं है? शिनजियांग प्रांत के उइगर मुसलमानों के अलावा बाकी प्रदेशों के हुई और कज्जाक मुसलमानों को तो चीन ने मानो गायब ही कर दिया है। ये कुरान के बताए जीने के तौर-तरीकों में नहीं, बल्कि हॉन सभ्यता के तौर-तरीकों में जी रहे हैं।
जाहिर है वैश्विक मंच पर चीन आतंक और आतंकवाद के जुमले बोलता है लेकिन घर में वह इस्लाम को सीधे खत्म करता हुआ है। अफगानिस्तान में इस्लामी-तालिबानी जीत के बाद चीन के आधिकारिक अखबार ग्लोबल टाइम्स, पीपुल्स डेली ने अमेरिका का जिन शब्दों में मजाक उड़ाया जरा उन पर गौर करें- नपुंसक (impotent), शर्मनाक, मेसी फेल्योर और अफगानिस्तान को रिशेप करने के इरादे में नाकामी!...चीनी अखबारों ने यह भी बताया कि अफगानिस्तान के नए हालातों से चीन को खतरे की आशंका फिजूल है क्योंकि चीन की सेना बड़ी तादाद में उस वाखान कॉरीडोर में तैनात है जो चीन-अफगानिस्तान को जोड़ता है।
मतलब अमेरिका सीखे चीन से कि इस्लाम को कैसे हैंडल करते हैं। वह अपने यहां या अफगानिस्तान से इस्लाम को कभी पनपने नहीं देगा। मुसलमानों को धर्म की स्वंतत्रता नहीं देगा। इस्लाम से लड़ने में चीन सफल है, जबकि अमेरिका ‘नपुंसक’। चीन ने अमेरिका को यह भी नसीहत दी कि वह लोकतंत्र और मानवाधिकार के नाम पर दूसरे देशों के अंदरूनी मामलों में दखल बंद करे और जान लें कि पिछड़ी सभ्यताओं को जीतने या उन्हें बदलने के लिए ताकत का इस्तेमाल व्यर्थ है।
मेरी इस व्याख्या में अमेरिका की हार से चीन की खुशी और उसके साम्राज्यवादी इरादों के विस्तार के पहलू की अनदेखी है। पर मोटामोटी उसने योजना बना ली है कि वह तालिबान का, अफगानिस्तान का वैसे ही इस्तेमाल करेगा जैसा शिनजियांग प्रांत के उइगर मजदूरों का करता है। न तालिबान का अपनी सीमा में असर बनने देगा और न अफगानिस्तान में पश्चिमी सभ्यता की दुर्दशा से उइगर मुसलमानों पर नए सिरे से सोचेगा।
क्यों? इसलिए कि बतौर सभ्यता, बतौर महाशक्ति चीन का मिजाज, संकल्प ईंट का जवाब पत्थर और बर्बरता से देने का है। वह आजादी और दूसरे धर्म, सभ्यता के हक, स्वतंत्रता की बात मानता ही नहीं तो राष्ट्रपति शी जिनफिंग चिंता में ‘एन्लाइटमेंट वाले इस्लाम’ का आइडिया क्यों निकाले? उसने मुसलमानों को जेलनुमा कैंपों में बंद कर उनके दिल-दिमाग से इस्लाम के जीने के तरीकों की साफ-सफाई की रीति-नीति बनाई है तो उसे देश के भीतर, जहां इस्लाम का खतरा नहीं है तो देश के बाहर इस्लाम की वजह से पश्चिमी सभ्यता के पतन को हवा देनी है।
यही रूस और उसके राष्ट्रपति पुतिन की रीति-नीति है। वह भी अपनी आबादी में मुस्लिम संख्या की सही जानकारी नहीं देता है। राष्ट्रपति बाइडेन से मुलाकात के पहले अमेरिकी चैनल एनबीसी को दिए इंटरव्यू में पुतिन ने उइगर मुसलमानों के सवाल पर न केवल चीन का समर्थन किया, बल्कि अपने देश की आबादी में दस प्रतिशत मुसलमानों की संख्या बताते हुए कहा कि रूस के मुस्लिम नेता उग्रवाद के खिलाफ दो टूक (zero tolerance) हैं। भला क्यों न हों जब मुस्लिम आबादी वाले चेचन्या, इंगुशेटिया, उत्तरी काकेसस संघीय जिले और तातारस्तान आदि में रूसी तानाशाही का ताना-बाना है।
मतलब जो देश तानाशाही, बर्बरता, ताकत, लाठी से या दिमाग में आर-पार की रीति-नीति, दो टूक निश्चय-संकल्प में सभ्यतागत निर्णय लिए हुए हैं वे इस्लाम का सत्य समझे हुए हैं और लड़ते हुए हैं। ठीक विपरीत जो लोकतांत्रिक, उदार, आजादी, मानवाधिकारों के आस्थावान हैं या बुजदिल हैं वे दुविधा में थे और हैं कि करें तो क्या करें! एक और उदाहरण। जापान को लेकर यों यह फेक न्यूज है कि उसने अपने यहां इस्लाम और मुसलमान को वर्जित किया हुआ है। यह झूठ है। बावजूद इसके तथ्य है कि शुरू से ही जापानी राष्ट्रवाद दूसरे धर्मों, सभ्यताओं से असहज था। तभी जीने के अपने अंदाज में उसने अलग जापानी घरौंदा बनाए रखा तो वहां इस्लाम की मौजूदगी लगभग नहीं के बराबर है!
इसलिए अमेरिका, पश्चिमी सभ्यता के लिए अब निर्णय का वक्त है कि अफगानिस्तान से वह सीखेगा या अफगानों पर रहम कर उन्हें बतौर शरणार्थी बसाएंगा? यदि फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों ने 2014 में शरण लिए चेचेन्या, अफगान, पाकिस्तानी मुस्लिम नौजवानों की 2021 में बर्बरता पर रोना रोया तो कैसे अमेरिका, यूरोप वापिस रहम में अफगान, सीरियाई मुस्लिम नौजवानों को पनाह देते हुए हैं? पश्चिमी सभ्यता, लोकतंत्र, लिबरल समाज का बौद्धिक दिवालियापन देखें जो सीरिया, लीबिया, लेबनान, यमन याकि अरब-उत्तरी अफ्रीकी देशों में इन्हें मानवता का संकट समझ आता है और वहां से शरणार्थी ले रहे हैं। जबकि सऊदी अरब, खाड़ी के मुस्लिम देश, ईरान, पाकिस्तान, तुर्की को इस्लामी भाईचारे के तकाजे में भी मुस्लिम शरणार्थियों को शरण देने, बसाने का ख्याल नहीं आता। लेबनान से भाग कर मुस्लिम शरणार्थी कुवैत, कतर, सऊदी अरब नहीं जाते, बल्कि तुर्की अधिकृत साइप्रस में घुस यूनानी साइप्रस के जरिए यूनान में घुस कर यूरोप जाते हैं। उसे यूरोप के इलाके में घुसते, आईडी बनते ही 260 यूरो का भत्ता मिलने लगता है। सोचें, इन्हें शरण और इनकी नागरिकता के चार-पांच साल बाद फिर वह अनुभव होता है, जिसे बताते हुए फ्रांस के राष्ट्रपति ने अक्टूबर 2020 में सत्य बोला था। सोचें, सत्य कैसा कटु मगर कितना बेबाक है। तब अमेरिका, पश्चिमी सभ्यता का आगे क्या? इस पर कल!
इस्लाम का सत्य और चीन की बर्बरता!
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