इन दिनों खाने-पीने की चीजों और दवाइयों में मिलावट की खबरें बहुत ज्यादा आ रही हैं। दुनिया के मिलावटखोर तो बड़ी बेरहमी से पैसा कमा रहे हैं लेकिन सैकड़ों-हजारों लोग बेमौत मारे जा रहे हैं। इन मिलावटखोरों के लिए सभी देशों में सजा का प्रावधान है लेकिन भारत में तो उनकी सजा उनके अपराध के मुकाबले बहुत कम है। ये अपराधी सामूहिक हत्या के दोषी होते हैं। इन्हें फांसी की सजा क्यों नहीं दी जाती ? इनके पूरे परिवार की संपत्ति जब्त क्यों नहीं की जाती? हमारे भारत के लोग जरुरत से ज्यादा सहनशील हैं। वे अपनी विधायकों और सांसदों का घेराव क्यों नहीं करते ? वे उन्हें इस मुद्दे पर सख्त कानून बनाने के लिए बाध्य क्यों नहीं करते ? अदालतें इन मिलावटखोरों को फांसी पर तभी लटका सकेंगी, जब उस तरह का कानून होगा। फिर भी दो ताजा मामलों में सर्वोच्च न्यायालय ने मिलावटखोरों की खूब लू उतारी है। नीमच के दो व्यापारियों को पुलिस ने इसलिए पकड़ लिया कि उन्होंने गेहूं पर सुनहरी पाॅलिश (अखाद्य) चढ़ाकर बेचा था। दूसरे व्यापारी ने घी में ऐसी मिलावट की थी कि वह खाने लायक नहीं रह गया था। जो वकील इन दोनों मामलों में पक्षकारों की तरफ से बोल रहा थे, उनसे जजों ने पूछा कि क्या आप खुद वैसा गेहूं और वैसा घी खाना चाहेंगे ? ( adulterers-supreme-court)
मिलावटखोरों को फांसी क्यों नहीं ?
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