nayaindia Congress क्या राजस्थान, मप्र, छतीसगढ़ में कांग्रेस जीतेगी?
गपशप

क्या राजस्थान, मप्र, छतीसगढ़ में कांग्रेस जीतेगी?

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सवाल पर जरा मई 2024 की प्रधानमंत्री मोदी की चुनावी परीक्षा के संदर्भ में सोचें। तो जवाब है कतई नहीं। इन राज्यों में कांग्रेस को लोकसभा की एक सीट नहीं मिलनी है। मई 2024 का लोकसभा चुनाव मोदी के लिए आखिरी, जीवन-मरण का, मरता क्या न करता के एक्सट्रीम दावों का है। तब भला दिसंबर के तीन विधानसभा चुनावों में वे कैसे इन तीन राज्यों में कांग्रेस की सरकार बनने देंगे? खासकर राजस्थान और छतीसगढ़ में, सत्ता में रहते हुए कांग्रेस का दुबारा जीतना! यों इन तीन राज्यों में भाजपा कुछ अहम चेंज करने वाली है। उसकी टाइमलाइन अनुसार सचिन पायलट का फैसला होने वाला है। सीबीआई-ईडी की कार्रवाईयां होने वाली हैं। लेकिन पिछले दस दिनों में मोदी-शाह-नड्डा के सोच-विचार तथा पार्टी की अपनी अंदरूनी फीडबैक के बाद तीनों राज्यों में भाजपा के आला मंत्रियों-सांसदों, संगठन मंत्रियों की जिलावार जो सक्रियता बनती दिख रही है तो अपना मानना है कि कर्नाटक चुनाव के बाद राहुल गांधी भले मध्य प्रदेश में रिकार्ड जीत की बातें करें, भाजपा तीनों राज्यों में कांग्रेस की चुनावी हवा नहीं बनने देगी! कैसे? तो नोट करें इन बातों पर- 1. विधानसभा चुनावों को भाजपा राष्ट्रीय शक्ल देने वाली है। कुछ जानकारों का कयास है कि मोदी ऐसा हल्ला बनाएंगे कि लोकसभा चुनाव सहित आगे-पीछे के विधानसभा चुनाव फरवरी-मार्च में एक साथ कराएं। मैं इसे फालतू मानता हूं। हां, यह संभव है कि मध्य प्रदेश, राजस्थान, छतीसगढ़, तेलंगाना तथा मिजोरम के पांच चुनावों के साथ अपनी सरकारों के प्रदेशों अरूणाचल प्रदेश, हरियाणा तथा आंध्र प्रदेश व सिक्किम की सरकारों को मना कर नौ विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाएं। नौ में से एक-आधे राज्य में भाजपा हार भी जाए तो मोटा-मोटी जीतने की हवा तो भाजपा की! सो, लोकसभा की 86 सीटों पर एक साथ विधानसभा चुनाव। 2.- कांग्रेस और कांग्रेस मु्ख्यमंत्रियों को ईडी-सीबीआई के छापों से केंद्र इतना खाली बना देगी कि न ये अपने को प्रोजेक्ट कर पाएंगे और न मीडिया-सोशल मीडिया में उनके प्रादेशिक मुद्दों, चेहरों, काम और वादों का हल्ला बन सकेगा। 3. विधानसभा चुनाव के प्रादेशिक चेहरों मतलब मुख्यमंत्री या कमलनाथ, हुड्डा, शिवराज, गहलोत, बघेल आदि की चुनाव में खास चर्चा ही नहीं होने दी जाएगी। 4. सबसे बड़ी बात नरेंद्र मोदी अपनी विश्व नेता, दशहरा-दुर्गापूजा-दीपावली के मौकों पर अयोध्या में जगमग, विंध्यवासिनी कॉरिडोर उद्वधाटन, राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा तैयारी जैसी सक्रियता से खुद चुनावों की धुरी बने होंगे।

कह सकते हैं ऐसा मोदी ने कर्नाटक में भी किया था तो राजस्थान, मध्य प्रदेश, छतीसगढ़ में क्या गारंटी की मोदी फ्लॉप नही हों! ठीक दलील है। दिक्कत यह है कि चुनाव हिंदीभाषी प्रदेशों में है। दूसरी बात कर्नाटक में कांग्रेस संगठन, प्रदेश नेताओं की संख्या दमदार और असरदार थी। वही राजस्थान में अकेले अशोक गहलोत, मध्य प्रदेश में कमलाथ तथा छतीसगढ़ में भूपेश बघेल की ऊंगली पर कांग्रेस का पर्वत है। तीनों राज्यों में वोट आधार लिए कुछ कांग्रेसी नेताओं को भाजपा तोड़ने वाली है। मोदी-शाह की रणनीति में नई दिक्कत सिर्फ यह है कि दलित-आदिवासी-मुस्लिम वोट शिद्दत से कांग्रेस से जुड़ते हुए हैं उससे गहलोत-कमलनाथ और भूपेश बघेल के अनुकूल हवा बनेगी। लेकिन राजस्थान में भाजपा गुर्जर-जाट-आदिवासी-मीणा का नया सियासी एलायंस बनाने की जुगाड़ में है। वही मध्य प्रदेश और छतीसगढ़ में नरेंद्र मोदी खुद डेरा डालकर पिछड़ा कार्ड चलाने वाले हैं। तीनों प्रदेशों में भाजपा के कई इक्के हैं। भाजपा के अंदरूनी आकलन में राजस्थान व छतीसगढ़ दोनों जगह मंत्रियों, विधायकों के खिलाफ एंटी इन्कम्बेंसी जबरदस्त है।

हां, कर्नाटक बनाम राजस्थान, छतीसगढ़ का सबसे बड़ा फर्क यह है कि इन दो राज्यों में कांग्रेस सत्ता में है। दोनों में गहलोत व बघेल की प्रभावी इमेज मंत्रियों-विधायकों के खिलाफ माहौल से अधिक ताकतवर नहीं है। मतलब लोग मंत्रियों-विधायकों के चेहरे को भुलाकर अकेले गहलोत, बघेल के चेहरे पर ही वोट डालें, यह मुमकिन नहीं है। भाजपा ने राजस्थान के एक-एक जिले को केंद्रीय मंत्री- चुनावी गणित के जानकार के सुपुर्द किया है। कल ही किसी ने बताया कि पीयूष गोयल-पूनम महाजन अलवर जा कर जिले की तैयारी व मूड बूझेंगे। संघ संगठनों, भाजपा, आईटी सेल की तैयारी, सर्वेक्षण टीमों के सर्वे लगातार होते हुए हैं। राजस्थान में भाजपा की सुपर हिट रणनीति यही रही जो कांग्रेस और सीएम गहलोत को घेरने के लिए सचिन पायलट का फच्चर बनवाए रखा। इसी में गहलोत पूरे चार साल उलझे रहे। उन्हें अपने एक-एक मंत्री, एमएलए को अपने-अपने जिले, इलाके का मुख्यमंत्री सा बनाना पड़ा। इन्हीं की हर जिले में चली। कांग्रेसियों में ही परस्पर खुन्नस बनी। तभी लोग और खुद जिले के कांग्रेस कार्यकर्ता विधायक-मंत्रियों की मनमानी-दादागिरी के खिलाफ वोट देते हुए, उनकी जमानत जब्त करवाते हुए हों तो आश्चर्य नहीं होगा। संभव नहीं लगता कि ऐसी घनघोर एंटी इन्कम्बेंसी को बूझते हुए खड़गे, राहुल गांधी, गहलोत कांग्रेस के मौजूदा 107 विधायकों में आधे के भी टिकट काट पाएं जबकि 107 में बहुसंख्यक कांग्रेसी एमएलए एंटी इन्कम्बेंसी-बदनामी में हारने वाले हैं। ऐसी ही एंटी इन्कम्बेंसी का भाजपा छतीसगढ़ में भी हिसाब लगाए हुए है। बहरहाल, माइक्रो रियलिटी का असल हिसाब सितंबर में लगेगा। फिलहाल मोटी बात 73 लोकसभा सीटों वाले पांच राज्यों में कांग्रेस की दो-चार सीट जीतने की गुंजाइश भी नहीं है। क्या कांग्रेस से ऐसे पांच नाम भी सोचें जा सकते हैं, जिनसे लोकसभा चुनाव जीतने का दम दिखे? तभी विपक्ष-कांग्रेस पवार-केजरीवाल-राहुल-नीतीश सभी गंभीरता से सोचें कि एक कर्नाटक जीत से क्या हिंदीभाषी इलाकों में भी हालात बदला मानें? मोदी हार जाएंगे?

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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