बेबाक विचार

क्या ऐसे सुधरेंगे न्यूज चैनल?

Share
क्या ऐसे सुधरेंगे न्यूज चैनल?
सूचना व प्रसारण मंत्रालय ने देश के तमाम निजी न्यूज चैनलों के लिए एक एडवाइजरी जारी की है। सामान्य स्थितियों में इस बात का समर्थन नहीं किया जा सकता है कि सरकारें मीडिया के लिए निर्देश जारी करें। लेकिन जिन दो मामलों- जहांगीरपुरी हिंसा और रूस-यूक्रेन युद्ध की कवरेज को लेकर सरकार ने निर्देश जारी किया है उसे देखते हुए सरकार के इस कदम का समर्थन करना चाहिए। हालांकि यह अधूरा और देर से उठाया गया कदम है, इसका दूरगामी असर मीडिया आजादी पर हो सकता है और अगर यह परंपरा बनी तो मीडिया की स्वायतत्ता भी खतरे में आएगी। लेकिन भारत के न्यूज चैनल किसी भी मसले को जिस तरह से कवर कर रहे हैं उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि खबर के इस माध्यम का जितना पतन हो चुका है, अब उससे बुरा नहीं हो सकता है। स्व नियमन से यह मीडिया कतई ठिक नहीं हो सकता है। सरकार ने जिस भाषा में एडवाइजरी जारी की है वह अपने आप में न्यूज चैनलों की हकीकत बताने वाली है। सूचना व प्रसारण मंत्रालय की एडवाइजरी में लिखा गया है कि न्यूज चैनलों की कवरेज ‘अप्रमाणिक, भ्रामक व सनसनीखेज है, जिनमें सामाजिक रूप से अस्वीकार्य भाषा का इस्तेमाल किया गया है, जो शालीनता को ठेस पहुंचाने वाली है, अश्लील और अपमानजनक है और सांप्रदायिक भी है’। इसमें आगे कहा गया है चैनलों ने ‘भड़काऊ हेडलाइंस और हिंसा के वीडियो दिखाए, जिनसे सांप्रदायिक सद्भाव और शांति भंग हो सकती है’। सरकार की ओर से जारी एडवाइजरी में इन दो घटनाओं की मीडिया कवरेज के बारे में यह भी कहा गया है कि ये ‘शर्मनाक’ हैं और इनमें ‘संदिग्ध सीसीटीवी फुटेज’ का इस्तेमाल हुआ है, जिससे जांच प्रभावित हो सकती है। सरकार ने न्यूज चैनलों पर न सिर्फ सामाजिक सद्भाव बिगाड़ने और शांति भंग करने का आरोप लगाया है, बल्कि मित्र देशों के साथ संबंधों को भी नकारात्मक रूप से प्रभावित करने का आरोप लगाया है। सूचना व प्रसारण मंत्रालय ने इन दो घटनाओं की कवरेज को लेकर जारी एडवाइजरी में जो कुछ कहा है कि वह भारत के न्यूज चैनलों की वह सचाई है, जिसकी ओर समझदार लोग बरसों से इशारा कर रहे थे। लेकिन पहले इस तरफ कोई ध्यान नहीं दिया गया। सरकार और सत्तारूढ़ दल को इससे राजनीतिक फायदा मिल रहा था क्योंकि चैनलों की कवरेज सत्तारूढ़ दल की राजनीतिक लाइन पर होती थी। उनका एक सूत्री काम विपक्ष से सवाल पूछना और सरकार के हर कदम का समर्थन करना था। जिस फैसले या घटना को सरकार या सत्तारूढ़ दल के प्रवक्ता भी सही नहीं मानते थे उसे भी न्यूज चैनलों में बैठे एंकर और रिपोर्टर न्यायसंगत ठहरा रहे थे। लखीमपुर खीरी में किसानों को कुचले जाने की घटना इसकी मिसाल है, जब भाजपा के नेता इस पर टिप्पणी करने से बच रहे थे तब चैनलों के एंकर ग्राफिक्स बना कर बता रहे थे कि कैसे मंत्री पुत्र की गाड़ी ने किसानों को नहीं कुचला था, बल्कि मंत्री पुत्र खुद किसानों से जान बचा कर भागा था। Read also न्याय का भारतीयकरण इस तरह की कई घटनाएं हैं, जिनकी कवरेज में न्यूज चैनलों ने सारी हदें पार कीं। चैनलों ने लोगों की निजता में दखल दिया, घटनाओं को सांप्रदायिक रंग दिया, सरकार विरोधी लोगों की विच हंटिंग की, आरोपियों का मीडिया ट्रायल किया, अप्रमाणिक वीडियो दिखा कर विपक्ष के नेताओं को बदनाम किया और सरकार के फैसले का बचाव किया, सामाजिक विद्वेष बढ़ाने वाली झूठी खबरें दिखाईं, देश के ज्वलंत मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए स्टूडियोज में नौटंकियां सजाईं, मित्र व शत्रु देश की पहचान किए बगैर अंतरराष्ट्रीय व कूटनीतिक घटनाक्रमों को ऐसे पेश किया, जिससे देश का नुकसान हुआ, पीड़ितों के साथ ऐसा बरताव किया, जो सामान्य संवेदनशीलता की सीमाओं से परे था, पुलिस व प्रशासन की ज्यादतियों पर तालियां बजाईं, नागरिकों की मुश्किलों का मजाक उड़ाया और पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों की धज्जियां उड़ाईं। चैनलों ने न्यूज कवरेज को तमाशे में बदल दिया। स्टूडियो में बैठे एंकर मदारी बन गए और फील्ड के रिपोर्टर उछल-कूद करने वाले जमूरों में तब्दील हो गए। दृश्य मीडिया का पूरा चरित्र ऐसा बाजारू और घटिया हो गया, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। न्यूज चैनलों का मजाक उड़ाने वाली ‘पिपली लाइव’ जैसी फिल्म बन गई, लेकिन भारतीय न्यूज चैनलों को शर्म नहीं आई। ध्यान रहे भारत में मीडिया का बहुत गौरवशाली इतिहास रहा है। नागरिकों के अधिकारों की रक्षा और सामाजिक-सामुदायिक सद्भाव की रक्षा के लिए जीवन होम करने वाले पत्रकार इस देश में हुए हैं। महात्मा गांधी से लेकर सरदार भगत सिंह तक सैकड़ों-हजारों स्वतंत्रता सेनानियों ने अखबार निकाल कर या परचे-पैम्फलेट छपवा कर देश के नागरिकों को जागरूक किया था और अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। आजादी के बाद भी भारत में पत्रकारिता की एक समृद्ध परंपरा रही। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि पत्रकारिता का कोई इतिहास या परंपरा नहीं रही इसलिए भारत का दृश्य मीडिया इस तरह बेलगाम, बिकाऊ या बाजारू हो गया। सत्ता के संरक्षण, वैचारिक प्रदूषण और कॉरपोरेट पूंजी की वजह से भारतीय मीडिया का यह स्वरूप बना है। इसमें एंकर व रिपोर्टर बनने के लिए अपढ़-कुपढ़ होना, बदतमीज होना, बेशर्म व झगड़ालू होना मुख्य अर्हता बन गई और पढ़ा-लिखा व समझदार होना अयोग्यता बन गई। सो, अंत में यह समय आना ही था, जब सरकार की भी तंद्रा टूटती। देर से ही सही लेकिन उसे समझ आया है कि न्यूज चैनल भस्मासुर बनते जा रहे हैं। वे न सिर्फ देश के अंदर सद्भाव व शांति भंग कर रहे हैं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी सरकार की छवि बिगाड़ रहे हैं और देश का नुकसान कर रहे हैं। लंबे समय तक यह उम्मीद की जाती रही मीडिया के अंदर से ही इसे ठीक करने का प्रयास होगा और देर-सबेर यह ठीक भी हो जाएगा। जैसे थोड़े समय पहले तक टीआरपी के लिए न्यूज चैनल सारे दिन ‘काल, कपाल महाकाल’ शो दिखाते थे या थ्री सी यानी सिनेमा, क्रिकेट और क्राइम की खबरें दिखाया करते थे। उसके जरिए भी वे समाज को गुमराह कर रहे थे और पिछड़ा बना रहे थे लेकिन अंततः चैनलों ने उसे छोड़ा। उसी तरह उम्मीद की जा रही थी कि न्यूज चैनलों की पत्रकारिता का मौजूदा दौर भी गुजर जाएगा। पर अब ऐसा लग रहा है कि यह दौर आसानी से नहीं गुजरने वाला है। ध्यान रहे मीडिया की स्वतंत्रता व स्वायत्तता को हर कीमत पर बचाने के लिए प्रतिबद्ध लोग स्व नियमन की बात करते रहे हैं। लेकिन भारत का टेलीविजन मीडिया स्व नियमन से ठीक होने वाला नहीं है। उनकी बीमारी लाइलाज हो गई है। क्या पता सरकार के डंडे से कुछ ठीक हो!
Tags :
Published

और पढ़ें