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राहुल क्या आपदा को अवसर में बदल पाएंगे?

यह यक्ष प्रश्न है कि राहुल गांधी के ऊपर अभी जो आपदा आई है उसे वे अवसर में बदल सकते हैं या नहीं? राजनीतिक नजरिए से देखें तो यह बड़ा मौका है। अब तक कांग्रेस पार्टी और राहुल गांधी दावा करते रहे हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उनसे डरते हैं, पहली बार ऐसी स्थितियां हैं जब वे अपने दावे पर देश के लोगों को यकीन दिला सकते हैं। राहुल अब पूरे देश में घूम कर कह सकते हैं कि दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा और सबसे लोकप्रिय नेता नरेंद्र मोदी उनसे डरते हैं और इसलिए उनकी लोकसभा की सदस्यता समाप्त करा दी गई है। इसमें सचाई चाहे जितनी हो लेकिन लोग इस पर सोचने के लिए मजबूर होंगे। उससे जो नैरेटिव बनेगा वह कांग्रेस को राजनीतिक रूप से फायदा पहुंचा सकता है। उससे राहुल गांधी की छवि मजबूत होगी और कांग्रेस को चुनावी लाभ मिलेगा।

यह काम इंदिरा गांधी ने 1978 में किया था, जब उनकी लोकसभा की सदस्यता समाप्त की गई थी और उनको गिरफ्तार किया गया था। लेकिन सवाल है कि क्या राहुल गांधी इतने सक्षम हैं और कांग्रेस पार्टी इतनी मजबूत है कि इंदिरा गांधी का इतिहास दोहरा सके? इसमें कोई संदेह नहीं है कि कांग्रेस अब वैसी पार्टी नहीं है, जैसी अस्सी के दशक में थी और न राहुल गांधी अपनी दादी इंदिरा गांधी की तरह करिश्माई नेता हैं। देश की राजनीति भी पहले की तरह स्वाभाविक और सहज नहीं रह गई है और न मतदाता वैसे रह गए हैं, जैसे 40 साल पहले थे। इसके बावजूद दमदार नेता अपनी कहानी से राजनीति की दिशा बदल सकता है। अरविंद केजरीवाल से लेकर जगन मोहन रेड्डी तक अनेक मिसालें दी जा सकती हैं। खुद नरेंद्र मोदी एक मिसाल हैं, जिन्होंने 2002 के गुजरात दंगों के बाद लगे आरोपों और प्रतिकूल परिस्थितियों को अपनी राजनीतिक ताकत बना लिया था।

राहुल गांधी भी ऐसा कर सकते हैं बशर्ते कि वे अपनी राजनीतिक राह खुद बनाएं। सबसे पहले तो उनको अपनी राजनीतिक रणनीति खुद बनानी शुरू करनी चाहिए। जब तक वे अपनी मां पर निर्भरता समाप्त नहीं करेंगे तब तक वे स्वाभाविक नेता नहीं बन सकते हैं। अभी उनके ईर्द-गिर्द सोनिया गांधी का एक सुरक्षा कवच दिखता है। हर मौके पर वे ढाल की तरह राहुल को बचाने आ जाती हैं। सूरत की अदालत में राहुल गांधी को दो साल की सजा हुई और उसके अगले दिन उनकी लोकसभा की सदस्यता समाप्त हुई तो सोनिया गांधी ने कांग्रेस की रणनीति बनाने की बैठक की। उनकी बैठक में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और प्रियंका गांधी वाड्रा भी शामिल हुईं। अशोक गहलोत से लेकर तमाम पुराने कांग्रेसी नेता बैठे और आंदोलन की योजना बनाई। इससे राहुल का कोई फायदा नहीं होने वाला है। हकीकत यह है कि उनका कोई भी राजनीतिक अभियान शुरू होता है तो इस पहलू की चर्चा ज्यादा होती है कि किसने योजना बनाई और कैसे उस पर अमल हुआ। राहुल को इस मामले में भाजपा से सीखना चाहिए। वहां योजना कोई भी बनाता हो सारे काम करते हुए नरेंद्र मोदी ही दिखते हैं। इससे यह धारणा बनती है कि नरेंद्र मोदी सब जानते हैं और सब काम करने में सक्षम हैं। इसके उलट राहुल के बारे में धारणा है कि उनसे राजनीतिक कराई जाती है। उनको यह धारणा तोड़ने की जरूरत है।

दूसरे, कांग्रेस की प्रतिक्रिया त्वरित होनी चाहिए। हर मामले में इंतजार और तैयारी से हवा बिगड़ जाती है। जैसे मौजूदा मामले में सूरत की अदालत का फैसला आने के पहले से आंदोलन की योजना बनी हुई होनी चाहिए थी। कांग्रेस का आंदोलन स्वंतःस्फूर्त दिखना चाहिए था। इंदिरा गांधी को जब गिरफ्तार किया गया था तब कांग्रेस को लोग जुटाने की जरूरत नहीं पड़ी थी। अपने आप लाखों लोग सड़कों पर निकले थे। हो सकता है कि कांग्रेस के नेता परदे के पीछे से इसकी प्लानिंग पहले से किए हुए हों लेकिन उस समय ऐसा लगा कि लोग अपने आप सड़क पर उतरे हैं। उसी तरह कांग्रेस की तैयारी पहले से होनी चाहिए थी। सूरत की अदालत से सजा सुनाए जाने के साथ ही अगर देश भर में लोग सड़कों पर उतरते तो उसका ज्यादा असर होता। अब कांग्रेस तैयारी करके आंदोलन करेगी तो वह प्रायोजित लगेगा।

तीसरा, राहुल गांधी को उच्च नैतिक मानदंड स्थापित करना चाहिए। उनको ऐलान कर देना चाहिए कि अगर हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट उनको सदस्यता बहाल कर देती है तब भी वे सांसद नहीं रहेंगे। इस लोकसभा में अब वे कदम नहीं रखेंगे। उन्हें इस मामले में अपनी कहानी बनानी होगी। कहानी चाहे कितनी भी काल्पनिक हो लेकिन अगर लोग उस पर यकीन करें तो वह हिट हो सकती है। राहुल गांधी केंद्र सरकार को चुनौती दे सकते हैं। वे कह सकते हैं कि सरकार अगर चाहती है कि वे सड़क पर उतर कर संघर्ष करें तो वे संसद की बजाय सड़क पर लड़ेंगे। इससे भाजपा बैकफुट पर आएगी और कांग्रेस के कार्यकर्ताओं में जोश आएगा। राहुल इस कानूनी लड़ाई को सड़क पर ले जाकर राजनीतिक बना सकते हैं। उनको पता होना चाहिए कि अंततः उनको जनता के बीच जाकर राजनीतिक लड़ाई ही लड़नी है।

मुश्किल यह है कि कांग्रेस में वह जज्बा और जुनून नहीं है, जिसके दम पर वह सड़क पर उतर कर एक साल लड़ाई लड़े। पार्टी के ज्यादातर नेता सोशल मीडिया में ही आंदोलन कर रहे हैं। उनको ट्विटर, फेसबुक और इंस्टाग्राम पर ही क्रांति करनी है। दूसरी मुश्किल यह है कि पार्टी के पास साधन और सलाहियात भी नहीं हैं। खबर है कि भारत जोड़ो यात्रा के बाद पार्टी का खजाना खाली हुआ है। इसलिए लाखों को लोगों को मोबिलाइज करना और एक साल तक आंदोलन चलाए रखना मुश्किल है। तीसरी, मुश्किल यह है कि अब इंदिरा गांधी के जमाने जैसा माहौल नहीं है। उस समय कांग्रेस विरोधी गठबंधन के नेता मोरारजी देसाई थे और कांग्रेस विरोधी ताकतें बिखरी हुई थीं। अभी कांग्रेस विरोधी ताकत यानी भाजपा अपनी शक्ति के चरम पर है। उसके पास नरेंद्र मोदी के रूप में करिश्माई नेता हैं और वह बेहद साधन संपन्न पार्टी है। अगर कांग्रेस कोई नैरेटिव बनाने की कोशिश करती है तो भाजपा हमेशा उसका काउंटर नैरेटिव लेकर खड़ी रहती है। पिछले नौ-दस साल में भाजपा ने प्रचार के दम पर, प्रधानमंत्री के भाषणों के जरिए और काफी हद तक मीडिया की मदद से नेहरू गांधी परिवार के प्रति नकारात्मक माहौल बनाया है। नेहरू गांधी परिवार को राजनीति में वंशवाद और भ्रष्टाचार का प्रतीक बनाया गया है और इसके बरक्स नरेंद्र मोदी हिंदुत्व, राष्ट्रवाद, ईमानदारी और मजबूत नेतृत्व का प्रतीक बने हैं। राहुल गांधी को इस धारणा को तोड़ना होगा। ध्यान रहे राजनीति अब परसेप्शन की लड़ाई है- धारणा बनाने और तोड़ने की लड़ाई है। अगर उसमें राहुल कामयाब होते हैं तभी जमीनी लड़ाई में कामयाबी मिलेगी।

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By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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