पता नहीं दुनिया की कोई भी एजेंसी खुशी को कैसे माप लेती है! खुशी कोई वस्तु नहीं है, जिसे किसी पैमाने से माप लिया जाए। वह एक मनोभाव है, जिसकी व्याख्या तो की जा सकती है, लेकिन उसकी डिग्री तय नहीं की जा सकती, उसे मापा नहीं जा सकता। तभी जब हर साल वर्ल्ड हैपीनेस रिपोर्ट आती है तो बड़ी कोफ्त होती है- सबसे पहले तो खुशी को मापने के पैमाने को लेकर और उसके बाद देशों की सूची देख कर। खुशी के सूचकांक में भारत 126वें स्थान पर है और पाकिस्तान, श्रीलंका, म्यांमार, यूक्रेन आदि देश भारत से ऊपर हैं। सोचें, यूक्रेन के लोग किस बात से खुश होंगे? एक साल से ज्यादा समय से वहां युद्ध चल रहा है, जिसमें हजारों लोग मारे गए हैं और लाखों लोग विस्थापित हुए हैं। यह अलग बात है कि वे हिम्मत से लड़ रहे हैं। इस आधार पर उनको बहादुर और अदम्य जिजीवीषा वाला तो कहा जा सकता है लेकिन खुश कैसे कहा जा सकता है? क्या लड़ने से उनको खुशी मिल रही है? क्या अपना घर-परिवार और सारी प्यारी वस्तुएं गवां कर खुश रहा जा सकता है? इसी तरह सैनिक तानाशाही झेल रहे म्यांमार के लोग किस बात से खुश होते होंगे या पाकिस्तान और श्रीलंका के लोगों की खुशी का क्या आधार हो सकता है?
अगर खुशी मापने का आधार सामाजिक सुरक्षा की उपलब्धता है, जो भारत के लोगों को हासिल नहीं है और इसलिए उनकी खुशी अधूरी या अपूर्ण है तो दक्षिण एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका के देशों के लोगों को कौन सी सामाजिक सुरक्षा हासिल है? अगर सकल घरेलू उत्पाद खुशी को मापने का पैमाना है तो उस आधार पर भी कैसे 125 देश भारत से बेहतर हो सकते हैं? अगर भ्रष्टाचार में कमी या उसकी गैरमौजूदगी खुश होने का आधार है तो अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के देश कैसे भारत से बेहतर हैं? असल में सस्टेनेबल सॉल्यूशन डेवलपमेंट नेटवर्क यानी एसएसडीएन ने जिन छह पैमानों पर खुशी को मापा है वह अपने आप में अधूरा और बेतुका है। खुशी को मापने के उसके छह पैमाने हैं- सकल घरेलू उत्पाद, सामाजिक सुरक्षा की उपलब्धता, स्वस्थ व लंबी जीवन प्रत्याशा, अपनी पसंद की आजादी, उदारता और भ्रष्टाचार की गैरमौजूदगी।
अगर बारीकी से देखें तो इनमें से कोई भी पैमाना ऐसा नहीं है, जो एक औसत व्यक्ति की खुशी मापने का पर्याप्त पैमाना हो। ऐसा लग रहा है कि एसएसडीएन को सुख और खुशी का फर्क नहीं पता है। उसने सुख सुविधाओं की उपलब्धता को ही खुशी मान लिया है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि जरूरी सुविधाएं उपलब्ध हों, सामाजिक सुरक्षा हासिल हो और सरकार की मदद से या अपने प्रयास से सुख सुविधाएं जुटा ली जाएं तो हो सकता है कि उससे खुशी मिले लेकिन ये सारी चीजें अंतिम तौर पर खुश होने या रहने की गारंटी नहीं हैं। दूसरे, इस बात को भी समझने की जरूरत है कि कोई भी व्यक्ति सिर्फ भौतिक सुख सुविधाओं की उपलब्धता से ही खुश नहीं हो सकता है और न निरंतर खुश बना रह सकता है। सबसे सुखी व्यक्ति को भी सौ तरह के दुख होते हैं, निराशा होती है। अगर ऐसा नहीं होता है तो सबसे सुखी, संपन्न और शक्तिशाली लोगों में अवसाद की बीमारी नहीं होती।
सोचें, भारत की सबसे मशहूर, सफल और अमीर अभिनेत्री दीपिका पदुकोण के बारे में, जो कुछ समय पहले तक घनघोर अवसाद के दौर से गुजर रही थीं! ऐसी क्या बात थी, जो सारी भौतिक सुख सुविधाएं उनको खुशी नहीं उपलब्ध करा सकीं? हम जानते हैं कि दुनिया में सबसे ज्यादा नागरिक आजादी और भौतिक सुख सुविधाएं यूरोप के देशों में हैं। लेकिन यह भी हकीकत है कि अवसाद और निराशा यानी डिप्रेशन की बीमारी भी सबसे ज्यादा यूरोप के देशों में फैल रही है। ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट के एक आंकड़े के मुताबिक यूरोप में सन 2000 से 2020 के बीच एंटीडिप्रेशेंट यानी डिप्रेशन की दवा की बिक्री ढाई गुना बढ़ी है। डिप्रेशन की दवा लेने वाले लोगों में सबसे ज्यादा औसत आइसलैंड के लोगों का है और उसके बाद स्वीडन और नार्वे का नंबर आता है। सोचें, एसएसडीएन की रिपोर्ट के मुताबिक जो आइसलैंड खुशहाली के सूचकांक में तीसरे स्थान पर है वह डिप्रेशन की दवा के इस्तेमाल के मामले में नंबर एक पर है। इसी तरह खुशहाली सूचकांक में स्वीडन और नॉर्वे क्रमशः छठे और सातवें स्थान पर हैं लेकिन डिप्रेशन की दवा के इस्तेमाल में दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं।
सवाल है कि जब संयुक्त राष्ट्र संघ की एजेंसी एसएसडीएन के मुताबिक आइसलैंड, स्वीडन और नॉर्वे में इतनी खुशहाली है तो वहां के लोगों को किस बात का अवसाद है? वे क्यों निराशा से भरे हुए हैं और अवसाद दूर करने वाली दवा का इस्तेमाल कर रहे हैं? जाहिर है कि इन देशों के नागरिकों के निजी जीवन की वास्तविकता और खुशहाली सूचकांक बनाने वाली एजेंसी के आंकड़ों में तालमेल नहीं है। खुशहाली मापने का पैमाना सरकार की ओर से दी जाने वाली सुविधाओं, लोगों की अपनी कमाई, सरकारी एजेंसियों की निष्पक्षता या ईमानदारी और आर्थिक विकास के आंकड़ों पर आधारित है, जबकि खुशी एक मनःस्थित है, जो कई बार इन चीजों से प्रभावित होती है और कई बार इनसे पूरी तरह से अप्रभावित रहती है। यह भी समझने की जरूरत है कि पीड़ा, दुख या मुश्किलों की अनुपस्थिति का मतलब खुशी नहीं है। नकारात्मक मनोभावों का नहीं होना भर खुश होने का कारण नहीं है। सिर्फ इच्छाओं की पूर्ति हो जाना भी खुशी नहीं है। सारे काम व्यक्ति के मन के अनुकूल हों यह भी खुश होने का कारण नहीं हो सकता है। तमाम भौतिक सुख सुविधाओं का हासिल होना भी खुशहाली नहीं है। खुशी का मतलब तमाम मुश्किलों, तकलीफों और समस्याओं को स्वीकार करते हुए, जो हासिल है उसका उत्सव मनाना है। इस पैमाने पर भारत दुनिया के सबसे खुशहाल देशों में शामिल होगा।