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हर विरोध को मोदी सरकार क्यों प्रतिष्ठा का सवाल बनाती?

हर विरोध को मोदी सरकार क्यों प्रतिष्ठा का सवाल बनाती?

लोकतंत्र हर पांच साल पर मतदान करने का नाम नहीं है और कोई भी देश सिर्फ इस आधार पर लोकतांत्रिक नहीं बनता है कि वहां चुनी हुई सरकार चल रही है। कई देशों में चुनी हुई सरकारों की तानाशाही चलती है तो कई देशों में तानाशाह भी चुनाव लड़ कर जीतते हैं। कई लोकतांत्रिक देश भारत की तरह गणतंत्र नहीं हैं लेकिन राजशाही के बावजूद उन देशों में शानदार लोकतंत्र काम करता है। यह जरूर है कि लोकतंत्र स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव के सहारे बनता है लेकिन उसके साथ साथ संवैधानिक संस्थाओं और सरकारी एजेंसियों की स्वतंत्रता व निष्पक्षता सुनिश्चित करना भी लोकतंत्र की अनिवार्य शर्त होती है। इसी तरह असहमतियों को सम्मान देना होता है और प्रतिरोध को लोकतंत्र के अनिवार्य पक्ष की तरह स्वीकार करना होता है। अगर कोई चुनी हुई सरकार असमतियों और प्रतिरोध को कुचलने लगे या हर प्रतिरोध को प्रतिष्ठा का सवाल बना ले तो यह लोकतंत्र के कमजोर होने का संकेत होता है।

भारत में पिछले कुछ समय से ऐसा ही होता दिख रहा है। भारतीय जनता पार्टी और केंद्र की उसकी सरकार हर प्रतिरोध को अपने लिए प्रतिष्ठा का सवाल बना रही है। हर प्रतिरोध को सरकार का विरोध माना जा रहा है, जबकि ऐसा होता नहीं है। जरूरी नहीं है कि हर असहमति सरकार के खिलाफ बगावत का ऐलान हो। भारतीय कुश्ती महासंघ के पूर्व अध्यक्ष और भाजपा के सांसद बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ पहलवानों का विरोध प्रदर्शन केंद्र सरकार के खिलाफ नहीं था। महिला पहलवानों ने बृजभूषण के खिलाफ यौन शोषण के आरोप लगाए थे और उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज करके गिरफ्तारी की मांग कर रहे थे। यह सरकार का विरोध नहीं था। प्रदर्शन करने वाले पहलवान पहले कई मौकों पर प्रधानमंत्री के प्रति अपनी सदिच्छा और सद्भाव जाहिर कर चुके हैं। इसके बावजूद पहलवानों की अनदेखी की गई और उनको 38 दिन तक दिल्ली के जंतर मंतर पर आंदोलन कर दिया गया। फिर अचानक एक दिन पुलिस ने आंदोलनकारियों को हिरासत में लिया और धरना समाप्त करा दिया।

पहलवानों को हिरासत में लेने और उनके तंबू-कनात उखाड़ कर धरना खत्म करा देने से लोकतंत्र मजबूत नहीं हुआ है और न केंद्र सरकार व प्रधानमंत्री की छवि को चार चांद लगे हैं। आखिरकार सरकार ने पहलवानों से बात की और उन्हें भरोसा दिलाया। तो क्या ज्यादा अच्छा यह नहीं होता कि धरना शुरू होते ही सरकार पहलवानों से संवाद शुरू करती, उनकी मांगों के प्रति सहानुभूति दिखाती और कार्रवाई का भरोसा देती? आखिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाई को नारा दिया था और वे बेटियों की सुरक्षा व सम्मान के बारे में किसी भी दूसरे प्रधानमंत्री के मुकाबले ज्यादा बात करते हैं। इसलिए अगर सरकार महिला पहलवानों की मांग पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करती तो उससे प्रधानमंत्री की छवि और बेहतर होती। लेकिन सरकार ने पहलवानों के धरने को शक्ति परीक्षण में बदला। ठीक वैसे ही जैसे 2019-20 में शाहीन बाग के आंदोलन को बनाया गया था 2020-21 के किसान आंदोलन को बनाया गया था। किसान आंदोलन को भी सरकार ने प्रतिष्ठा का सवाल बनाया था और एक साल की जोर आजमाइश के बाद आखिरकार किसानों की मांग मान कर तीनों कृषि कानूनों को रद्द किया गया। यह जरूर है कि उस जोर आजमाइश की कोई राजनीतिक कीमत भाजपा को नहीं चुकानी पड़ी है लेकिन धारणा के स्तर पर सरकार की छवि प्रभावित हुई है।

तभी सवाल है कि यह क्या मानसिकता है, जिसमें सरकार हर असहमति को अपना विरोध और हर प्रतिरोध को अपने खिलाफ बगावत का ऐलान मान रही है? जो लोग यह कह रहे हैं कि बृजभूषण शरण सिंह बहुत ताकतवर नेता हैं, छह बार सांसद रहे हैं और उत्तर प्रदेश के बड़े हिस्से में वोट को प्रभावित कर सकते हैं इसलिए भाजपा आलाकमान ने उनके खिलाफ शिकायत पर कार्रवाई नहीं की वे लोग बुनियादी रूप से गलत हैं। मौजूदा निजाम में कोई भी व्यक्ति इतना महत्वपूर्ण या इतना शक्तिशाली नहीं है कि उसको बचाने के लिए प्रधानमंत्री की छवि और सरकार का इकबाल दांव पर लगाया जाए। उत्तर प्रदेश में भाजपा किसी नेता के चेहरे की बजाय अपने बनाए नैरेटिव के दम पर जीत रही है। अगर चेहरे की बात होगी भी तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के अलावा किसी चेहरे का कोई मतलब नहीं है। इसलिए यह तय मानें की बृजभूषण शरण सिंह अपनी राजनीतिक ताकत के दम पर नहीं बचे हैं, बल्कि यह धारणा बनाए रखने के लिए बचे हैं कि यह सरकार किसी दबाव में कोई कार्रवाई नहीं करती है। प्रधानमंत्री की मजबूत व निर्णायक नेता की छवि है और यह माना जाता है कि अगर उन्होंने किसी दबाव में समझौता किया तो वह छवि प्रभावित होगी। लेकिन असल में ऐसा नहीं होता है।

यह मानना एक गलत धारणा है कि आंदोलन करने वालों की बात मान लेने से सरकार की कमजोरी जाहिर होती है या एक मांग मान लेने के बाद आंदोलनों का रास्ता खुल जाता है या अपने किसी सहयोगी पर कार्रवाई करने से सरकार की बदनामी का खतरा है। यह सरकार इस धारणा से ही प्रभावित है। किसानों से लेकर पहलवानों तक उसने हर प्रतिरोध को प्रतिष्ठा का सवाल बनाया या टकराव की स्थिति पैदा की तो उसके पीछे यही सोच है कि अगर उसने आंदोलनकारियों की बात मानी तो उनकी मांगें बढ़ती जाएंगी या ऐसी मांग करने वाले रोज नए लोग सामने आएंगे या सरकार की बदनामी होगी। इसकी बजाय अगर हर प्रतिरोध को वस्तुनिष्ठ तरीके से देखा जाता और लोकतांत्रिक तरीके से उसे सुलझाने की कोशिश होती तो उससे सरकार की लोकतांत्रिक छवि और बेहतर होती। इसका दूसरा फायदा यह होता कि पक्ष और विपक्ष के बीच वैसा कटुता भरा विभाजन नहीं होता, जैसा अभी दिख रहा है। यह विभाजन सिर्फ राजनीति में नहीं है, बल्कि समाज के हर हिस्से में फैल रहा है। ऐसा सरकार की एक धारणा से बंधने के कारण हुआ है। उसने लोकतंत्र की बुनियादी अवधारणा के तहत सबको अपना मानने और खुद को सबका प्रतिनिधि मानने की बजाय हर मामले में अपना एक पक्ष चुना या अपने को एक पक्ष बना लिया, जिसकी वजह से राजनीति और समाज दोनों में विभाजन बढ़ा।

Published by अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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