बेबाक विचार

दर्पीली मुस्कान और हमारी यादों का पानी

Byपंकज शर्मा,
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दर्पीली मुस्कान और हमारी यादों का पानी
तीन दिन बाद यह साल ख़त्म हो जाएगा। आपका मुझे नहीं मालूम, मगर देश के ज़्यादातर लोगों ने इस साल का एक-एक दिन अपनी उंगलियों के पोरों पर गिन-गिन कर गुज़ारा है। वे पूरे साल अपनी हथेलियों से बालू की तरह छीजते रोज़गार को टुकुर-टुकुर देखते रहे। वे पूरे साल लगातार महंगी होती गई अपनी प्याज-रोटी को टुकुर-टुकुर देखते रहे। वे पूरे साल लगती-हटती धाराओं के पाटों तले पिसती समाज-व्यवस्था की बिलबिलाहट टुकुर-टुकुर देखते रहे। इस टुकुर-टुकुर बेबसी के कुहासे में वे इस उम्मीद की बाती के साथ इस साल को विदाई दे रहे हैं कि अगला साल शायद उनके लिए कुछ अच्छा ले कर आए। पूस की हाड़ तोड़ती सर्दियों में शुक्ल पक्ष की पंचमी को जब हम शतभिषा नक्षत्र में 2019 को विदाई दे रहे होंगे तो भारत के कंधों से एक बड़ा बोझ उतर रहा होगा और पूर्वा भाद्रपदा नक्षत्र में आरंभ हो रहे 2020 के साथ मुल्क़ की जम्हूरियत के सिर पर एक नई ज़िम्मेदारी का भार लद रहा होगा। अगला बरस हर लिहाज़ से और भी ज़्यादा उथल-पुथल भरा होने वाला है। मगर जिन्हें अब तक लग रहा था कि वे कम-से-कम बीस बरस का राज-पट्टा तो अपने नाम लिखवा कर ही लाए हैं, उनके डगमगाते पैरों के किष्किंधा कांड की चौपाइयां हम 2020 में ज़ोर-शोर से सुनेंगे। और, जिन्हें लगने लगा था कि पछुआ हवा के प्रचंड-पचासा थपेड़ों ने उनकी नैया का कचूमर निकाल दिया है, अगले साल की पुरवाई उनके लिए कायाकल्प का मौक़ा ले कर आएगी। बाकी का दारोमदार ख़ुद उन पर होगा। अगले साल की शुरुआत 22 फरवरी के पहले दिल्ली की विधानसभा के चुनाव से होगी और उसका अंत 19 नवंबर से पहले बिहार विधानसभा चुनावों से होगा। दिल्ली के 70 और बिहार के 243 विधायकों का रूप-रंग भारतीय जनता पार्टी की शक़्ल को इसलिए बदरंग करने वाला होगा कि हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव नतीजों में सामने आया देश का रुझान थमने के कोई आसार फ़िलवक़्त दूर-दूर तक नहीं हैं। रामलीला मैदान में गूंजे अपने नाम के प्रायोजित नारों से नरेंद्र भाई मोदी के चेहरे पर आपके साथ मैं ने भी दर्पीली मुस्कान अभी-अभी देखी है। लेकिन देश की आंखों से बहता यादों का वह पानी भी मैं देख रहा हूं, जो नरेंद्र भाई और उनके शुक्रवारी-सखाओं को नज़र नहीं आ रहा है। सो, मैं पूरे विश्वास के साथ आपसे कह रहा हूं कि दिल्ली और बिहार के 313 विधायकों में से भाजपा अगर 30 को भी जिता लाए तो बड़ी बात समझिएगा। देश भर की विधानसभाओं के 4120 विधायकों में से इस वक़्त भाजपा के पास 1316 और कांग्रेस की झोली में 857 विधायक हैं। बाकी 1947 में से 405 सीधे-सीधे भाजपा के सहयोगी दलों के साथ हैं और 400 कांग्रेस के सहयोगियों के पास। बचे 983 विधायक उन क्षेत्रीय दलों के पास हैं, जिनमें से, समय आने पर, इक्का-दुक्का को छोड़ कर बाकी सब भाजपा के ख़िलाफ़ जाएंगे। अगले साल की दीवाली आते-आते नरेंद्र भाई के भारत में भाजपा के विधायकों का प्रतिशत यूं भी एक तिहाई से कम रह जाएगा। पिछले पांच साल में हुए मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड के चुनावों में भाजपा अपने 192 विधायकों से पहले ही हाथ धो चुकी है। इसलिए बावजूद इसके कि कांग्रेस समेत पूरे विपक्ष ने अब से कुछ वक़्त पहले तक ख़ुद को अपनी खोल से बाहर लाने के लिए जितने हाथ-पैर मारे, बड़े बेमन से मारे थे; कोई तो था, जो जनतंत्र की राह में अपनी दुआओं के दीप इस बीच भी जलाता रहा। इसी अनाम ‘कोई’ के भरोसे हमारे लोकतंत्र की रेवड़ ने खूंखार सियासत के जंगल से आज की गौधूलि में अपने आप घर लौटना शुरू कर दिया है। वरना कल के अंदेशे में हमने तो अपने आज को भी मार देने में कहां कोई कोताही रखी थी? मगर भरत-भूमि की अंतर्निहित शक्ति ही यह है कि जब चारों तरफ़ सन्नाटा सांय-सांय करने लगता है तो पता नहीं कैसे भारतवासियों की एक-एक धड़कन अन्याय से बग़ावत के दोहे लिखने लगती है। पौष के इस महीने में अपने शिक्षण संस्थानों से निकल-निकल कर हमारे बच्चे बर्फ़ीले आसमान तले खुले बदन जिस तरह बैठ गए, वह अद्भुत है। उनकी तनी मुट्ठियों ने मनमानी पर आमादा हुकू़मत के विरुद्ध मुखर असहमति का एक नया व्याकरण रच डाला है। इसके बाद नरेंद्र भाई को रामलीला मैदान में अपने किए-धरे पर लीपापोती करनी पड़ी। जब युवा-अधर बदलाव का नवगीत हो जाएं तो यही होता है। तब पराक्रमी से पराक्रमी शासक को भी पीछे हटने पर मजबूर होना पड़ता है। युवा दिल जब अपने को मीरा और कबीर भाव में भिगो लें तो वे हर मायावी शस्त्र का प्रतिकार ख़ुद-ब-ख़ुद बन जाते हैं। इसी के बूते हमारी यह आस बरकरार है कि 2020 का आसमान 2019 से ज़्यादा नीला होगा। मुझे और किसी बात के लिए हो-न-हो, इस बात को लेकर तो नरेंद्र भाई मोदी और अमित भाई शाह पर परम-विश्वास है कि अपने को सिंहासन-बत्तीसी के खेल का सबसे पारंगत खिलाड़ी मान लेने के पहले उन्होंने बत्तीसों पुतलियों की राजा भोज को सुनाई कहानियों में से एक को भी नहीं पढ़ा है। सिंहासन की पहली पुतली रत्नमंजरी से ले कर बत्तीसवीं पुतली रूपवती की सुनाई कथाओं में से अगर एक को भी मो-शा ने गुना तो क्या सुना भी होता तो राज-काज की उनकी शैली ऐसी बदतर न होती कि पांच साल बीतते-बीतते वे देश का और ख़ुद का यह हाल कर डालते। अमरनाथ की गुफा में बैठ कर ध्यान का ढोंग-धतूरा करने से तो बेहतर है कि कोई राज-काज चलाने की समझ देने वाली चार क़िताबें ही पढ़ ले। पिछले पांच-छह साल से हमें अपने ढाई घर की चाल के दांवपेंच दिखा रही ‘मोशा-जोड़ी’ को भी बदलती आबोहवा का अहसास हो गया है। अगर अब भी नहीं हुआ है तो दिल्ली के चुनाव नतीजों के बाद तो हो ही जाएगा। यह शाश्वत सत्य है कि जब सियासत का धर्मपाल स्वयं पर इतरा रहे जमावड़े को अपने साथ ले जाने आता है तो किसी की कोई आनाकानी नहीं सुनता है। राजनीति में इस यम-चिकित्सा की कई बानगियां हम-आप देख चुके हैं। जिन्हें बहेलियों के चरण-कमल धो कर ही अपनी ज़िंदगी धन्य लग रही है, उनके बारे में तो कहें क्या, लेकिन बाकी सब नए सपनों का स्वागत करने को कमर कसते दिखाई दे रहे हैं। अपने सपनों को बुनने जिनती डोर उन्होंने जुटा ली है। वे देश को नकली बहस के पंजों से मुक्त कराने के लिए अपने घरों से निकल चुके हैं। आप-हम अगर उनका हाथ नहीं बटाएंगे तो क़यामत के दिन अपने-अपने प्रभु को क्या जवाब देंगे? इसलिए नए साल में अपने बच्चों का साथ दीजिए। अपने समय की सही शक्तियों का साथ देने का मौक़ा भी ईश्वर सब को नहीं देता है। वह यह अवसर आपको दे रहा है तो कुछ सोच कर दे रहा है। वह नहीं चाहता है कि आपका नाम उस तटस्थ-बही में दर्ज़ हो, जिसके पन्ने भविष्य की थू-थू भुगतेंगे। यह व्हाट्सऐप और ट्विटर पर प्रभात-फेरियां निकलने का समय नहीं है। यह आस्तीनें मोड़ कर और पल्लू कमर में खोंस कर जन-पथ से राज-पथ की तरफ़ बढ़ने का समय है। समय की यह पुकार सुनने से जो इनकार करेंगे, वे ‘भीलन लूटीं गोपियां’ दौर का पश्चात्ताप करते-करते तप्तकुंभ भोगेंगे। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)
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