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सफलतम मलयाली फ़िल्म ‘2018’

सफलतम मलयाली फ़िल्म ‘2018’

‘2018: एवरीवन इज़ अ हीरो’ की कहानी है। इसे मलयाली सिनेमा के इतिहास की सबसे सफल फिल्म माना गया है। जूड एंथनी जोसेफ़ की लिखी और निर्देशित यह फिल्म मई में रिलीज़ हुई थी। पूरी फिल्म पर बीस करोड़ की लागत आई जबकि यह उससे दस गुने यानी दो सौ करोड़ से भी ज्यादा कमा चुकी है। पहले कभी कोई मलयाली फिल्म बॉक्स ऑफ़िस पर इस आंकड़े को नहीं छू पाई थी। इसके कलाकार टोवीनो थॉमस, कुंचाको बबान, नारायण, आसिफ अली, विनीत श्रीनिवासन, गौतमी नायर, अपर्णा बालमुरली, नरेन और लाल को अब जैसे पूरा केरल जानता है।

परदे से उलझती ज़िंदगी

किसी कहर से कम नहीं थे वे दिन। समुद्र चक्रवाती मुद्रा में था, नदियां इस कदर भर गई थीं कि पच्चीस-तीस साल बाद कई बांधों के शटर खोलने पड़े और बारिश थी कि रुकने का नाम नहीं ले रही थी। कई पुल बह गए और दर्जनों सड़कें टूट गईं। चारों तरफ पानी था। लाखों लोगों को राहत शिविरों में ले जाया गया। फिर भी बड़ी संख्या में लोग जहां-तहां फंसे हुए थे। ऐसे में केरल के आम लोगों ने कमर कसी और बचाव अभियान में सेना, नेवी, कोस्ट गार्ड आदि की मदद में उतर आए। जब बोटों की कमी का पता लगा तो सैकड़ों मछुआरे अपनी नावें लेकर आ गए। कोच्चि ज़िला प्रशासन ने एक वाट्सऐप ग्रुप बना कर लोगों से अपील की कि उसे वालंटियर चाहिए तो दर्जनों बाइक सवार वहां आ पहुंचे। ऐसे उत्साही और साहसी लोगों ने जगह-जगह खतरनाक तरीके से फंसे लोगों की जान बचाई। उन तक दवाएं और भोजन पहुंचाया। अस्तित्व की यह ऐसी लड़ाई थी जिसमें मानो पूरा केरल एक-दूसरे की मदद के लिए उठ खड़ा हुआ था।

पांच साल पहले साधारण लोगों की दिखाई यह असाधारण तत्परता ही ‘2018: एवरीवन इज़ अ हीरो’ की कहानी है। इसे मलयाली सिनेमा के इतिहास की सबसे सफल फिल्म माना गया है। जूड एंथनी जोसेफ़ की लिखी और निर्देशित यह फिल्म मई में रिलीज़ हुई थी। पूरी फिल्म पर बीस करोड़ की लागत आई जबकि यह उससे दस गुने यानी दो सौ करोड़ से भी ज्यादा कमा चुकी है। पहले कभी कोई मलयाली फिल्म बॉक्स ऑफ़िस पर इस आंकड़े को नहीं छू पाई थी। इसके कलाकार टोवीनो थॉमस, कुंचाको बबान, नारायण, आसिफ अली, विनीत श्रीनिवासन, गौतमी नायर, अपर्णा बालमुरली, नरेन और लाल को अब जैसे पूरा केरल जानता है।

2018 में जब यह बाढ़ आई तो केरल वालों की निकट अतीत की स्मृति में ऐसा कोई संकट दर्ज़ नहीं था। लेकिन अब उनके पास एक बड़ी मुसीबत की यादें मौजूद हैं जिन्हें वे आसानी से भुला नहीं पाएंगे। राज्य के हर व्यक्ति के पास इस संकट की अपनी अलहदा कहानी होगी। कोई भी फिल्म इन करोड़ों कहानियों को समेट नहीं सकती। मगर वहां के हर व्यक्ति ने अपने उस अनुभव से मिलता-जुलता कोई हिस्सा इस फिल्म में भी पाया। और वे उस अनुभव से दोबारा गुज़रे।

सेना में काम चुके एक युवक को दुबई के वीजा का इंतजार है। यह वीजा और पास के स्कूल की एक टीचर ही उसके भविष्य का सपना हैं। टाइम पास के लिए वह एक नेत्रहीन व्यक्ति की दुकान पर काम करने लगता है जिसे वह महाभारत के दिव्यदृष्टि वाले संजय की तरह दुकान के सामने हो रही गतिविधियों की रनिंग कमेंट्री भी सुनाया करता है। जब बाढ़ आई तो बड़ी हिम्मत से उसने कई लोगों की मदद की और आखिरकार इसी नेत्रहीन दुकानदार को बचाते हुए खुद डूब गया। इसी तरह, एक मछुआरे के बेटे को अपने पुश्तैनी धंधे से नफ़रत है। इसकी बजाय वह एक मॉडल बनना चाहता है। इसी सिलसिले में अगले दिन उसे एक नामी फोटोग्राफर से मिलना है, लेकिन जब पानी हर चीज को ध्वस्त करने लगा तो उसके वश में कुछ नहीं रहा, सिवाय इसके कि वह दूसरों की मदद करे। राज्य में अलग-अलग स्थानों पर ऐसे अनेक हीरो प्रकट हो गए थे।

यह फिल्म बंगला के प्रसिद्ध उपन्यास ‘गणदेवता’ की याद दिलाती है। इसके लेखक ताराशंकर बंन्द्योपाध्याय कमाल के लिक्खाड़ थे। तिहत्तर साल की उम्र में 1971 में उनका निधन हुआ। उन्होंने कम से कम 140 किताबें लिखीं जिनमें 65 उपन्यास थे। असल में 1928 के बाद हर साल, जब तक वे जीवित रहे, उनका कम से कम एक उपन्यास जरूर प्रकाशित हुआ। बीच-बीच में दूसरी पुस्तकें यानी यात्रा वृत्तांत या नाटक या संस्मरण या आत्मकथा भी प्रकाशित होती रहीं। दो-तीन पुस्तकें तो उनके निधन के बाद छपीं। ‘गणदेवता’ पर 1967 में उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला था और पश्चिम बंगाल सरकार ने इस उपन्यास पर तरुण मजूमदार के निर्देशन में 1978 में एक फिल्म भी बनवाई थी।

दूसरे विश्वयुद्ध और ‘भारत छोड़ो’ की गहमागहमी के बीच 1942 में लिखा गया यह उपन्यास बंगाल के एक गांव की पृष्ठभूमि पर है। गांव के मजदूर, कारीगर, किसान, सूदखोर लाला, आदर्शवादी अध्यापक, जमींदार और कुछ क्रांतिकारी किस्म के युवा इसके पात्र हैं। उनके बीच दोस्ती, राजनीति, लालच, बेइमानी, शोषण, अविश्वास, दुश्मनी और मजबूरी के रिश्ते हैं। लेकिन घनघोर बारिश के चलते जब पास की नदी पर बने मिट्टी के बांध के टूटने की नौबत आ जाती है तो पूरा गांव उसे बचाने में जुट जाता है। जो एक-दूसरे को बिलकुल पसंद नहीं करते थे, वे भी इस बांध को बचाने के लिए एक हो गए। उस दृश्य की कल्पना कीजिए जब बारिश में भीगते हुए तमाम गांववाले मिट्टी भर-भर कर ला रहे हैं और बांध में पड़ी दरार को भरने की कोशिश कर रहे हैं। वे जानते थे कि बांध टूट गया तो गांव नहीं बचेगा।

उस समय उनके बीच के सारे भेद मिट गए थे। किसी की हैसियत कुछ भी रही हो, मगर विपदा सबको सामान्य और समान बना देती है। तब हर भेद को लांघ कर सामूहिकता का भाव सबसे ऊपर आ जाता है। केरल में भी जब 2018 की बाढ़ विकराल बनने लगी तो कोई अमीर और गरीब नहीं रह गया। किसी की हैसियत या किसी का धर्म जाने बगैर लोग दूसरों की मदद कर रहे थे। यह फिल्म हमें इसी सामूहिकता का बोध कराती है। ठीक ‘गणदेवता’ की तरह। लेकिन कितनी अजीब बात है कि सामूहिकता के इस कीमती अहसास के लिए हमें हमेशा किसी विपदा की दरकार होती है।

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Published by सुशील कुमार सिंह

वरिष्ठ पत्रकार। जनसत्ता, हिंदी इंडिया टूडे आदि के लंबे पत्रकारिता अनुभव के बाद फिलहाल एक साप्ताहित पत्रिका का संपादन और लेखन।

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