2023 में सावन महीने में अधिकमास पड़ा है। इसलिए सावन एक नहीं, बल्कि दो महीने का होगा। अगली बार अधिक मास भाद्रपद में आएगा। सावन 4 जुलाई 2023 से शुरू हो चुका है, और 31 अगस्त 2023 को समाप्त होगा। इसमें अधिकमास की अवधि 18 जुलाई से 16 अगस्त तक होगी। ऐसा दुर्लभ संयोग पूरे 19 वर्ष बाद बना है, जिसमें सावन महीना पूरे 59 दिनों का होगा। इस वर्ष भारतीय पंचाग के अनुसार 15 अगस्त 2023 की तिथि विक्रम संवत 2080, शक संवत 1945, माह श्रावण पक्ष कृष्ण तिथि चतुर्दशी तिथि ही है।
18 जुलाई- श्रावण अधिकमास शुरू
भारतीय पंचांग में सूर्यमास और चंद्रमास (चांद्रमास) दोनों पद्धति से गणना की परिपाटी है। काल निर्धारण में वर्ष की गणना का मुख्य आधार सूर्य के चारों ओर पृथ्वी का भ्रमण है। इससे ऋतुएँ बनती हैं। सौर वर्ष का स्पष्टत: ऋतुओं के साथ सम्बन्ध है, और सूर्य की बारह संक्रांति होने के कारण चंद्र पर आधारित बारह मास होते हैं। खगोलीय गणनानुसार सूर्य 30.44 दिन में एक राशि को पार कर लेता है। यही सूर्य का एक सौर महीना माना जाता है। इस प्रकार ऐसे बारह महीनों का समय अर्थात 365.25 दिन का समय एक सौर वर्ष कहलाता है। चंद्रमा का महीना 29.53 दिनों का होता है जिससे चंद्र वर्ष (चांद्रवर्ष) में 354.36 दिन ही होते हैं। ज्योतिषीय व खगोलीय गणनानुसार सौर वर्ष का मान 365 दिन, 15 घड़ी, 22 पल और 57 विपल हैं, जबकि चांद्रवर्ष का मान 354 दिन, 22 घड़ी, 1 पल और 23 विपल है। दोनों ही वर्षमानों में प्रत्येक वर्ष 10 दिन, 53 घड़ी, 21 पल अर्थात लगभग 11 दिन का अंतर पड़ता है।
इस अन्तर्मान में समानता लाने अर्थात इस अंतर के समय को समायोजित करने के लिए ही चांद्रवर्ष बारह महीनों के स्थान पर तेरह मास का हो जाता है। यह स्थिति स्वयं ही उत्पन्न हो जाती है क्योंकि जिस चांद्रमास में सूर्य संक्रांति नहीं पड़ती, उसी चंद्रमास को अधिकमास तथा जिस चंद्रमास में दो सूर्य संक्रांति का समावेश हो, उसे क्षयमास की संज्ञा दी गई है। क्षयमास केवल कार्तिक, मार्ग व पौस मासों में होता है। जिस वर्ष क्षयमास पड़ता है, उसी वर्ष अधिमास भी अवश्य पड़ता है परन्तु यह स्थिति 19 वर्षों या 141 वर्षों के पश्चात आती है। पंचांग के अनुसार जिस भी माह में 33 दिनों का समायोजन होता है, वह माह अपने 30 दिनों की बजाय उससे दोगुना हो जाता है। चंद्र वर्ष के अनुसर हर तीन वर्ष में अधिक मास लगता है। अधिक मास को उसी माह में वापस लगने या एक चक्र पूरा करने में 19 वर्ष का समय लगता है।
उल्लेखनीय है कि इस वर्ष 2023 में सावन महीने में अधिकमास पड़ा है। इसलिए सावन एक नहीं, बल्कि दो महीने का होगा। अगली बार अधिक मास भाद्रपद में आएगा। सावन 4 जुलाई 2023 से शुरू हो चुका है, और 31 अगस्त 2023 को समाप्त होगा। इसमें अधिकमास की अवधि 18 जुलाई से 16 अगस्त तक होगी। ऐसा दुर्लभ संयोग पूरे 19 वर्ष बाद बना है, जिसमें सावन महीना पूरे 59 दिनों का होगा। पहला स्वतंत्रता दिवस भी श्रावण अधिकमास में पड़ा था।15 अगस्त 1947 दिन शुक्रवार को श्रावण अधिकमास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि व पुष्य नक्षत्र, अश्लेषा थी। उस दिन सूर्योदय 06:06 बजे पूर्वाह्न, और सूर्यास्त 06:56 अपराह्न में हुआ था।
इस वर्ष भारतीय पंचाग के अनुसार 15 अगस्त 2023 की तिथि विक्रम संवत 2080, शक संवत 1945, माह श्रावण पक्ष कृष्ण तिथि चतुर्दशी तिथि ही है। श्रावण अधिकमास भगवान शिव, भगवान विष्णु की उपासना के साथ ही तन्त्र- मन्त्र साधना के लिए भी बहुत उत्तम माना जाता है। इस अधिकमास में भारत देश को सामरिक और राजनैतिक दृष्टि से वैश्विक पटल पर उभरने और वैश्विक नेतृत्व प्राप्त होने की दिशा में गुरुत्तर लाभ होने की ज्योतिषी उम्मीद की जा रही है। इससे देश का पूरी दुनिया में वर्चस्व बढ़ेगा, मान-सम्मान में वृद्धि होगी, भारत को शोध के क्षेत्र में कोई बड़ी उपलब्धि हासिल हो सकती है।
प्राकृतिक नियमानुसार एक अमावस्या से दूसरी अमावस्या के बीच कम से कम एक बार सूर्य की संक्रांति अवश्य होती है। लेकिन जब दो अमावस्या के बीच कोई संक्रांति नहीं होती तो वह माह बढ़ा हुआ या अधिक मास होता है। संक्रांति वाला माह शुद्ध माह, संक्रांति रहित माह अधिक माह और दो अमावस्या के बीच दो संक्रांति हो जाने पर क्षय माह होता है। क्षय मास कभी- कभी ही होता है।
वशिष्ठ सिद्धांत के अनुसार सूर्य मास और चंद्र मास की गणना के अनुसार चलने वाली भारतीय पंचांग में अधिकमास चंद्र वर्ष का एक अतिरिक्त भाग है, जो हर 32 माह, 16 दिन और 8 घटी के अंतर से आता है। इसका प्राकट्य सूर्य वर्ष और चंद्र वर्ष के बीच अंतर का संतुलन बनाने के लिए होता है। खगोलीय गणना के अनुसार प्रत्येक सूर्य वर्ष 365 दिन और करीब 6 घंटे का होता है, वहीं चंद्र वर्ष 354 दिनों का माना जाता है। दोनों वर्षों के बीच लगभग 11 दिनों का अंतर होता है, जो हर तीन वर्ष में लगभग एक मास के बराबर हो जाता है। इसी अंतर को पाटने के लिए हर तीन वर्ष में एक चंद्र मास अस्तित्व में आता है, जिसे अतिरिक्त होने के कारण अधिकमास का नाम दिया गया है।
भारतीय खगोलीय गणना के अनुसार प्रत्येक तीसरे वर्ष एक अधिक मास होता है। अधिक मास अधिमास, मलमास, मलिम्लुच, संसर्प, अंहस्पति या अंहसस्पति, पुरुषोत्तममास आदि कई नामों से विख्यात है। इस माह में व्रत, दान, पूजा, हवन, ध्यान आदि करने से पाप कर्म समाप्त हो जाते हैं, और किए गए पुण्यों का फल कई गुणा प्राप्त होता है। मलमास या अधिक मास का कोई स्वामी नहीं होता, अत: इस माह में सभी प्रकार के मांगलिक कार्य, शुभ एवं पितृकार्य वर्जित माने गए हैं। यह भी ध्यातव्य है कि अति प्राचीन काल से अधिक मास निन्द्य ठहराये गए हैं।
वैदिक व पौराणिक सभी ग्रन्थों में अधिमास की झलक पाई जाती है। ऐतरेय ब्राह्मण 3/1 में कहा गया है कि देवों ने सोम की लता तेरहवें मास में ख़रीदी, जो व्यक्ति इसे बेचता है वह पतित है, तेरहवाँ मास फलदायक नहीं होता। तैतरीय संहिता 1/4/4/1 एवं 6/5/3/4 में तेरहवाँ मास क्रमशः संसर्प एवं अंहस्पति कहा गया है। ऋग्वेद में अंहस् का तात्पर्य पाप से है। यह अतिरिक्त मास है, अतः अधिमास या अधिक मास नाम पड़ गया है। इसे मलमास इसलिए कहा जाता है कि मानों यह काल का मल है।
अधिक मास को मलिन (मलीन) मानने के कारण ही इस मास का नाम मल मास पड़ गया है। सूर्य वर्ष और चंद्र वर्ष के बीच अंतर का संतुलन बनाने के लिए अधिमास के इस पद्धति का प्रचलन वैदिक काल से ही प्राप्त होता है। वाजसनेयी संहिता 7/30, 22/31, तैतिरीय संहिता 1/4/14, 5/6/7, तैतिरीय ब्राह्मण 3/8/3 आदि में बारह मासों के साथ तेरहवें मास की कल्पना स्पष्टतया प्राप्त होती है। उस समय भी सौर और चन्द्र मास थे। वर्ष गणना का सहज साधन ऋतुओं का एक परिभ्रमणकाल और मास गणना का सहज साधन चन्द्रमा के दो बार पूर्ण होने की अवधि है।
यही चन्द्र सौर प्रणाली विकसित रूप में भारतीय परम्परागत पंचांगों में मिलती है। अथर्ववेद 8/6/2 में मलिम्लुच आया है। काठसंहिता 38/14 में भी इसका उल्लेख है। ऋग्वेद 10/136/2, वाजसनेयी संहिता 22/30, शांखायन श्रौतसूत्र 6/12/15 में अंकित तत्संबंधी विवरणियों से कुछ विद्वानों ने मलिम्लुच का अर्थ चोर लगाया है । मलमासतत्त्व में मलिम्लुच का व्युत्पत्ति करते हुए यह कहा गया है-
मली सन् म्लोचति गच्छतीति मलिम्लुचः ।
अर्थात- मलिन (गंदा) होने पर यह आगे बढ़ जाता है।
वाजसनेयी संहिता 22/30 एवं 31 में संसर्प शब्द तथा वाजसनेयी संहिता 7/31 में अंहसस्पति शब्द और तैतरीय संहिता 1/4/14/1 एवं 6/5/3/4 में अंहसस्पतिय शब्द आए हैं। अंहसस्पति का शाब्दिक अर्थ है -पाप का स्वामी। विद्वानों ने संसर्प एवं अंहसस्पति शब्द में अन्तर व्यक्त किया है। जब एक वर्ष में दो अधिमास हों और एक क्षय मास हो तो दोनों अधिमासों में प्रथम संसर्प कहा जाता है और यह विवाह को छोड़कर अन्य धार्मिक कृत्यों के लिए निन्द्य माना जाता है। अंहसस्पति क्षय मास तक सीमित है। पद्म पुराण 6/64 सहित कुछ पुराणों में अधिमास को पुरुषोत्तम मास कहा गया है। विष्णु को पुरुषोत्तम कहा जाता है, और सम्भव है, अधिमास की निन्द्यता को कम करने के लिए स्वार्थी पौराणिकों ने ऐसा नाम दिया और इसके आधार पर तत्सम्बन्धी कथाएं इन पुराणकारों के द्वारा रच दिया गया है।
देवी भागवत पुराण में मलमास में किए गये सभी शुभ कर्मो का अनंत गुना फल प्राप्त होने और इस माह में भागवत व विष्णु से सम्बन्धित अन्य पुराणों के कथा श्रवण एवं तीर्थ स्थलों पर स्नान का महत्त्व बताया गया है। पुरातन ग्रन्थों में अधिमास के विषय पर अनेकानेक वर्णन प्राप्य हैं, जिनमें कहीं -कहीं कोई साम्यता नहीं दिखाई देती । इससे सम्बन्धित एक रोचक पौराणिक कथा विविध पुराणों में अंकित है।
कथा के अनुसार भारतीय पंचांग गणना पद्धति में प्रत्येक चंद्र मास के लिए एक देवता निर्धारित किए गए। और जब सूर्य और चंद्र मास के बीच संतुलन बनाने के लिए अधिकमास प्रकट हुआ, तो इस अतिरिक्त मास का अधिपति बनने के लिए कोई देवता तैयार ना हुआ। ऐसे में ऋषि-मुनियों ने भगवान विष्णु से आग्रह किया कि वे ही इस मास का भार अपने ऊपर लें। भगवान विष्णु ने देवताओं के इस आग्रह को स्वीकार कर लिया और इस तरह यह अधिकमास मल मास के साथ पुरुषोत्तम मास भी बन गया।
अधिक मास से सम्बन्धित पुराणों में अंकित एक कथा दैत्यराज हिरण्यकश्यप के वध से जुड़ी हुई है। अग्नि पुराण 175/29-30,11में अंकित वर्णन अनुसार वैदिक अग्नियों को प्रज्वलित करना, मूर्ति-प्रतिष्ठा, यज्ञ, दान, व्रत, संकल्प के साथ वेद-पाठ, साँड़ छोड़ना (वृषोत्सर्ग), चूड़ाकरण, उपनयन, नामकरण, अभिषेक अधिमास में नहीं करना चाहिए। हेमाद्रि ग्रन्थ, काल खण्ड ने इसके लिए वर्जित एवं मान्य कृत्यों की लम्बी-लम्बी सूचियाँ दी हैं। निर्णय सिन्धु और धर्म सिन्धु आदि ग्रन्थों में भी तत्सम्बन्धी विवरणी वृहत से अंकित हैं।
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